डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
कैंसर तब होता है जब स्वस्थ कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती है, उनमें अनियंत्रित विकास होता है जो स्वास्थ को प्रभावित करता है।
कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी की कैंसर पर लिखी किताब पुलित्ज़र पुरस्कार के लिए चुनी गई थी। उनकी इस किताब का नाम था ‘एम्परर ऑफ ऑल मेलेडीज़’ (बीमारियों का शहंशाह)। यह कैंसर जैसे शत्रु द्वारा प्रस्तुत चुनौती के प्रति विस्मय और खेल भावना से अपने शत्रु की प्रशंसा का मिला-जुला प्रस्तुतीकरण है। इससे पहले 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कैंसर पर युद्ध की घोषणा की थी और इसके लिए 1.4 अरब डॉलर की राशि प्रदान की थी। इन 47 वर्षों में अकेले यू.एस. राष्ट्रीय कैंसर संस्थान ने ही कैंसर पर युद्ध में 90 अरब डॉलर खर्च किए हैं। और विजय अभी हमारा मुंह चिढ़ा रही है।
प्रति वर्ष अमेरिका में 173 लाख नए कैंसर मरीज़ रिपोर्ट होते हैं। और हर 20 मिनिट में एक कैंसर मरीज़ की मृत्यु होती है। भारत में यह आंकड़ा 25 लाख है और हर 8 मिनिट में एक मृत्यु। इस प्रकार सभ्यता की शुरुआत से ही हमारे साथ चली आ रही इस घातक बीमारी का समाधान बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण है।
कैंसर तब होता है जब शरीर में कोई स्वस्थ कोशिका क्षतिग्रस्त हो जाती है और अनियंत्रित वृद्धि करने लगती है जिससे स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कोशिका में क्षति या तो कोशिका के जीन्स को प्रभावित करने वाली जन्मजात या आनुवंशिक त्रुटियों की वजह से हो सकती है या जीवन शैली और पर्यावरणीय कारकों के कारण हो सकती है। सामान्य कोशिका में यह शुरू से तय होता है कि वह एक निश्चित समय तक विभाजन करेगी और एक निश्चित आकार तक वृद्धि करेगी। लेकिन कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में क्षति के कारण वे बेलगाम वृद्धि करती रहती हैं जिसकी वजह से ट्यूमर (गठान) बनता है। कैंसर विशेषज्ञ दवाइयों या सर्जरी से इस ट्यूमर को हटा देते हैं। लेकिन बड़ी चुनौती इसका यह पहला उपचार नहीं है बल्कि यह है कि कैंसर फिर से सिर न उठाए या इसका मेटास्टेसिस (शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुंचकर उन्हें नुकसान पहुंचाना) न होने पाए। अर्थात कैंसर से लड़ाई का मकसद इसकी जड़ तक पहुंचकर उसे उखाड़ फेंकना है।
इसी संदर्भ में हम अपने अंदर कुदरती रूप से मौजूद प्रतिरक्षा तंत्र का रुख करते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र कोशिकाओं, ऊतकों और अणुओं का एक जटिल नेटवर्क है। यह तंत्र संक्रमण और अन्य बीमारियों के साथ-साथ कैंसर से लड़ने में मदद करता है। श्वेत रक्त कोशिकाएं (लिम्फोसाइट्स) इसमें अहम भूमिका निभाती हैं। विशेष रूप से बी-लिम्फोसाइट्स नामक कोशिकाएं हमलावरों में अणुओं की आकृति को पहचानती हैं और फिर एंटीबॉडीज़ बनाती हैं, जो हमलावरों को घेरकर शरीर से हटा देते हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि लिम्फोसाइट इस आकृति को याद रखते हैं, और जब भी इस हमलावर द्वारा पुन: हमला हो तो बी-लिम्फोसाइट तैयार रहते हैं।) कोशिकाओं का एक समूह टी-कोशिकाओं का होता है जो कुछ रसायन छोड़ती हैं। ये रसायन हमलावर कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रक्रिया में इन टी-किलर कोशिकाओं को टी-हेल्पर कोशिकाओं की मदद मिलती है। इसके अलावा डेंड्राइटिक कोशिकाओं का एक और समूह होता है जो बी-कोशिकाओं और टी-कोशिकाओं दोनों को सक्रिय करने में मदद करता है, और वे विशिष्ट खतरे का जवाब देने में समर्थ हो जाती हैं।
प्रत्येक कोशिका की सतह पर एक छोटा मार्कर होता है, एक छोटे आण्विक पहचान पत्र के समान। इसे एंटीजन कहते हैं। ये छोटे-छोटे अणु होते हैं जो कोशिका की सतह पर पाए जाते हैं। शरीर की सामान्य कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाएं ‘अपने’ के रूप में पहचानती है और उन्हें हाथ नहीं लगाती। लेकिन जैसे ही कोई अन्य कोशिका (जैसे हमलावर सूक्ष्मजीव या वायरस) इस तंत्र में घुसपैठ करने की कोशिश करती है तो उसके पराए एंटीजन का पता लगाया जाता है और बी और टी लिम्फोसाइट्स द्वारा हमलावर को शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है।
यही टीकाकरण की बुनियाद है। टीके में, हम रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं (या तो मृत या अक्षम बनाए हुए) को शरीर में प्रवेश कराते हैं। इसे प्रतिरक्षा तंत्र ‘पराए’ विदेशी एंटीजन के रूप में पहचानता है और उसे पकड़कर (एंटीबॉडी प्रोटीन की मदद से) शरीर से बाहर फेंक देता है। साथ ही प्रतिरक्षा तंत्र इस पराए एंटीजन को याद रखता है और जब भी हमलावर फिर से आता है, बी कोशिकाएं इसके खिलाफ एंटीबॉडीज़ बनाती हैं और इसे हटा देती हैं। इस प्रकार शरीर को लंबे समय तक सुरक्षा मिलती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) जैसे कैंसर-कारक वायरस और हेपेटाइटिस बी और सी के वायरस सहित कई बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण के पीछे यही आधार रहा है।
अन्य प्रकार के कैंसर के लिए इसका क्या महत्व है? कैंसर कोशिकाओं की सतह पर भी एंटीजन होते हैं। ये कैंसर-सम्बंधी एंटीजन हैं। इनमें कुछ एंटीजन को शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा पहले नहीं देखा गया था। ये नव-एंटीजन्स कहलाते हैं। ये शरीर के लिए पराए होते हैं जो हमलावर से आते हैं।
वर्तमान में कैंसर के इलाज को लेकर उत्साह के माहौल में, प्रतिरक्षा तंत्र का इस्तेमाल करके एक कैंसर-रोधी टीका बनाने का यह विचार सूची में सबसे आगे हैं। यह रोकथाम का टीका नहीं होगा (जैसे कि एचपीवी या हिपेटाइटिस के टीके होते हैं) बल्कि एक उपचारात्मक टीका होगा। इसमें पहले तो मौजूदा तरीकों से कैंसर का इलाज किया जाता है। इलाज के बाद कैंसर फिर से सिर न उठाए और न ही (मेटास्टेसिस के ज़रिए) अन्य अंगों में फैले, इसके लिए रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक का एक टुकड़ा लिया जाता है और इसमें नव-एंटीजन की पहचान की जाती है। इसके बाद वैज्ञानिकों का एक समूह कंप्यूटर विधि का उपयोग यह जांचने के लिए करता है कि कौन-सा टुकड़ा रोगी के प्रतिरक्षा तंत्र को कैंसर कोशिकाओं से लड़ने के लिए सबसे अच्छी तरह से सक्रिय करेगा। इस तरह चुने गए नव-एंटीजन का इस्तेमाल करके टीका बनाया जाता है। और यह टीका मरीज़ों को दिया जाता है ताकि कैंसर की पुनरावृत्ति न हो। उम्मीद है कि इस प्रकार हमेशा के लिए कैंसर से निजात मिल जाएगी।
कैंसर के कुछ टीके तो बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। उदाहरण के लिए स्तन कैंसर के खिलाफ एचईआर-2, प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ प्रोवेन्ज और मेलानोमा के खिलाफ टी-वीईसी। वैसे आजकल कुछ शोधकर्ता रोगी के पूरे जीनोम को पढ़ कर ट्यूमर के डीएनए या आरएनए के क्षारों का अनुक्रमण करना चाहते हैं ताकि उसमें हुए उत्परिवर्तन की पहचान करके हर मरीज़ के लिए व्यक्तिगत टीका बनाया जा सके। ‘सम्राट’ हमला कर सकता है और घायल कर सकता है। लेकिन अब हम बॉय स्काउट का नारा अपना रहे हैं कि ‘तैयार रहो’, तो शायद सम्राट की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)