डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
जीव विज्ञान पौधों और उनके नीचे मिट्टी में रहने वाले जीवाणुओं से बिजली पैदा करने का रास्ता दिखलाता है।
हम पनबिजली संयंत्रों (भाकरा, नागार्जुनसागर, हीराकुड बांध), कोयले या जीवाश्म ईधन (रामगुंडम, भिलाई, नेवेली) या परमाणु संयंत्रों (तारापुर, कुडनकुलम, काकरापर) के ज़रिए बिजली बनाते हैं। हर प्रक्रिया के अपने नुकसान होते हैं। जैसे पानी की कमी या राज्यों के बीच विवाद, धूल और ग्रीनहाउस गैसों से पर्यावरण प्रदूषण, या रेडियोएक्टिव विखंडन के चलते सुरक्षा का मुद्दा। तो क्या हम प्रदूषण-रहित और पर्यावरण-हितैषी बिजली घर बना सकते हैं?
लगता है कि जीव विज्ञान में इसका उपाय है। नेदरलैंड के वेजनिंजेन विश्वविद्यालय के डॉ. मार्जोलिन हेल्डर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक समूह ने एक ऐसा तरीका बतलाया है जिसमें ज़मीन के नीचे रहने वाले जीवाणुओं और पौधों से बिजली पैदा की जा सकती है। बेशक पौधे सूर्य के प्रकाश, पानी और वायुमंडलीय कार्बन डायऑक्साइड का उपयोग कर प्रकाश संश्लेषण करते हैं और कार्बोहाइड्रेट्स के रूप में भोजन और सांस लेने के लिए ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं। मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्मजीव पौधे की जड़ों से निकलने वाले कुछ कार्बनिक पदार्थों को पचाकर कार्बन डायऑक्साइड, हाइड्रोजन आयन और इलेक्ट्रॉन्स पैदा करते हैं।
एक मायने में, पौधे का मिट्टी के ऊपर का हिस्सा प्रकाश-रासायनिक क्रिया सम्पन्न करता है जबकि मिट्टी के नीचे बसे बैक्टीरिया विद्युत-रासायनिक क्रिया को अंजाम देते हैं। इस विद्युत-रासायनिक क्रिया में धनायन और ऋणायन बनते हैं। डॉ. हेल्डर और उनके साथियों ने धन इलेक्ट्रोड (एनोड) और ऋण इलेक्ट्रोड (कैथोड) को उपयुक्त जगह रख कर विद्युत धारा उत्पन्न की, ठीक उसी तरह जैसे बैटरी में करते हैं। विज्ञान की भाषा में इस विधि को पादप-सूक्ष्मजीव ईधन सेल (प्लांट माइक्रोबियल फ्यूल सेल - पीएमएफसी) कहते हैं।
इसकी सादगी को देखिए। यह प्रक्रिया पूरी तरह से प्राकृतिक और पर्यावरण-हितैषी है, इसमें किसी भी बाहरी चीज़ की ज़रूरत नहीं है और यह प्रकृति के चक्र का एक हिस्सा है। लेकिन सवाल यह है कि पीएमएफसी से कितनी बिजली पैदा होती है? यह इसके साइज़ पर निर्भर करता है। अनुमान लगाया गया है कि ज़मीन के 50 से.मी. न् 50 से.मी. के एक छोटे-से प्लाट से लगभग 5 वोल्ट बिजली पैदा होती है। जबकि एक 100 वर्ग मीटर के बगीचे से इतनी बिजली पैदा की जा सकती है कि एक सेल फोन चार्ज किया जा सके या कुछ एलईडी बल्ब जलाए जा सकें। हालांकि वेजनिंजेन समूह ने अपनी एटलस बिÏल्डग को पीएमएफसी तकनीक से एलईडी बल्ब जलाकर रोशन किया है और पास के शहर टिलबर्ग में मोबाइल फोन चार्जिंग स्टेशन बनाया है।
सिद्धांतत: तो पीएमएफसी तकनीक से प्रति वर्ग मीटर में 3.2 वॉट (3.2 वॉट/वर्ग मीटर) बिजली पैदा करने की क्षमता है। लेकिन अब तक इस तकनीक से अधिकतम 220 मिलीवॉट/वर्ग मीटर बिजली पैदा की जा सकी है, जो कि अपेक्षित क्षमता का सोलहवां हिस्सा है। बिजली उत्पादन को बढ़ाने का एक तरीका तो यह होगा कि मिट्टी में ऐसे सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ाई जाए जो ज़्यादा विद्युत उत्पादन करते हैं। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि क्षेत्रफल बढ़ाया जाए और उसमें घास के मैदानों, खेती की ज़मीन, धान के खेतों और इसी तरह की अन्य भूमियों को शामिल किया जाए। जिससे इसकी लागत और लाभ का अनुपात भी बेहतर हो जाएगा। इसी को ध्यान में रखते हुए मार्जोलिन हेल्डर ने आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री एन. चंद्रबाबूनायडू से मुलाकात की और पूरे आंध्र प्रदेश में इसी तकनीक से बिजली उत्पादन का विचार उनके सामने रखा।
चमकते पौधे
एमआईटी (कैम्ब्रिाज, यूएसए) के डॉ. माइकल स्ट्रेनो ने एक और बेहतर रास्ता सुझाया है जिसका सम्बंध सीधे-सीधे पौधे से है, मिट्टी के सूक्ष्मजीवों की इसमें कोई भूमिका नहीं है। यह एक साहसी सुझाव है कि “पौधों को प्रकाश उत्सर्जन करने वाला बनाया जा सकता है।” हम जानते हैं कि पौधे प्रकाश अवशोषित करते हैं, जिसका इस्तेमाल पानी और कार्बन डायऑक्साइड के अणुओं को शर्करा में परिवर्तित करने में करते हैं। स्ट्रेनो और उनके समूह का उद्देश्य है कि पौधे प्रकाश का मात्र अवशोषण ही नहीं करें बल्कि प्रकाश का उत्सर्जन भी करें। और इन पौधों से इतना प्रकाश उत्सर्जन हो कि किसी अंधेरे कमरे में किताब पढ़ने के लिए टेबल लैंप जलाया जा सके। दूसरे शब्दों में, पौधे को जुगनू की तरह जगमगाने वाला बनाया जाए।
जुगनू इसलिए चमकते हैं क्योंकि उनमें एक एन्ज़ाइम होता है जो ल्यूसिफरिन नामक अणु को ऑक्सील्यूसिफेरिन में बदल देता है और इस प्रक्रिया में जो ऊर्जा निकलती है वह प्रकाश के रूप में होती है। इस एन्ज़ाइम को ल्यूसिफरेज़ कहते हैं। (ल्यूसिफरिन नाम लैटिन शब्द ल्यूसिफर से मिला है, जिसका मतलब होता है प्रकाश का वाहक या भोर का तारा यानी शुक्र ग्रह)। लेकिन पौधों में ल्यूसिफरिन या ल्यूसिफरेज़ नहीं होता। यदि किसी तरह ल्यूसिफरिन और ल्यूसिफरेज़ को पौधों के अंदर पहुंचा दिया जाए तो शायद पौधे भी चमकने लगें। यही स्ट्रेनो का विचार है। इसके लिए उन्होंने नैनो-कण तकनीक का इस्तेमाल किया है।
इस प्रयोग के लिए उन्होंने एक जलीय पौधे वॉटरक्रेस (जल-हलीम) और पालक को चुना। उनके समूह ने सबसे पहले ल्यूसिफरेज़ एंज़ाइम को सिलिका से बने नैनो-कणों में लपेट दिया। इसके बाद पॉलीमर पीएलजीए से बने अन्य नैनो-कणों में ल्यूसिफरिन को लपेटा। प्रत्येक नैनो-कण में एक टैग लगाया गया था। यह टैग नैनो-कणों को पौधे की कोशिकाओं के एक विशिष्ट भाग में पहुंचने में मदद करते हैं। इसके बाद एक तीसरा नैनो-कण तंत्र तैयार किया गया जिसमें सह-एन्ज़ाइम-ए नामक अणु को लपेटा गया। यह सह-एंज़ाइम ल्यूसिफरिन अभिक्रिया में बनने वाले एक उत्पाद को हटाता है, अन्यथा उस उत्पाद के कारण अभिक्रिया रुक जाती है।
इसके बाद इन पौधों को पानी में डुबोकर नैनो-कणों के तीनों सेट भी उसी पानी में घोल दिए गए। इसके बाद उच्च दाब लगाया गया ताकि ये नैनो-कण पौधों में अपने आप सही स्थान तक पहुंच जाएं। यह सब करने के बाद अभिक्रिया शुरू हुई। वह पल आ गया था जिसका बेसब्राी से इंतज़ार था। पौधे में प्रकाश का उत्सर्जन हुआ और वह चमकने लगा और यह चमक लगभग 3 घंटों तक बनी रही।
इस प्रयोग में अभी और जोड़-तोड़ करने की ज़रूरत है ताकि प्रकाश की चमक और समयावधि बढ़ाने जैसे मसलों को सुलझाया जा सके। यह भी देखना होगा कि जब प्रकाश की ज़रूरत न हो तो उसे बंद किया जा सके (इस संदर्भ में एक आणविक स्विच की व्यवस्था की गई है)। प्रगति को देखते हुए लगता है कि जल्दी ही इसे साकार किया जा सकेगा। स्ट्रेनो का कहना है कि जल्द ही यह काम पूरा होगा और हमारे आसपास पेड़-पौधे जगमगाते दिखाई देंगे। (स्रोत फीचर्स)