डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
रिकाड्र्स बताते हैं कि मुर्गे अल्सुबह बांग देने का काम सिंधु घाटी सभ्यता के समय से करते आ रहे हैं।
शहरों में ज़्यादातर लोग रात को सोते समय रोशनी से बचने के लिए पर्दे लगाकर सोते हैं और सुबह अलार्म बजने पर जागते हैं। शहरों में हमें सुबह होने की सूचना देने के लिए आस-पास बहुत ही थोड़े पर्यावरणीय संकेत होते हैं। लेकिन गांवों में लोगों को जगाने का काम मुर्गे की बांग करती है। रिकाड्र्स से पता चला है कि ऐसा सिंधु घाटी सभ्यता (3500 ई. पू.) से होता आ रहा है। (मज़ेदार बात है कि मुर्गा के लिए अंग्रेज़ी शब्द कॉक दरअसल कॉकरल का छोटा रूप है। जब कॉकरल बाड़े में किसी समूह का हिस्सा होता है तो इसे रूस्टर कहते हैं। रूस्ट शब्द स्थायी बसे हुए समूह के लिए प्रयुक्त होता है।) आम तौर पर हम मुर्गा शब्द का इस्तेमाल करते हैं जबकि वैज्ञानिक रूस्टर शब्द का।
मुर्गा बांग क्यों देता है इस पर कई शोध हुए हैं। मुर्गे की बांग को तमिल में ‘कुकड़ कू’, अंग्रेज़ी में ‘कॉक-ए-डूडल-डू’ और जापानी में ‘को-की-कोक-को’ कहा जाता है। कुछ पक्षी वैज्ञानिकों ने इस पर अध्ययन किया है कि मुर्गे सुबह-सुबह बांग क्यों देते हैं। हालांकि चर्चा तो कई सिद्धांतों पर हुई है, लेकिन इसका सही जवाब है कि यह मुर्गे की जैविक घड़ी (या सर्केडियन रिदम) के कारण होता है। यह बात जापान के नागोया विश्व विद्यालय की लैबोरेट्री ऑफ एनिमल फिज़ियोलॉजी (जंतु कार्यिकी प्रयोगशाला) के वैज्ञानिक डॉ. तुसुयोशी शिमूरा और उनके समूह ने दर्शाई।
उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में मुर्गे की बांग को रिकार्ड किया। सबसे पहले उन्होंने मुर्गों को 12 घंटे पूर्ण प्रकाश और 12 घंटे मंद प्रकाश (12L: 12dimL) की परिस्थिति में रखा, और इसके बाद लगातार मंद प्रकाश (dimLL) की परिस्थिति में रखा। पहली परिस्थिति में मुर्गे ने सूर्योदय के लगभग 2 घंटे पहले (यानी उषाकाल में) ही बांग देना शुरू कर दिया। लेकिन दूसरी परिस्थिति (लगातार मंद प्रकाश) में वे पक-पक करते रहेे, और इसका चक्र भी 24 घंटे का था। पर यह पक-पक जल्द ही बंद भी हो गई। इसी प्रकार से, शोधकर्ताओं ने जब टार्च या कार की हैड लाइट से तेज़ रोशनी डाली तो मुर्गे ने बांग तो दी लेकिन बहुत ही धीमी और संक्षिप्त, और वह भी जल्दी ही बंद हो गई।
बांग देने का क्रम और समूह में प्रतिष्ठा
मुर्गा एक सामाजिक जंतु है जो समूहों में रहता है। जब समूह में से एक मुर्गा बांग देना शुरू करता है तो दूसरे मुर्गे भी बांग-में-बांग मिलाने लगते हैं हालांकि वे थोड़ी कमज़ोर बांग देते हैं और थोड़ी विलंब से। ऐसा प्रतीत होता है कि बांग देने का मतलब अपने इलाके की घोषणा करना है ताकि कोई बाहरी जीव उस इलाके में घुसने की ज़ुर्रत न करे। शिमुरा के दल ने इस बात का भी अध्ययन किया कि ऐसा क्यों होता है कि जब एक मुर्गा बांग देना शुरू करता है तो बाड़े के बाकी साथी भी उसका साथ देने लगते हैं। उन्होंने पाया कि मुर्गो के बाड़े में जो सबसे पहले बांग देता है वह प्रतिष्ठा के क्रम में सबसे ऊपर होता है। वही सबसे पहले सुबह होने की घोषणा करता है और बाकी सारे उसके अधीन होते हैं। (आपकी रुचि हो, तो इस लिंक पर आगे पढ़ें - Scientific Reports/5 : 11683/Doi : 10.1038/srep 11683)
बाड़े में जो मुर्गियां होती हैं वे बांग नहीं देती हैं। वे केवल थोड़ी पक-पक करती हैं और वह भी आपस में। हो सकता है कि मुर्गियों में भी सामाजिक व्यवस्था होती हो और वे भी कोई प्रतिष्ठा क्रम बनाती हों जैसा कि मुर्गों के बीच बांग देने का क्रम होता है। क्या मुर्गियों में भी जैविक (सर्केडियन) घड़ी अंतर्निर्मित होती है? लगता तो है कि होती है; विशेष रूप से यह अंडाशय से अंडा निकलने (यानी अंडोत्सर्ग) और अंडा देने के दौरान काम करती है। जैसे नर मुर्गों में उषाकाल के दौरान हार्मोन का स्तर अपने चरम पर होता है, उसी तरह मुर्गियों में गोनेडोट्रॉपीन हार्मोन अंडोत्सर्ग के दौरान महत्वपूर्ण होता है। और जहां तक इस बात का सवाल है कि क्यों मुर्गियां केवल पक-पक करती हैं और मुर्गे ज़ोरदार आवाज़ में बांग देते हैं, तो इसका सम्बंध शायद उनकी शरीर रचना में अंतर से है।
जेट प्लेन की तरह ज़ोरदार दहाड़
मुर्गे की बांग कितनी तेज़ हो सकती है? इसका अध्ययन एक बेल्जियन समूह द्वारा किया गया है। उन्होंने इस आवाज़ की तीव्रता नापने के लिए एक यंत्र का उपयोग किया तो पाया कि यह उतनी ही तीव्र होती है जितनी किसी जेट प्लेन के पास खड़े होने पर हमारे कानों तक पहुंचती है। ध्वनि की तीव्रता को डेसिबल की इकाई में मापा जाता है। बाड़े में प्रमुख मुर्गे की ज़ोरदार बांग की तीव्रता 143 डेसिबल (लगभग जेट इज़न के बराबर) होती है। हां, इतनी तीव्रता तब होती है जब हम उससे एक फुट की दूरी पर हों। इतनी तीव्रता की ध्वनि हमारे कान के पर्दे को नुकसान पहुंचा सकती है और हम बहरे भी हो सकते हैं। गनीमत है कि दूर जाने पर आवाज़ की तीव्रता कम होती जाती है। (आम तौर पर बाड़े में मुर्गियां मुर्गों से एक मीटर दूरी पर रहती हैं।)
तुलना के लिए देखें कि फुसफुसाहट की तीव्रता 30 डेसिबल, मच्छर की भिनभिनाहट की तीव्रता 40 डेसिबल और व्यस्त ट्रैफिक की आवाज़ की तीव्रता 80 डेसिबल होती है। और किसी बच्चे की ज़ोर से रोने की आवाज़ 100-120 डेसिबल होती है। (मेरे एक दोस्त जैकब तरु के यहां जब बेटी हुई तो उसने उसका नाम इसाबेल रखने का सोचा, लेकिन उसके ज़ोरदार रोने की आवाज़ सुनी तो कहा कि इसका नाम तो डेसिबल होना चाहिए। वैसे उसका असली नाम सुसाना है)। 130 डेसिबल से ज़्यादा की आवाज़ हमारे कानों को नुकसान पहुंचा सकती है।
इतनी तेज़ आवाज़ में बांग देने के बादजूद मुर्गा खुद बहरा क्यों नहीं होता? बेल्जियन शोध कार्य का सारांश देते हुए किम्बर्ली हिकॉक बताते हैं कि मुर्गे के कान की बनावट विशेष होती है। मुर्गे के बांग देने के समय शोधकर्ताओं ने उसके कानों में माइक्रोफोन बांध दिया। उन्होंने पाया कि बांग देते समय मुर्गे के कान बंद हो जाते हैं। उनके कानों की एक चौथाई नली पूरी तरह बंद हो जाती है और कान के पर्दे को नरम ऊतक आधा ढंक लेते हैं। वास्तव में वे खुद अपनी ऊंची बांग को पूरी तीव्रता से सुन नहीं पाते हैं। उनकी खोपड़ी भी इस तरह के शोर का सामना करने के लिए बनी है। अपनी नैसर्गिक अक्लमंदी के चलते मुर्गियां बांग देने वाले मुर्गे से दूर, करीब एक मीटर दूर, रहती हैं, इस शोर से प्रभावित नहीं होती हैं। और यदि उन्हें बांग का शोर सुनना भी पड़े तो बहुत जल्द ही उनके आंतरिक कान में रोम कोशिकाओं का पुनर्जनन हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)