डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
बहत्तर साल पहले औपनिवेशिक साम्राज्य ढह गया और अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका के करीब 80 देश स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। प्रत्येक राष्ट्र को अपने भविष्य की योजना बनानी थी। अलबत्ता, इन 80 देशों में भारत इकलौता देश था जिसने विकास की नीति के रूप में ‘विज्ञान से मित्रता’ को अपनाया था। अन्य किसी देश ने ऐसा नहीं किया था; तो यह भारत का एक अनोखा और दूरगामी निर्णय था।
हमारे पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ऐलान किया: “भविष्य विज्ञान का है और उन लोगों का है जो विज्ञान से दोस्ती करेंगे।” एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अपने विकास व खुशहाली के लिए हमने विज्ञान व टेक्नॉलॉजी को प्रमुख साधन के रूप में अपनाया। तमाम प्रतिष्ठित व देश के प्रति समर्पित वैज्ञानिकों, टेक्नॉलॉजीविदों, और विचारकों से सलाह आमंत्रित की गई और उस सलाह पर ध्यान दिया गया। आज़ादी के एक दशक के अंदर हमारा खाद्यान्न उत्पादन तिगुना हो गया; चेचक का सफाया कर दिया गया; पाकिस्तान के साथ पांच सिंधु नदियों के पानी के सौहार्दपूर्ण बंटवारे का समझौता हुआ; बांधों और जलमार्गों का निर्माण हुआ तथा पांच आईआईटी, दो कृषि विश्वविद्यालयों तथा एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना की गई। निसंदेह यह सूची अधूरी है और पाठक इसमें जोड़ सकते हैं। हम आज भी उन वैज्ञानिकों, टेक्नॉलॉजीविदों और विचारकों की सलाह से लाभान्वित हो रहे हैं और उसे आगे बढ़ा रहे हैं। हम ऐसा न करते, तो क्या होता?
क्या भारत इस साहसिक पहल के लिए तैयार था? पता चलता है कि आधुनिक विज्ञान भारत में औपनिवेशिक दौर में मध्य 1700 में जड़ें जमा चुका था। इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइन्स के आगामी अंक में 35 ऐसे सफल वैज्ञानिकों की कहानियां शामिल की जा रही हैं जो औपनिवेशिक काल में तथाकथित पाश्चात्य विज्ञान में निपुण हो चुके थे। और ऐसे कई प्रतिष्ठित वैज्ञानिक और उनके छात्र भारत में रहने वाले भारतीय थे। इन विद्वानों और राजनेताओं के वैचारिक संगम ने ही भारत को आधुनिक बनाया।
आज आज़ादी के सत्तर साल बीत चुके हैं। विज्ञान के कामकाज ने भारत को किस तरह बदला है? भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने इसी विषय पर एक पुस्तक प्रकाशित की है: “इंडियन साइन्स: ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया - ए लुक बैक ऑन इट्स 70-इयर जर्नी; इम्पैक्ट ऑफ साइन्स इन इंडिपेंडेंट इंडिया” (भारत को बदलता भारतीय विज्ञान - 70 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन; स्वतंत्र भारत में विज्ञान का प्रभाव)। इस पुस्तक में अदिता जोशी (जीव वैज्ञानिक व शिक्षक), दिनेश शर्मा (पत्रकार व विज्ञान लेखक), कविता तिवारी (जैव-प्रौद्योगिकीविद व लेखक), और निसी नेविल (भौतिक शास्त्री और विज्ञान विज्ञान नीति सलाहकार) द्वारा लिखित 11 आलेख हैं। सारे आलेख निहायत सरल व शब्दजाल से मुक्त शैली में लिखे गए हैं। ये आलेख दर्शाते हैं कि
1) कैसे आधुनिक विज्ञान ही कुंजी है,
2) बड़े पैमाने के अनुप्रयोग संभव हैं, जो किसी राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था को बदल सकते हैं,
3) समझ, स्वीकार्यता और कामकाज के लिए सामुदायिक भागीदारी ज़रूरी है,
4) मौजूदा/स्थापित रुढि़यों को ललकारना और चुनौती देना ज़रूरी है, और
5) कैसे ‘आधुनिक जीव विज्ञान’ को अपनाने तथा उसका इस्तेमाल आम कल्याण के लिए करने का स्वागत ग्रामीण लोगों ने भी किया है।
अदिता जोशी बताती है कि कैसे मतदाताओं को चिंहित करने के लिए अमिट स्याही 1940 के दशक में ही डॉ. सलीमुज़्ज़मन सिद्दीकी ने विकसित की थी। उन्होंने इसका विकास कोलकाता में सीएसआईआर के लिए किया था। प्रसंगवश, यह बताया जा सकता है कि 1951 में वे पाकिस्तान चले गए थे और वहां उस देश के आधुनिक विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के प्रवर्तक बने। उन्होंने पाकिस्तान विज्ञान अकादमी, पाकिस्तान सीएसआईआर, परमाणु ऊर्जा आयोग आदि संस्थाओं की स्थापना की। देखा जाए तो वे पाकिस्तान को औपनिवेशिक भारत का तोहफा थे।
दिनेश शर्मा ने इस बाबत अत्यंत पठनीय लेख लिखा है कि सूचना टेक्नॉलॉजी की क्रांति कैसे सम्पन्न हुई। यह एक चौंकाने वाले तथ्य के रूप में उभरता है कि डॉ. पी.सी. महलनबीस (भारतीय सांख्यिकी संस्थान के संस्थापक) ने 1943 में स्थानीय स्तर पर कंप्यूटिग मशीनों के निर्माण में योगदान दिया था। यह भी पता चलता है कि पहला एनालॉग कंप्यूटर भारतीय सांख्यिकी संस्थान और जादवपुर वि·ाविद्यालय के संयुक्त प्रयासों का नतीजा था। शर्मा ने टिफ्रेक नामक डिजिटल कंप्यूटर के विकास में टीआईएफआर मुंबई के डॉ. आर. नरसिंहन के अथक प्रयासों का सुंदर विवरण दिया है। शर्मा डॉ. वी. राजारामन के प्रयासों को सलाम करते हैं, जिनकी बावक्त पुस्तकों के बगैर भारत सूचना टेक्नॉलॉजी में इतने तेज़ तरक्की न कर पाता। उनकी पुस्तकें सूचना टेक्नॉलॉजी के छात्रों के लिए वही स्थान रखती हैं जो चिकित्सा के छात्रों के लिए ग्रे'स एनाटॉमी का है।
कविता तिवारी ने बताया है कि कैसे कार्बनिक रसायन ने भारत में जेनेरिक दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया था और कैसे सिप्ला के डॉ. युसुफ हमीद ने बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चुनौती देते हुए एड्स-रोधी दवा बनाना और बेचना शुरू किया था। उन्होंने अफ्रीका के ज़रूरतमंद मरीज़ों को यह दवाई मात्र 1 डॉलर प्रति मरीज़ प्रतिदिन की कीमत पर मुहैया करवाई। यह सचमुच एक गांधीवादी चुनौती थी। थोड़ी कम नाटकीय चुनौती शांता बायोटेक्निक्स ने दी थी जिसने हिपेटाइटिस का टीका 50 रुपए प्रति खुराक से भी कम कीमत पर उपलब्ध कराया था।
तिवारी ने भारत की ·ोत क्रांति का भी विवरण दिया है। वे बताती हैं कि कैसे वर्गीस कुरियन ने सामुदायिक साझेदारी और स्वामित्व का विचार दिया और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बनाने में मदद की। अदिता जोशी ने भी बताया है कि सांबा महसूरी चावल (जिसे डॉ. रमेश सोन्ती ने विकसित किया है) के संदर्भ में प्रयोगशाला से धरातल तक की सफलता का काफी श्रेय सामुदायिक भागीदारी को जाता है। तटीय भारतीय मछुआरों द्वारा झींगा उत्पादन में कविता तिवारी के आलेख में भी यही बात उभरती है।
निसी नेविल ने एक असाधारण सफलता की कहानी बयां की है हालांकि यह उतनी जानी-मानी नहीं है। यह कहानी दो उभरते इंजीनियर्स अरविंद पटेल और धीरजलाल कोटडि़या की है। इन्होंने कंप्यूटर विशेषज्ञ राहुल गायवाला के साथ मिलकर हीरों को तराशने के लिए लेसर के उपयोग का आविष्कार किया और सूरत को विश्व की हीरा प्रसंस्करण राजधानी बना दिया। गौरतलब है कि पटेल और कोटडि़या भारत के मशहूर ‘रिवर्स इंजीनियरिंग’ कार्य में भी शामिल थे - यानी किसी मशीन को खोल डालो, उसके पुर्ज़ों का भलीभांति अध्ययन करो और फिर स्वयं वह मशीन बनाने लगो।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे कई और उदाहरण होंगे जिन्होंने भारत को बदला और हम उम्मीद करते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी इन्हें भी सामने लाएगी। वर्तमान पुस्तक पीडीएफ स्वरूप में निम्नलिखित वेबसाइट पर निशुल्क उपलब्ध है: http://www.insaindia.res.in/scroll_news_pdf/ISTI.pdf
यदि इसे मुद्रित रूप में हासिल करना चाहें तो डॉ. सीमा मंडल से निम्नलिखित पते पर संपर्क कर सकते हैं:
इस तरह की पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये एक परिप्रेक्ष्य उपलब्ध कराती हैं कि विज्ञान के प्रति समर्पित देश क्या कुछ हासिल कर सकता है। हमें और अधिक विज्ञान की ज़रूरत है ताकि अपना देश आगे बढ़ सके। टेक्नॉलॉजी से देश के विकास में मदद मिलती है किंतु टेक्नॉलॉजी के विकास के लिए विज्ञान ज़रूरी है। इसी कारण से प्रोफेसर सी.एन.आर. राव ने भारत सरकार से आग्रह किया था कि आईआईटी की तजऱ् पर कई सारे भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (क्ष्क्ष्च्कङ) स्थापित करे। इनमें से कई तो विज्ञान के श्रेष्ठ केंद्रों के रूप में काम करने भी लगे हैं।
पूरे मामले में हममें से कई लोगों को एक शिकायत रही है। इन क्षेत्रों में अनुसंधान की सबसे बड़ी या शायद अकेली प्रायोजक केंद्र सरकार है। तो सवाल यह उठता है कि राज्य सरकारें इसमें योगदान क्यों नहीं देतीं? और निजी औद्योगिक घराने तथा प्रतिष्ठान वैज्ञानिक अनुसंधान पर एक रुपया भी खर्च क्यों नहीं करते? स्व. डॉ. के. अंजी रेड्डी एकमात्र सुखद अपवाद थे। वे कहते थे: “आप बढि़या विज्ञान करो, मैं आपको पैसा दूंगा।” आजकल के उद्योगपति यह बात कब समझेंगे? (स्रोत फीचर्स)