शर्मिला पाल
आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी देश में पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है; सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है। शहरों-कस्बों में जिनके पास पर्याप्त पैसा है, वे खरीद कर बोतलबंद पानी पीते हैं। लेकिन भारत जैसे गरीब देश में हर कोई बोतल बंद पानी खरीद नहीं सकता। तो क्या वे प्रदूषित पानी पीने को अभिशप्त हैं?
देश में जल संकट की समस्या आने वाले कुछ वर्षो में और अधिक विकराल हो सकती है। हाल ही में जारी नीति आयोग की जल-प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक, देश के साठ करोड़ लोग पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं; स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होने से प्रति वर्ष जल-जनित बीमारियों की वजह से करीब दो लाख मौतें हो रही हैं। अचरज की बात है कि आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी पचहत्तर फीसदी घरों में पीने का पानी मुहैया नहीं है। मतलब यही है कि जल संकट के प्रति लोकप्रिय कल्याणकारी सरकारों का नज़रिया उदासीन रहा है।
जिम्मेदारी सरकारों की
जल संकट कोई नई समस्या नहीं है। देश के जागरूक सामाजिक संगठन दशकों से जल संकट का मुद्दा उठाते रहे हैं, लेकिन किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। नतीजा है कि देश में सत्तर फीसदी पानी पीने लायक ही नहीं है। अगर चुनी हुई सरकारें नागरिकों को शुद्ध पेयजल भी मुहैया नहीं करा सकतीं तो उनकी जवाबदेही पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1544 घन मीटर है। इस स्थिति को जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जाता है। अगर यह उपलब्धता 1000 घन मीटर से नीचे आ जाए तो जल संकट माना जाता है। देश की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसे देखते हुए आने वाले एक दशक में भारत जल संकट-ग्रस्त की श्रेणी में आ जाएगा। इसकी एक बड़ी वजह भूजल का बेतरतीब दोहन है।
जल राज्य सूची के अंतर्गत आता है। लिहाज़ा, राज्य सरकारों को जल के महत्व के प्रति जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। दरअसल, जल संकट प्राकृतिक और मानव-निर्मित, दोनों है। जल का समुचित प्रबंधन करके हम जल संकट का समाधान निकाल सकते हैं। सरकार को जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाने पर भी विचार करना चाहिए। किसी ने कहा भी है कि पानी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता है। लिहाज़ा, हमें पानी की बर्बादी को रोकने के उपायों पर भी ध्यान देना होगा।
गहराता संकट
देश में 4.11 करोड़ लोगों को पीने का साफ व सुरक्षित पानी नहीं मिलता। नीति आयोग ने देश में बढ़ते पेयजल संकट पर गहरी चिंता जताई है। आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने कहा है कि आयोग के संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक में लगभग 60 फीसदी राज्यों का प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इनमें उ.प्र., बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं, जहां देश की आबादी के आधे लोग रहते हैं। इस मामले में गुजरात का प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा है। उसके बाद म.प्र. व आंध्र प्रदेश का स्थान है।
आयोग का कहना है कि जिन राज्यों में जल प्रबंधन ठीक नहीं है, वहीं से कुल कृषि उत्पादन का 20-30 फीसदी आता है। अमिताभ कांत कहते हैं, “देश के समक्ष फिलहाल पूरी आबादी को पीने का साफ व सुरक्षित पानी मुहैया कराना ही सबसे बड़ी चुनौती है।” पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अभी से इस संकट की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण के उपायों पर ज़ोर देना होगा। ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ के पूर्व निदेशक के.जे. नाथ कहते हैं, “सरकार को बारिश के पानी का संरक्षण अनिवार्य बनाना होगा। आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने इसके ज़रिए संकट पर काफी हद तक काबू पा लिया है।” पर्यावरणविद् कल्याण रुद्र कहते हैं, “पानी के संरक्षण की दिशा में तुरंत ठोस पहल न की गई तो आने वाली पीढि़यों के समक्ष पीने के साफ पानी का गंभीर संकट पैदा हो जाएगा।”
जल सूचकांक में धड़ाम
नीति आयोग की रिपोर्ट देखने के बाद यह स्पष्ट है कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयावह जल संकट से गुज़र रहा है और हालात को इस कदर बिगाड़ने में अकर्मण्य सरकारी तंत्र के साथ हमारी भी बड़ी भूमिका है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, सरकार के साथ-साथ हमें भी अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हो जाने की ज़रूरत है।
नीति आयोग के जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार, देश के तकरीबन 60 करोड़ लोग पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं, और दो लाख लोग हर साल सिर्फ इस कारण मर जाते हैं कि उनकी पहुंच में पीने योग्य पानी नहीं होता। 75 फीसदी घरों में पीने का पानी नहीं है और देश का करीब 70 फीसदी पानी पीने योग्य नहीं है। जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में भारत 120वें स्थान पर है। रिपोर्ट आगाह करती है कि समुचित प्रबंधन न हुआ, तो 2030 तक बात हाथ से निकल जाएगी, क्योंकि तब तक पानी की मांग आपूर्ति से दुगनी हो चुकी होगी।
दिखावटी सख्ती
कुल मिलाकर, स्थिति भयावह है और बात कटते वनों, नव-वनीकरण में कोताही, अंधाधुंध निर्माण के लिए जल दोहन और शहरीकरण में जल रुाोतों के खत्म होते जाने के सियापे से आगे जा चुकी है। तमाम और कारण भी हैं। आज भी हम खेती के लिए पानी के तार्किक उपयोग वाले सिंचाई के उन्नत इंतज़ाम में पीछे हैं। अंधाधुंध शहरीकरण में उगते कंक्रीट के जंगलों ने पानी का पारंपरिक पुनर्भरण तो कम किया ही, पारंपरिक जल रुाोतों को खत्म ही कर दिया। इन्हें किसी भी सूरत में वापस लाना होगा। नदी-नालों व तालाबों में रसायन और कचरा डालने पर दिखावटी सख्ती हुई, लेकिन असल में कुछ नहीं हुआ। शहरी उपभोक्ता, कृषि व उद्योगों के बीच पानी के बंटवारे का असंतुलन भी हम दूर नहीं कर पाए। इस मामले में सरकारी तंत्र की नाकामी साफ है।
छोटे-छोटे उपाय
आंकड़े बताते हैं कि महज घरों के यूरीनल में हर बार फ्लश चलाने से बचा जाए या वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग किया जाए, तो सौ फ्लैट वाली एक इमारत हर दिन कम से कम सात हज़ार लीटर पानी बचा सकती है। कल्पना करें कि यह प्रयोग अगर हर शहर के हर अपार्टमेंट, दफ्तर और स्कूल में अनिवार्य हो जाए, तो नतीजे कितने सुखद होंगे। हर अपार्टमेंट यदि किचन और बाथरूम के पानी का संचय कर उसके शोधन और फिर से इस्तेमाल की व्यवस्था कर ले, वाटर फ्री यूरीनल का प्रयोग शर्त बन जाए, तो नतीजे अत्यंत नाटकीय होगे।
सूख रहा भूजल
मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड़ पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर सूख रहे हैं और भूजल सूख रहा है। इस मामले में कुछ गतिविधियों पर खास ध्यान देने की ज़रूरत है।
भारत में कोल्ड ड्रिंक के प्लांट जहां जहां भी लगे, वहां भूजल पर असर पड़ा। बड़ी कंपनियां देश में नियमों के अभाव का फायदा उठा रही हैं। केवल कोल्ड ड्रिंक ही नहीं, अन्य फैक्ट्रियों का भी भूजल पर बुरा असर पड़ता है। बेहिसाब खनन और खुदाई भी भूजल पर असर डाल रही है। इसी प्रकार से नदियों के जलस्तर में कमी या बदलाव से आसपास के इलाकों में भूजल पर असर पड़ता है। शहरी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण भी भूजल पर असर डाल रहा है। इमारतों के निर्माण के लिए भी पानी की ज़रूरत है और उनमें रहने वालों के लिए भी।
शहरों में आबादी का अत्यधिक दबाव मल्टीस्टोरी इमारतों और कॉलोनियों के रूप में नज़र आता है। मोटर लगा कर जमीन के नीचे से जबरन पानी खींचा जाता है लेकिन परिणाम के बारे में कोई नहीं सोचता। मगर न सोचने की कीमत बहुत भारी होगी। (स्रोत फीचर्स)