डॉ. सुशील जोशी
हाल ही में एक बड़ी खबर आई है कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिकी की बारहखड़ी में नए अक्षर जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। वैसे इसके प्रयास काफी बरसों से चल रहे थे किंतु पिछले महीने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि अंतत: आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में दो नए अक्षर जोड़े गए हैं और यह डीएनए न सिर्फ स्वयं की प्रतिलिपि बना सकता है बल्कि प्रोटीन का निर्माण करने में भी सक्षम है। यह खबर कृत्रिम या संश्लेषित जीवन से सम्बंधित जीव विज्ञान के क्षेत्र में तहलका मचा रही है। आइए इस खबर के अर्थ को समझने की कोशिश करें।
सारे सजीवों के गुणों को निर्धारित करने वाला पदार्थ मूलत: एक ही होता है जिसे डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (संक्षेप में डीएनए) कहते हैं। डीएनए की रचना का खुलासा 1950 के दशक में हुआ था। पता चला था कि यह अणु एक बहुलक यानी पॉलीमर है - न्यूक्लियोटाइड नामक इकाइयों से बना होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड इकाई स्वयं तीन उप-इकाइयों से मिलकर बनती है - एक नाइट्रोजनी क्षार, एक राइबोस शर्करा और एक फॉस्फेट समूह। हर इकाई में राइबोस शर्करा और फॉस्फेट समूह तो एक समान होते हैं किंतु क्षार अलग-अलग होते हैं। डीएनए में कुल मिलाकर चार क्षारों का उपयोग होता है - एडीनोसीन (A), थायमीन (T), सायटोसीन (S) और गुआनीन (G)। डीएनए अणु में न्यूक्लियोटाइड्स की ऐसी दो लड़ियां होती हैं जो एक-दूसरे पर लिपटी होती हैं।
डीएनए अणु का कामकाज इन चार क्षारों पर ही निर्भर है। इन क्षारों की दो विशेषताएं हैं। पहली विशेषता यह है कि ये दो जोड़ियां बनाते हैं - A-T तथा C-क्र। यदि एक लड़ी में किसी स्थान पर A है, तो दूसरी लड़ी में उसके सामने T ही होगा तथा एक लड़ी पर C हो, तो दूसरी लड़ी पर क्र होगा। इस तरह A-T, तथा C-क्र आमने-सामने उपस्थित होते हैं और आपस में एक दुर्बल बंधन द्वारा जुड़े रहते हैं। यदि एक लड़ी उपलब्ध हो, तो A-T, C-G के नियमानुसार दूसरी लड़ी बन सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण का आधार है। कोशिका विभाजन के समय एक लड़ी से दूसरी लड़ी बनाई जाती है जो उसकी संपूरक होती है। अब इस दूसरी लड़ी पर जो लड़ी बनती है वह पहले वाली जैसी होती है। इस मायने में डीएनए की प्रत्येक लड़ी (क्षारों के विशिष्ट गुणधर्म के चलते) एक सांचे की तरह काम करती है। इसी विशेषता की वजह से डीएनए अपनी प्रतिलिपियां बना सकता है।
A, T, C व G क्षारों की एक और विशेषता को देखते हैं। तीन क्षारों का एक विशेष Gम एक कोड होता है। यह कोड एक अमीनो अम्ल को बांध सकता है। चार क्षारों के तीन-तीन के क्रम बनाए जाएं, तो कुल 64 क्रम बन सकते हैं, जैसे ATC, AGC, ACC वगैरह। ऐसा प्रत्येक क्रम एक अमीनो अम्ल का कोड होता है। यानी डीएनए पर क्षारों के क्रम से तय हो जाता है कि उस पर कौन-कौन-से अमीनो अम्ल किस क्रम में जम जाएंगे। जब ये अमीनो अम्ल जम जाते हैं तो इन्हें उसी क्रम में आपस में जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार से प्रोटीन बन जाता है। प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्लों का बहुलक होता है। विशिष्ट क्रम में जमे अमीनो अम्लों की द्याृंखला प्रोटीन होती है और इस क्रम से ही तय होता है कि वह कौन-सा प्रोटीन है। क्षारों की ऐसी तिकड़ियों के कई क्रम डीएनए पर उपस्थित होते हैं - डीएनए का ऐसा प्रत्येक खंड जो एक प्रोटीन बनाने का कोड है, उसे एक जीन कहते हैं।
तो डीएनए दो काम कर सकता है - स्वयं की प्रतिलिपि बनाना और प्रोटीन के संश्लेषण के निर्देश देना। और ये दोनों काम उपरोक्त चार क्षारों के क्रम से संचालित होते हैं। इसलिए डीएनए को जेनेटिक कोड कहते हैं। इसमें कई अगर-मगर हैं किंतु मूलत: प्रक्रिया यही है। इसीलिए इन चार क्षारों को आनुवंशिकी की बारहखड़ी कहा जाता है, और इस बारहखड़ी से 64 शब्द (तीन-तीन क्षारों की अलग-अलग तिकड़ियां) बन सकते हैं। गौरतलब है सारे जीवधारी प्रोटीन बनाने के लिए कुल मिलाकर 20 अमीनो अम्लों का उपयोग करते हैं। आपके पास 64 कोड हैं। यानी कई सारे कोड का उपयोग अन्य कार्यों के लिए भी हो सकता है या एक ही अमीनो अम्ल के लिए एक से अधिक कोड भी हो सकते हैं।
डीएनए की संरचना की इतनी मोटी-मोटी बात करने के बात नवीनतम अनुसंधान के परिणामों की सनसनी को महसूस किया जा सकता है।
पृथ्वी का समूचा जीवन उपरोक्त जेनेटिक कोड के भरोसे चलता है। जैव विकास भी जेनेटिक कोड के ज़रिए ही होता है। जब अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने के लिए डीएनए की प्रतिलिपियां बनती हैं तो इस प्रक्रिया में गलतियां होती हैं। इन गलतियों को उत्परिवर्तन कहते हैं। कई बार गलतियां ऐसी होती हैं कि वह जेनेटिक कोड कोई प्रोटीन बनाने में अक्षम हो जाता है या कोई नया प्रोटीन बनाने लगता है या किसी प्रोटीन का बदला हुआ रूप बनाने लगता है। ऐसे परिवर्तनों की वजह से विविधता उत्पन्न होती है जो जैव विकास का कच्चा माल है, जिसमें से चयन होने की गुंजाइश बनती है।
बहरहाल, यह कोड, जैसा कि हमने देखा, चार क्षारों या चार अक्षरों पर निर्भर है। वैज्ञानिक बरसों से सोचते रहे हैं कि चार अक्षर ही क्यों? और यदि चार ही अक्षरों पर पूरी भाषा टिकी है तो यही चार अक्षर क्यों? इस सोच के साथ कई बरसों से वैज्ञानिक यह भी कोशिश करते रहे हैं कि क्या यह संभव है कि हम कृत्रिम रूप से इस जेनेटिक कोड में नए अक्षर जोड़ दें? और यदि जोड़ेंगे तो जेनेटिक कोड काम करेगा या नहीं? अर्थात क्या वह स्वयं अपनी प्रतिलिपि बना सकेगा और क्या वह प्रोटीन बनाने की क्रिया का संचालन करने में कारगर हो सकेगा? क्या नए अक्षर जोड़कर इस कोड को नए काम करने के लिए तैयार किया जा सकता है? और कृत्रिम रूप से जोड़ने के लिए कौन-से अक्षर उपयुक्त होंगे अर्थात कौन-से क्षार इस जेनेटिक कोड में जोड़े जाने के बावजूद इस कोड की रचना बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं होगी?
इस यात्रा का एक अहम पड़ाव आ गया है। नेचर में प्रकाशित एक शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने डीएनए की संरचना में दो नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। यानी इस प्रकार निर्मित डीएनए में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले चार क्षार तो हैं ही, उनके अलावा दो क्षार और हैं। इन्हें अभी एक्स और वाय कहा गया है। दरअसल इन वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया एशरीशिया कोली (ई. कोली) के डीएनए में एक वायरस की मदद से ये नए क्षार जोड़े हैं। यह परिवर्तित डीएनए स्वयं अपनी प्रतिलिपि बना सकता है। इस परिवर्तित डीएनए की खास बात यह है कि यदि कोशिका को एक्स और वाय की खुराक मिलती रहे तो प्रतिलिपि में भी सही जगह पर एक्स और वाय क्षार जुड़ जाते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस डीएनए की मदद से कोशिका प्रोटीन भी बना लेती है। इन प्रोटीन्स में भी ऐसे अमीनो अम्ल जुड़े होते हैं जो कुदरती प्रोटीन्स में नहीं पाए जाते।
मगर इस पड़ाव तक पहुंचने से पहले जीव वैज्ञानिकों के अलावा रसायन शास्त्रियों ने भी खूब पापड़ बेले हैं - वैचारिक भी और प्रायोगिक भी।
सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी था कि डीएनए में जो दो-दो क्षार आपस में जोड़ी बनाते हैं (यानी A-T और C-G) उनके कौन से गुणधर्म यह संभव बनाते हैं। डीएनए एक सरल रेखा में पड़ा अणु नहीं होता। इसकी दो लड़ियां इन क्षारों के माध्यम से कुछ इस तरह आपस में जुड़ती हैं कि एक कुंडलाकार रचना बन जाती है। यानी प्रत्येक जोड़ी के दो क्षारों के बीच की दूरी कुछ इस तरह निर्धारित होती है कि यह अणु कुंडलित होता है। यदि आप नए क्षारों को इसमें प्रविष्ट कराना चाहते हैं तो दो ऐसे क्षार ढूंढने होंगे जो इसी तरह आपस में जोड़ी बना लें और डीएनए की कुंडलाकार संरचना न बिगड़े।
यह काम सबसे पहले सैद्धांतिक स्तर पर किया गया था। करीब 30 वर्ष पहले फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के कार्बनिक रसायन शास्त्री स्टीवन बेनर की टीम ने डीएनए (और उसके सम्बंधी अणु) आरएनए में नए अक्षर जोड़ने का एक खाका तैयार किया था। यहां बता देना मुनासिब है कि डीएनए के क्षार क्रम के अनुसार जब प्रोटीन बनाने की बारी आती है, तो डीएनए के सम्बंधित खंड की एक प्रति बनाई जाती है जिसे आरएनए कहते हैं। आरएनए ही प्रोटीन बनवाने का काम करता है। इसके बाद उन्होंने कोशिश शुरू की कि सैद्धांतिक स्तर पर जो क्षार संभावना दर्शाते हैं उन्हें लेकर न्यूक्लियोटाइड बनाए जाएं। आपको याद होगा कि न्यूक्लियोटाइड डीएनए की इकाई है जो एक राइबोस शर्करा, एक नाइट्रोजनी क्षार और एक फॉस्फेट समूह से मिलकर बनती है। मगर जब उन्होंने वास्तव में अपने सोचे गए न्यूक्लियोटाइड प्रयोगशाला में बनाने की कोशिश की तो असफलता ही हाथ लगी। मगर इन्हें बनाने के कई प्रयासों के चलते उन्होंने पूरी प्रक्रिया, क्षारों के अनिवार्य गुणधर्मों वगैरह के बारे में काफी कुछ सीखा।
यह सब सीखकर 2014 में बेनर की टीम ने अंतत: एक ऐसा कृत्रिम डीएनए बनाने में सफलता हासिल करने की घोषणा जर्नल ऑफ दी अमेरिकन केमिकल सोसायटी में की। टीम ने बताया कि दो कृत्रिम न्यूक्लियोटाइड्स P तथा Z सहजता से डीएनए की संरचना में प्रवेश कर गए और डीएनए की कुंडलाकार संरचना नहीं बिगड़ी। लेकिन बेनर की टीम न तो यह बता पाई कि क्या ‘उनका’ डीएनए स्वयं की प्रतिलिपि बना सकता है और क्या वह प्रोटीन बनाने का काम कर सकता है। हां, उन्होंने इतना ज़रूर स्पष्ट किया है कि उनके द्वारा निर्मित संश्लेषित डीएनए के खंड कुछ मामलों में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। जैसे ये खंड कैंसर कोशिकाओं से जुड़ने में ज़्यादा कारगर हैं।
बेनर की टीम द्वारा प्रकाशित शोध पत्र से पूर्व एक और शोध पत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें और बेहतर परिणाम दर्शाए गए थे। सिंगापुर के इंस्टिट्यूट ऑफ बायोइंजीनियरिंग के डॉ. इचिरो हिराओ और डॉ. मिचिको किमोतो ने 2009 में डीएनए के कुछ खंड बनाए थे जिनमें कृत्रिम न्यूक्लियोटाइड शामिल किए गए थे। ये दो न्यूक्लियोटाइड इस तरह के थे कि वे आपस में उसी तरह की जोड़ियां बना लेते हैं जैसी A-T और C-G बनाते हैं। इन नए न्यूक्लियोटाइड अक्षरों को उन्होंने Dx और Px नाम दिए थे। इन खंडों की मदद से ज़ीका और डेंगू जैसे वायरसों के संक्रमण की पहचान की जा सकती है। सिंगापुर और जर्मनी के उन्हीं शोधकर्ताओं ने हाल ही में आंगेवांटे केमी इंटरनेशनल एडिशन में प्रकाशित एक शोध पत्र में डीएनए में जोड़े गए दो नए क्षारों की रासायनिक संरचना का खुलासा किया है।
लगभग इसी समय स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट के फ्लॉयड रोमेसबर्ग के नेतृत्व में जीव वैज्ञानिकों के एक दल ने भी डीएनए में दो नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की थी। नेचर में प्रकाशित अपने शोध पत्र में रोमेसबर्ग और उनके साथियों ने काफी विस्तार से इस प्रक्रिया की बारीकियों का विवरण दिया था। रोमेसबर्ग की टीम ने उसी बैक्टीरिया ई. कोली के डीएनए में नए क्षार जोड़ने के लिए एक फफूंद की मदद ली थी। सबसे पहले तो उन्हें भी ऐसे क्षार बनाने पड़े जो सही ढंग से जोड़ी बना लें और कुंडलाकार संरचना को क्षति न पहुंचाएं। समस्या यह थी कि ये क्षार डीएनए में पहले से उपस्थित क्षारों (A, T, C और G) के समान होने चाहिए ताकि वे फिट हो सकें और डीएनए उन्हें अस्वीकार न करे। किंतु ये इतने समान भी नहीं होने चाहिए कि मूल कुदरती क्षारों के साथ जोड़ी बना पाएं क्योंकि यदि वैसा हुआ तो ये कोई नया कार्य संपादित नहीं करने में कारगर नहीं रहेंगे।
इस खोज में उन्हें पूरे चौदह साल लगे थे और इस दौरान उन्होंने 300 न्यूक्लियोटाइड बनाकर आज़माए थे। जब सही न्यूक्लियोटाइड जोड़ी मिल गई तो अगला काम था कि इन्हें किसी वास्तविक कोशिका के डीएनए में पहुंचाया जाए। यहां उन्हें एक फफूंद की मदद मिली। उन्होंने देखा था कि एक फफूंद में डीएनए का एक खंड होता है जो कहीं भी न्यूक्लियोटाइड मिलने पर उन्हें जमा करके रखता है और जब डीएनए की प्रतिलिपि बनानी होती है तो उनका उपयोग कर लेता है। रोमेसबर्ग की टीम ने फफूंद का यह डीएनए खंड लिया और उसे ई. कोली बैक्टीरिया के वलयाकार डीएनए में जोड़ दिया।
फफूंद का डीएनए खंड जुड़ते ही वह बैक्टीरिया नए क्षारों की प्रतिलिपि बनाता रहता है, बशर्ते कि कोशिका को उन नए क्षारों की खुराक निरंतर मिलती रहे। जैसे ही यह खुराक मिलनी बंद होती थी, वह बैक्टीरिया वापिस अपने मूल रूप में आ जाता था। इसका मतलब है कि प्रकृति में वह बैक्टीरिया नाकाम रहेगा क्योंकि उसे नए क्षारों की खुराक तो मिलेगी नहीं। अलबत्ता, इस शोध कार्य के बाद भी जो नए न्यूक्लियोटाइड वाला डीएनए बना था वह प्रोटीन बनाने का काम नहीं कर पाता था।
जीवन के संश्लेषण के इन प्रयासों की पृष्ठभूमि में अब खबर आई है कि वैज्ञानिक डीएनए में नए क्षार इस तरह जोड़ने में सफल रहे हैं कि वह प्रोटीन बनाने का काम करता है और नए न्यूक्लियोटाइड के अनुरूप सर्वथा नवीन अमीनो अम्लों को प्रोटीन में शामिल कर लेता है। यानी यह कृत्रिम डीएनए मात्र 20 कुदरती अमीनो अम्लों तक सीमित नहीं है।
इस बार भी सफलता रोमेसबर्ग की टीम को ही मिली है। टीम ने नेचर में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने दो अप्राकृतिक न्यूक्लियोटाइड्स को ई. कोली के डीएनए में जोड़ दिया है। बैक्टीरिया कोशिका इस नवीन डीएनए के सांचे से आरएनए बनाने में सफल रही और यह आरएनए प्रोटीन बनाने में सफल रहा। उन्होंने इन क्षारों को डीएनए के जिस हिस्से में जोड़ा वह एक हरा स्फुरदीप्त (ग्रीन फ्लोरेसेंट) प्रोटीन बनाता है। नए न्यूक्लियोटाइड जोड़ने के बाद वह इस प्रोटीन का भिन्न संस्करण बनाने लगा जिसमें नए किस्म के अमीनो अम्ल उपस्थित थे।
इसे कृत्रिम जीवन के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। किंतु इस शोध कार्य से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि उनका मसकद यह नहीं है। एक तो वे देखना चाहते हैं कि नए अक्षर जुड़ने पर डीएनए क्या-क्या कर सकता है। वह जिन नए अमीलो अम्लों को जोड़कर नवीन प्रोटीन्स बनाएगा, उनकी द्वितीयक रचना कैसी होगी। प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्लों के एक विशिष्ट क्रम वाली शृंखला होते हैं। मगर यह तो उनकी रासायनिक संरचना मात्र है। प्रोटीन बनने के साथ ही उनका अणु खास ढंग से तह हो जाता है और प्रोटीन के कई कार्य उसकी इस तहदार जमावट के परिणाम होते हैं। यदि यह तहदार जमावट (जिसे प्रोटीन की द्वितीयक रचना कहते हैं) बिगड़ जाए तो रासायनिक रूप से (यानी अमीनो अम्लों का क्रम) समान होते हुए भी वह प्रोटीन उपयुक्त कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। वैज्ञानिक सोच रहे हैं कि क्या नए अमीनो अम्ल जोड़ने पर नए किस्म की तहदार जमावट बनेगी जो सर्वथा नए कार्य कर पाएगी।
कृत्रिम डीएनए बनाने के पीछे एक मंशा और भी है। इसकी मदद से हम ऐसे प्रोटीन बना सकेंगे जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। इनका औषधीय महत्व आजकल काफी सराहा जा रहा है। रोग निदान में भी इस तरह के डीएनए की भूमिका पर विचार चल रहा है।
बहरहाल, इस शोध के परिणाम चिंता को जन्म तो देते ही हैं। क्या हम मनमाने जीव बनाने में सक्षम हो जाएंगे? यदि ऐसा हुआ तो नज़ारा क्या होगा? वैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा कोई भी जीव प्रकृति में असफल रहेगा क्योंकि वहां उसे वे नाइट्रोजनी क्षार तो मिलेंगे ही नहीं जिन पर उसका अस्तित्व टिका है। (स्रोत फीचर्स)