टीवी कार्यक्रमों और फिल्मों में मनोरोगियों को अक्सर चालबाज़ बताया जाता है, लेकिन ताज़ा अनुसंधान से पता चलता है कि वे ऐसी कोई चालाकी कर ही नहीं सकते क्योंकि चालबाज़ी के लिए व्यक्ति को यह ध्यान देना ज़रूरी होता है कि अन्य लोग किस ढंग से सोचते हैं और उनकी सोच की तोड़ निकालनी पड़ती है जबकि मनोरोगियों के लिए दूसरों के दृष्टिकोण का कोई अस्तित्व ही नहीं होता।
यह समझने की क्षमता का विकास जीवन के शुरुआती वर्षों में ही हो जाता है कि अन्य लोगों की धारणाएं और अभिमत हमसे अलग हो सकते हैं। इसे ‘दिमाग का सिद्धांत’ कहते हैं।
हाल ही में हुए अध्ययन के अनुसार दिमाग के दो घटक होते हैं - एक प्रकट रूप, जहां हम होशो-हवास में यह विचार करते हैं कि कोई और व्यक्ति क्या सोच रहा है। दूसरा, एक स्वचालित घटक होता है जो हमारे फैसलों को अवचेतन स्तर पर प्रभावित करता है।
प्रकट स्तर पर देखा जाए तो यह जानी-मानी बात है कि मनोरोगी दूसरों का दृष्टिकोण समझने में सामान्य लोगों जैसे हैं। लेकिन येल वि·ाविद्यालय की एरिएल बास्किन-सोमर्स और सहयोगियों ने पता लगाया है कि अवचेतन स्तर पर मनोरोगी दूसरों के दृष्टिकोण को समझने में औसत से कमतर होते हैं।
मनोरोगियों को समझने के लिए बास्किन-सोमर्स की टीम ने कनेक्टिकट जेल से 106 कैदियों को चुना। एक सामान्य मानसिक स्वास्थ्य प्रश्नावली के अनुसार 22 कैदी मनोरोगी थे, 28 साफ तौर पर मनोरोगी नहीं थे और अन्य इसके बीच थे।
इसके बाद कैदियों पर एक बिंदु परीक्षण किया गया जिसका उद्देश्य यह जानना था कि वह व्यक्ति दूसरों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखने में कितना सक्षम है। इस परीक्षण में एक कमरे की तस्वीर को देखते हुए दीवारों पर मौजूद बिंदुओं की संख्या बताना था। उस कमरे में एक व्यक्ति की तस्वीर भी थी और जिस तरह वह एक ओर रुख करके खड़ा था, उसके लिए सभी बिंदुओं को देख पाना संभव नहीं था।
इस परीक्षण में होता यह है कि जब वह तस्वीर और परीक्षण दे रहा व्यक्ति दोनों समान संख्या में बिंदु देख पाते हैं, तो व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर देने में लगभग एक सेकंड का समय लेता है। लेकिन अगर वह तस्वीर सभी बिंदुओं को नहीं देख सकती, तो व्यक्ति जवाब देने में थोड़ा ज़्यादा समय लेते हैं। इस प्रभाव को व्यवधान कहते हैं। हम बगैर चेतन स्तर पर विचार किए उस तस्वीर के दृष्टिकोण को ध्यान में ले लेते हैं।
जब गैर-मनोरोगियों पर यह परीक्षण किया गया, तब उस परिस्थिति में उन्हें लगभग 100 मिलीसेकंड अधिक समय लगा जब तस्वीर सभी बिंदुओं को देखने में असमर्थ थी। लेकिन मनोरोगियों ने तस्वीर की स्थिति की ज़्यादा परवाह नहीं की और सिर्फ 60 मिलीसेकंडों की देरी से जवाब दिया। इससे पता चलता है कि वे अन्य लोगों के दृष्टिकोण पर कम ध्यान देते हैं।
टीम ने यह भी पाया कि जिस मनोरोगी ने जितना कम विलंब किया वह उतने ही अधिक हिंसा के आरोपों में दोषी ठहराया गया है। बास्किन-सोमर्स के अनुसार यह अंतर उनके आपराधिक व्यवहार में भूमिका निभाता है। उनकी दुनिया सामान्य से भिन्न होती है। उनमें अन्य लोगों के दृष्टिकोणों को पहचानने की क्षमता में कमी पाई गई। उनमें अन्य लोगों के भयभीत हाव-भाव को देख पाने की क्षमता भी कम होती है।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बिंदु टेस्ट वास्तव में क्या मापता है। कई लोगों को लगता है कि शायद यह अन्य लोगों के दृष्टिकोण का मामला नहीं है बल्कि मात्र ध्यान भटकने का नतीजा है। (स्रोत फीचर्स)