डॉ. नटराजन पंचापकेसन

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब होता है प्राकृतिक विज्ञान के अलावा अन्य क्षेत्रों जैसे सामाजिक और नैतिक मामलों में वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हासिल करना मानव व्यवहार में परिवर्तन लाता है और इसलिए यह प्राकृतिक विज्ञान का हिस्सा नहीं है। यह प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करने से नहीं बल्कि वैज्ञानिक तरीकों को मानव व्यवहार में अमल करने से मज़बूत होता है। सभी छात्रों (वैज्ञानिकों सहित) में वैज्ञानिक दृष्टिकोण मज़बूत करने के लिए उनके पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान और मानविकी को शामिल करने की आवश्यकता है।

मैं अक्सर सोचता हूं कि भारत में वैज्ञानिक सामान्य मुद्दों पर बात करने या लिखने, खासकर मीडिया या अखबारों में लिखने-बोलने को लेकर क्यों अनिच्छुक रहते हैं। इसलिए 9 अगस्त 2017 को आयोजित ‘विज्ञान के लिए मार्च’ पर विभिन्न विद्वानों के बीच चली बहस में की गई आलोचनात्मक टिप्पणियों को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैं सोच रहा था कि क्या मुझे इस बहस में हस्तक्षेप करना चाहिए किंतु मैं लिखने के प्रति अनिच्छुक था।

बहस में विज्ञान के प्रति संदेह व्यक्त किया गया। फिर संदेह और पूर्वाग्रह की विस्तृत आलोचना की गई। दावा किया गया कि समाज शास्त्र भी एक विज्ञान है और कुछ समाज शास्त्री भी वैज्ञानिकों के साथ मार्च में शामिल थे। यह भी कहा गया कि सामाजिक वैज्ञानिकों को वैज्ञानिक पद्धति का पालन करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फिर भी वे वैज्ञानिक होने का दावा कर सकते हैं। इस बहस में आखिरी दावे को छोड़कर सभी को ध्वस्त कर दिया गया था। मैं सोच रहा था कि क्या अभी भी इसके बारे में टिप्पणी करने के लिए कुछ बचा था? मुझे समझ में आने लगा कि वैज्ञानिक क्यों नहीं लिखते हैं। कलम हाथ में लेने से पूर्व ही विपक्षियों ने एक-दूसरे को ध्वस्त कर दिया था।
आखिरकार मैंने सोचा कि मैं भी लिखूंगा, शायद अधिक समावेशी तरीके से, क्योंकि मेरे विचार में वैज्ञानिक दृष्टिकोण युवा मन की शिक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक मनोवैज्ञानिक रवैया है जो रोज़मर्रा का विज्ञान करते रहने से प्रभावित नहीं होता बल्कि इसके लिए अपने मूल्यों और नैतिकता के ढांचे में बदलाव की ज़रूरत होती है।

उपरोक्त बहस में सभी लेखकों की वैज्ञानिकों के खिलाफ मुख्य शिकायत यह थी कि उनका (वैज्ञानिकों का) यह दावा सही नहीं है कि “विज्ञान का अध्ययन अंधविश्वास को कम करता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है”; “आपको सिर्फ वैज्ञानिकों के निजी जीवन और संस्थानों को देखना है जिनमें; अंधवि·ाास, जातिवाद, लिंगवाद और अन्य अवांछनीय गुण काफी मात्रा में पाए जाते हैं।”  
मुझे लगता है कि यह सच है। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक मनोवैज्ञानिक रवैया है जो रोज़मर्रा का विज्ञान करते रहने से प्रभावित नहीं होता बल्कि इसके लिए अपने मूल्यों और नैतिकता के ढांचे में बदलाव की ज़रूरत होती है। भारत में यह अभी भी काफी हद तक परिवार और समाज द्वारा तय किया जाता है। यह कई व्यक्तियों, वैज्ञानिक और गैर-वैज्ञानिक दोनों, का अवलोकन है।

अधिकांश का मानना है कि मूल्य और विवेक (समझदारी) प्राकृतिक विज्ञान से अलग हैं। हमारे व्यवहार और रवैये को काफी हद तक हमारा नैतिक मूल्यों का ढांचा तय करता है। फिर भी एक बात तो माननी होगी: पिछले 60 वर्षों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कारण जीवन और पर्यावरण में बड़े स्तर पर हुए बदलावों ने अंधविश्वासों की साख (के दबदबे) को कम कर दिया है। अब लोग गुरुवार को दक्षिण की तरफ यात्रा करने के बारे में उतनी चिंता नहीं करते जितना पहले किया करते थे। ग्रहण के बाद वस्त्रों सहित स्नान के बारे में मुझे नहीं पता है जिसकी अनुशंसा हाल ही में कुछ समाचार पत्रों द्वारा की गई थी।

चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए, एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से विज्ञान/गैर-विज्ञान के विभाजन - यानी एक व्यक्ति की विश्वदृष्टि - को देखना उपयोगी हो सकता है। विश्वदृष्टि स्मृति, ज्ञान, व्यवहार, मूल्य, नज़रिए आदि का संग्रह है; और यही वह चीज़ है जो किसी व्यक्ति के विचारों और क्रियाओं को दिशा देती है। हम खुद को विश्वके केंद्र में रखकर शुरू कर सकते हैं। जब हम बाहर की ओर बढ़ते हैं, दुनिया में अवास्तविक सपने और कल्पनाएं है, स्वाद और पसंद हैं, जिनमें से कई को व्यक्त भी नहीं किया जा सकता।
फिर हम कला, मानविकी, सामाजिक विज्ञान और उसके बाद भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान जैसे प्राकृतिक विज्ञान पर आते हैं, जो सबसे बाहरी वृत्त है। वर्तमान चर्चा के लिए हम सामाजिक विज्ञान तक की विश्वदृष्टि को अंदरुनी विश्वऔर प्राकृतिक विज्ञान और उसके आगे की दृष्टि को बाहरी विश्वकह सकते हैं।

बाहरी दुनिया वस्तुनिष्ठ या अवैयक्तिक दुनिया है, जो हम सबके लिए एक समान है, जो मेरे जन्म से पहले अस्तित्व में थी, अभी भी है और मेरी मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रहेगी। हालांकि इसमें मेरे लिए कोई यथार्थ नहीं है कि मेरी मृत्यु के बाद क्या होगा लेकिन अब मैं एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकता हूं जो संभवत: मेरी अनुपस्थिति में मौजूद रहेगी। यही भौतिक शास्त्र और अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की दुनिया है। बाहरी दुनिया के अवैयक्तिक विवरण में भावनाएं या जज़्बात प्रवेश नहीं करते। इसमें तर्क और वैज्ञानिक पद्धति (परिणाम को दोहराने की संभावना और खंडन-योग्यता) आवश्यक हैं। इस दुनिया का एक सार्वभौमिक समय और इतिहास है। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी अनुभूतियों (इंद्रियों) के माध्यम से सुगम है।

विज्ञान बाहरी दुनिया से सम्बंधित है और यह हमारे ज्ञान के साथ-साथ इसके कानून व विकास का भी निर्धारण करता है। यहां ‘विज्ञान’ शब्द प्राकृतिक विज्ञान का द्योतक है; सामाजिक विज्ञान तो आंतरिक दुनिया से सम्बंधित है। 

मानव व्यवहार और सामाजिक विज्ञान
प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान के बीच अंतर महत्वपूर्ण है। जैसा कि बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के दार्शनिक जॉन आर. सर्ल ने कहा है, “तथाकथित ‘प्राकृतिक’ विज्ञान और ‘सामाजिक’ विज्ञान के बीच यह अंतर, चाहे कितना भी अस्पष्ट क्यों न हो,  एक मूलभूत अंतर है, जो मूलतत्वज्ञान (चीज़ों के सार) पर आधारित है; यह दुनिया के उन गुणधर्मों के बीच है जो एक ओर मानव दृष्टिकोण से स्वतंत्र मौजूद हैं, जैसे बल, द्रव्यमान, गुरुत्वाकर्षण एवं प्रकाश संश्लेषण तथा दूसरी ओर, वे चीज़ें जिनका अस्तित्व मानवीय दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, जैसे धन, संपत्ति, विवाह और सरकार।” सरल शब्दों में कहें तो यह अंतर दुनिया के उन गुणधर्मों के बीच है जो प्रेक्षक से स्वतंत्र हैं और जो प्रेक्षक पर निर्भर हैं। भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान जैसे प्राकृतिक विज्ञान, प्रकृति के ऐसे गुणधर्मों की बात करते हैं, जिनका अस्तित्व इस बात से स्वतंत्र हैं कि हम क्या सोचते हैं; दूसरी ओर, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञान दुनिया के उन गुणधर्मों की बात करते हैं जो कि वैसे हैं, क्योंकि हम सोचते हैं कि वे वैसे हैं। सर्ल जिस प्रेक्षक-निर्भरता के बारे में बात करते हैं वह प्राकृतिक विज्ञान, विशेष रूप से क्वांटम यांत्रिकी, में देखी जाने वाली प्रेक्षक-निर्भरता से अलग है। सर्ल यहां संस्कृति, समाज और राज्य द्वारा व्यक्त अवधारणाओं और विचारों पर निर्भरता की बात कर रहे हैं।

अवलोकन की अनिश्चितताएं
व्यक्तिपरक भागीदारी की प्रकृति के आधार पर, सामाजिक विज्ञान में आगे और वर्गीकरण हो सकता है, जिसे अवलोकन में अनिश्चितताओं के अनुसार मापा जाता है। अनिश्चितताएं बहुत ज़्यादा हों तो स्व-अवलोकन अर्थहीन हो जाते हैं। तब हमें निष्कर्ष निकालने के लिए बड़ी संख्या में अवलोकन और सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करना होगा। नमूना जितना छोटा होगा अनिश्चितताएं उतनी ही अधिक होंगी, जैसा कि हम अर्थशास्त्र की भविष्यवाणियों में देख सकते हैं।
उपरोक्त प्रक्रियाओं में से कई की बारीकियां, जैसे बाहरी दुनिया का निर्माण अपने आप में अध्ययन के विषय हैं, विशेषकर दर्शन शास्त्र में। इन विषयों में कई अलग-अलग सिद्धांत एक साथ रह सकते हैं (शांतिपूर्वक या अन्य ढंग से)। मैं चुपचाप ऐसे बयान स्वीकार कर लेता हूं जैसे ‘प्राकृतिक विज्ञान में कुछ भी प्राकृतिक नहीं है’। हम यथार्थ पर किस तरह सहमत होंगे, इसे लेकर दर्शनशास्त्र में कोई आम सहमति नहीं है। हालांकि (उम्मीद है कि) हममें से अधिकतर ने यथार्थ तय करने का अपना-अपना तरीका विकसित कर लिया है।

दो दुनिया के कामकाज में अंतर
आंतरिक दुनिया में मानविकी, कला, सामाजिक विज्ञान और वे सभी क्षेत्र शामिल हैं जो प्राकृतिक विज्ञान के बाहर हैं। हालांकि यह आंतरिक दुनिया विज्ञान का हिस्सा नहीं है, किंतु वैज्ञानिक विधि, यानी तर्क और विचार, यहां भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि दोहराने की संभावना और खंडन-योग्यता यहां मौजूद नहीं है; क्योंकि नियंत्रित प्रयोग आम तौर पर संभव नहीं हैं और जहां संभव हैं वहां बड़ी त्रुटियां या फैलाव है। कभी-कभी इन क्षेत्रों का वर्णन करने के लिए  ‘सॉफ्ट साइंस’ शब्द उपयोग किया जाता है। उनके अध्ययन के लिए सांख्यिकीय प्रणाली अनिवार्य है। इन विषयों में वस्तुनिष्ठता हासिल करना आसान नहीं है। इनमें तटस्थता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, हालांकि पूर्ण तटस्थता भी संभव नहीं है। मूल्य और नैतिकता मानवीय गुण हैं। वे आंतरिक दुनिया के अंग हैं। यही कारण है कि हम कहते हैं कि (प्राकृतिक) विज्ञान और प्रौद्योगिकी से विवेक की प्राप्ति नहीं होती। विज्ञान मूल्य-तटस्थ हैं। यदि कोई उस मूल्य प्रणाली को बदलना चाहता है जिसमें वह पैदा हुआ है, तो वह मूल्यों की एक नई प्रणाली का निर्णय कैसे करेगा?

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है, “वे प्रतिबद्धताएं जो हमारे आचरण और निर्णय के लिए निर्धारक और आवश्यक हैं, इस ठोस वैज्ञानिक तरीके से पूरी तरह से प्राप्त नहीं हो सकतीं। ‘क्या है’ का ज्ञान सीधे-सीधे यह नहीं बताता कि ‘क्या होना चाहिए’ जो हमारी मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य है। मूलभूत साध्य और मूल्यांकन... प्रदर्शनों के माध्यम से नहीं बल्कि सशक्त व्यक्तित्वों के माध्यम से इल्हाम के रूप में आते हैं। किंतु उन्हें सही ठहराने का प्रयास नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके स्वरूप को सरल और स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास करना चाहिए।” हर व्यक्ति निजी निर्णय करता है, जानबूझकर या अनजाने में।
जैसे ही हम अंदरुनी दुनिया में और अधिक अंदर केंद्र की ओर जाते हैं, दिमाग के बजाय दिल निर्णायक हो जाता है। कोई भी फैसला लेने में प्यार, करुणा, दया, उत्साह और उल्लास एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। बाहरी दुनिया में, सृजन के उल्लास के बाद सत्यापन करना ज़रूरी होता है। ‘सॉफ्ट साइंस’ के पास ऐसा कोई आसान तरीका नहीं है। ‘अनुभवजन्य वैधता’ एक मुश्किल समस्या है। प्रायोगिक या गणितीय सबूत की अनुपस्थिति में, व्यक्तिगत संतुष्टि ही वैधता हो जाती है।

एक उदाहरण ‘संगीत के रसास्वादन’ का है। यहां व्यक्तिगत संतुष्टि एक महत्वपूर्ण कारक है, हालांकि अन्य विशेषज्ञों की राय भी भूमिका निभा सकती हैं। व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ उत्साह या खुशी मिलती है और अच्छे संगीत की हमारी पसंद का फैसला करती है। सर्वोच्च उल्लास स्वयं के एक सार्वभौमिक सत्ता के साथ एक्य की भावना है। यह निश्चित रूप से प्रमाणवाद और भौतिकवाद से पारभौतिकी या मानवतावाद की ओर कदम है।

इन क्षेत्रों में, अनिश्चितता के साथ रहना पड़ता है और नतीजों की वैधता उसी हद तक प्रमाणित कर सकते हैं जितना ‘सॉफ्ट साइंस’ अनुमति देता है। किंतु वास्तविक दुनिया में विशेषज्ञ अधिकारी की स्वीकृति, मात्र वैधता पर आधारित नहीं होती। यह विचार के प्रवर्तक के व्यक्तित्व, सामाजिक महत्व और उसकी ताकत का मिश्रण है। इसलिए तर्क, वास्तविकता से सम्बंध और यथासंभव वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल ही हमें बता सकता है कि ‘सम्राट नंगा है’ अर्थात मिथ्या जनमत से अंधे न होते हुए वास्तविकता को देखना। यह भारत में विशेष रूप से सच है, जहां सभी प्रकार के मानव रूपी देवता बड़ी तादाद में मौजूद हैं।

इस चर्चा का शिक्षा के लिए एक विशेष महत्व है, जिसे व्यक्तिगत नैतिक निर्णयों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में किसी समस्या को समझना, विभिन्न विकल्पों पर विचार करना और फिर निर्णय लेना शामिल है। दुनिया भर में प्राकृतिक विज्ञान में विज्ञान शिक्षण, काफी हद तक कौशल (गणितीय और प्रायोगिक) और स्वीकृत विचारों का प्रसारण है। यह चुनने के लिए विकल्पों का प्रस्तुतीकरण ठीक से नहीं करती और न ही चर्चा के लिए उपयुक्त है। दरअसल, उपयुक्त विकल्प चुनने तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने का काम तो सामाजिक विज्ञान करता है। वर्तमान में विज्ञान के छात्रों के पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान की कमज़ोर हो रही भूमिका उन्हें नैतिक मुद्दों को संभालने तथा अखबारों और मीडिया में उनके बारे में निर्णय लेने या लिखने के लिए अच्छी तरह से तैयार नहीं कर रही है। लिहाज़ा, सार्थक शिक्षा के लिए प्रत्येक छात्र के पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को शामिल करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)