डॉ. सम्बित घोष और डॉ. अनंत भान
भारत में एलोपैथिक डॉक्टरों की भारी कमी है। वर्तमान में प्रति 1674 लोगों पर मात्र 1 डॉक्टर है।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के गठन का प्रस्ताव है। इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि आयुष (आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) चिकित्सकों को सीमित व आधारभूत एलोपैथी का कामकाज करने की छूट दी जाएगी। इससे पहले उन्हें एक ब्रिज कोर्स पूरा करना होगा। इस प्रस्ताव पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। एलोपैथी चिकित्सकों के कड़े विरोध के चलते केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ताज़ा संशोधन में इस प्रस्ताव को वापिस ले लिया है और यह ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाल दी है कि वे इस रणनीति का उपयोग करके प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं में मानव संसाधन की कमी की समस्या को संबोधित करें। चाहे यह संशोधन राजनैतिक दृष्टि से सुविधाजनक हो मगर इस तरह घुटने टेकना गलत है।
भारत में एलोपैथिक डॉक्टरों की भारी कमी है। वर्तमान में डॉक्टर-मरीज़ अनुपात 1:1674 का है। भारत में स्वास्थ्य सेवा प्रदाय का अंतिम बिंदु उप-केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) हैं। किंतु 61.2 प्रतिशत पीएचसी में मात्र एक डॉक्टर है जबकि 7 प्रतिशत पीएचसी तो बगैर डॉक्टर के ही काम चला रहे हैं। एक-तिहाई से ज़्यादा पीएचसी में प्रयोगशाला तकनीशियन नहीं है और 20 प्रतिशत से ज़्यादा में कोई फार्मेसिस्ट नहीं है।
ज़ाहिर है, भारत का स्वास्थ्य तंत्र डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। इस कमी को पूरा करने के लिए देश को लगभग 5 लाख डॉक्टरों की ज़रूरत है। ऐसे माहौल में, प्राय: अयोग्य/अप्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों का बोलबाला हो जाता है। उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में दो-तिहाई संभावना यह होती है कि मरीज़ को किसी नीम हकीम का इलाज मिलेगा। जहां सरकार एमबीबीएस और उसी अनुपात में स्नातकोत्तर सीटों की संख्या बढ़ाने की कोशिश कर रही है, वहीं यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारी आबादी की स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतें पूरी हों।
‘आयुष्मान भारत’ के महा आयोजन में उप-केंद्रों और पीएचसी को उन्नत करके हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र कहा जाएगा। ये प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय की धुरी होंगे। अलबत्ता, यह अस्पष्ट है कि समूचे देश में एकरूप ढंग से इन केंद्रों पर कर्मचारियों की ज़रूरत को कैसे पूरा किया जाएगा। ग्रामीण क्षेत्रों में एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी के मद्देनज़र यह ठीक ही लगता है कि इच्छुक आयुष कर्मियों की बड़ी तादाद को इस काम के लिए लामबंद किया जाए। उपयुक्त ब्रिज कोर्स (सेतु पाठ¬क्रम), ठीक-ठाक नियामक व लायसेंसिग व्यवस्था के साथ आयुष स्नातकों को मौका दिया जाना चाहिए कि वे भारत के प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय में योगदान दे सकें।
‘ब्रिज कोर्स’ के खिलाफ आक्रोश का एक कारण तो शायद यह था कि इस कोर्स की प्रस्तावित अवधि महज 6 महीने थी। किंतु देखा जाए तो आयुर्वेद, नर्सिंग, फिज़ियोथेरपी या फार्मेसी जैसे पाठ¬क्रमों में कई विषय तो एमबीबीएस पाठ¬क्रम जैसे ही होते हैं। औषधि विज्ञान और औषधि में अतिरिक्त प्रशिक्षण और साथ में क्लीनिकल सहायक के तौर पर कार्य अनुभव से उन्हें इतना उन्मुखीकरण तो मिल ही जाएगा कि वे ‘सीमित’ एलोपैथी का कामकाज कर सकें। ब्रिज कोर्स का संचालन प्रमुख आयुष कॉलेजों और चुनिंदा ज़िला अस्पतालों द्वारा किया जा सकता है।
पश्चिमी देशों में ऐसे कार्यक्रमों के उदाहरण मौजूद हैं। यूएस में चिकित्सा सहायक (फिज़िशियन असिस्टेंट) ऐसे ही एक कार्यक्रम से निकलते हैं। यह कोर्स प्राय: पेरामेडिक और नर्सें करती हैं। इस कोर्स में दो साल के प्रशिक्षण तथा एक प्रमाणन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ये लोग डॉक्टरों के सहायक बन जाते हैं। हमारे यहां स्नातक व स्नातकोत्तर उपाधि-धारी लोगों की उपलब्धता, ऑनलाइन सुविधाएं व काम करते-करते सीखने के लचीलेपन को देखते हुए यूएस का यह कार्यक्रम अनुकरणीय साबित हो सकता है। यू.एस. में 2017 तक 1 लाख 15 हज़ार चिकित्सा सहायकों ने 81 लाख मरीज़ देखे हैं।
यूके में फिज़िशियन एसोसिएट मॉडल है। इसमें 2 वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में सामान्य वयस्क चिकित्सा और आम कामकाज पर फोकस किया जाता है। न्यूज़ीलैंड में सेंटर फॉर रूरल हेल्थ डेवलपमेंट चिकित्सा सहायकों को निम्लिखित ढंग से परिभाषित करता है: “स्नातकोत्तर स्वास्थ्य सेवा पेशेवर जिन्हें ऐसी क्लीनिकल भूमिका में प्रशिक्षण मिला है जो नर्सिंग व औषधि दोनों की पूर्ति करती है और उन्होंने किसी वरिष्ठ डॉक्टर की निगरानी में काम किया हो।” ये चिकित्सा सहायक ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
2013 से बांग्लादेश में तीन वर्ष के प्रशिक्षण के बाद व्यक्ति उप-सहायक सामुदायिक चिकित्सा अधिकारी की पात्रता हासिल कर लेता है। प्रसंगवश, बांग्लादेश में ग्रामीण क्षेत्रों में 89 प्रतिशत चिकित्सा सेवा मूलत: इन्हीं के भरोसे है। चीन में सहायक डॉक्टर्स, दक्षिण अफ्रीका में क्लीनिकल एसोसिएट्स और मलेशिया में सहायक चिकित्सा अधिकारी ऐसे ही मॉडल्स पर आधारित हैं।
एलोपैथिक डॉक्टर समुदाय, जिनका नेतृत्व भारतीय चिकित्सा संघ करता है, को इस पहल को ‘नीम हकीमों’ को जायज़ ठहराने के रूप में नहीं देखना चाहिए। ब्रिज कोर्स आयुष प्रत्याशियों को कुछ तकलीफों के संदर्भ में एलोपैथिक नुस्खा लिखने को तैयार करेगा - यह उन्हें प्रमाणित नीम हकीम बनाने का प्रयास नहीं है जैसा कि एलोपैथिक डॉक्टर्स कह रहे हैं। इसके बाद वे अत्यंत आधारभूत स्तर की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाय का काम कर सकेंगे। उनके प्रशिक्षण व पाठ¬क्रम का दायरा स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है और ऐसे नियामक प्रतिबंध स्थापित किए जा सकते हैं कि वे स्वीकृत दायरे में ही काम करें। इसके अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य की ज़रूरतें पूरी करने के लिए आयुष प्रदाताओं को प्रशिक्षित करने के अन्य कई लाभ हैं।
ऐसे कर्मी बीमारियों की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करने में मददगार हो सकते हैं, जो भारत में संक्रामक व गैर-संक्रामक दोनों तरह के रोगों के बढ़ते बोझ के देखते हुए एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है। सरकार द्वारा निर्धारित कुछ तकलीफों के लिए आयुष कर्मी उपचार की शुरुआत कर सकेंगे, फॉलो-अप को संभाल सकेंगे और ज़रूरी होने पर रेफर कर सकेंगे। इससे यह पक्का हो जाएगा कि मानक उपचार क्रम का पालन हो पाए। इससे बेतुकी चिकित्सा पर रोक लगेगी और एंटीबायोटिक जैसी दवाइयों के दुरुपयोग पर अंकुश लगेगा।
यह ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल देना त्रुटिपूर्ण होगा कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतें पूरी करने के लिए स्थानीय स्तर पर ब्रिज कोर्सेस चला लें। क्रियांवयन चाहे राज्य के स्तर पर हो, किंतु कोर्स का डिज़ाइन, कानूनी ढांचा और मानकीकृत योजना तो केंद्र की ही ज़िम्मेदारी है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चिकित्सकों की मांग बहुत बढ़ गई थी। उस समय यू.एस. ने एक फास्ट ट्रैक प्रशिक्षण को सफलतापूर्वक लागू किया था। आज यह चिकित्सा सहायक कार्यक्रम के लिए मॉडल का काम करता है। भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली की पुनर्रचना पूरी नहीं होगी यदि हम ऐसे सामर्थ्यजनक नवाचार नहीं करते; जैसे ब्रिज कोर्स चलाकर मध्य स्तर के स्वास्थ्य सेवा कर्मियों की चिकित्सा सम्बंधी क्षमताओं को उन्नत करना। (स्रोत फीचर्स)