एस. अनंनतनारायण
सन 2015 में विश्वके सबसे बड़े व्यापार मेले - हैनोवर मेसे - में मेक इन इंडिया शो में स्टेज पर तकनीक की मदद से एक शेर को घुमाना काफी शानदार प्रदर्शन था। इस शेर को जिस तकनीक का उपयोग करके दिखाया गया था उसे ऑगमेंटेड रिएलिटी कहते हैं। ऑगमेंटेड रिएलिटी और सम्बंधित तकनीकों ने टेलीकॉन्फ्रेंसिंग, मनोरंजन और विज्ञापन की दुनिया को बदलकर रख दिया है। इन तकनीकों में कम्प्यूटर की मदद से श्रव्य और दृश्य (ऑडियो और वीडियो) प्रभाव पैदा करके किसी दूरस्थ जगह का पर्यावरण पुनर्निर्मित किया जाता है। इसके साथ ही प्रतिभागियों की प्रतिक्रियाओं की तस्वीरें भी प्रसारित की जाती हैं ताकि वे एक-दूसरे को ऐसे प्रतिक्रिया दे सकें मानों वे आमने-सामने खड़े हों।
तकनीकों की मदद से पर्दे पर जो दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं वे वास्तविक त्रि-आयामी नहीं होते; सिवाय इसके कि विभिन्न कोणों से दृश्य आसानी से उपलब्ध होते हैं और दृश्यों की इमेज क्वालिटी बढ़िया होती है। पर्दे पर प्रस्तुत वस्तुओं को घुमा सकते हैं और दर्शक उन वस्तुओं को सभी तरफ से भी देख सकते हैं परंतु अलग-अलग कोण पर बैठे दर्शकों को एक जैसी ही इमेज दिखाई देती है। वास्तविक त्रि-आयामी इमेज, जिसमें हर दर्शक को बिना कोई विशेष चश्मा लगाए दोनों आंखों से अलग-अलग इमेज दिखाई देती है और मस्तिष्क उसमें दूरी/गहराई का अनुमान भी लगा सकता है, ऐसा सिर्फ होलोग्राम से संभव हो पाया है। यह लेसर प्रकाश की सहायता से काम करता है। होलोग्राफी से दृश्य बनाने में दिक्कत यह है कि होलोग्राम अचर होते हैं और इन्हें बनाने में समय लगता है। इसलिए उन महत्वपूर्ण जगहों पर इनका उपयोग नहीं किया जा सकता जहां वीडियो की ज़रूरत पड़ती है। जैसे चिकित्सा या सर्जरी के लिए इमेज ट्रांसमिट करना जहां चलते-फिरते चित्रों की ज़रूरत होती है।
एरिज़ोना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नासेर पेगम्बरियन और उनके साथियों ने नेचर पत्रिका में बताया है कि उन्होंने हर 2 सेकेंड में होलोग्राम बनाने का तरीका खोज लिया है। यह शायद वास्तविक त्रि-आयामी बनाने और उसमें चलते-फिरते चित्र शामिल करने की दिशा में पहला कदम था। पेनिसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के रितेश अग्रवाल और उनके साथियों ने अमेरिकन केमिकल सोसायटी की पत्रिका नैनो लेटर में एक ऐसे माध्यम के बारे में बताया है जिसे तानने-खींचने से वह तीन होलोग्राम इमेज में अदला-बदली कर सकता है। इसकी मदद से नए किस्म के डिस्प्ले बनाने में मदद मिलेगी या प्रसारण को और तेज़ किया जा सकता है।
एक और परिष्कृत तरीका जिसका पर्दे पर वास्तविक दृश्य बनाने में अभी उपयोग किया जा रहा है वह है आभासी यथार्थ (वर्चुअल रिएलिटी)। इसमें दर्शक को एक हेडसेट दिया जाता है। इसे पहनकर दर्शक दृश्य में गहराई वगैरह महसूस सकते हैं, दृश्यों में पूरी तरह से डूब सकते हैं। इस तकनीक में एक गॉगल पहनाया जाता है जो प्रत्येक आंख के लिए अलग-अलग दृश्य प्रदर्शित करता है। ये दृश्य कम्प्यूटरजनित या रीयल-लाइफ एनीमेशन हो सकते हैं। ये लगते तो वास्तविक दृश्यों की तरह हैं किंतु ये भी वास्तविक त्रि-आयामी नहीं होते क्योंकि इनमें दृश्य को घुमाकर अलग-अलग कोण से नहीं देखा जा सकता। वर्चुअल रिएलिटी व्यक्तिगत मनोरंजन की दृष्टि से तो उपयोगी पायी गई है किंतु व्यावहारिक उपयोग के लिए नहीं क्योंकि इसमें आप अन्य लोगों के साथ संवाद नहीं कर सकते और न ही उस प्रक्रिया में हिस्सा ले सकते हैं जिसे आप देख रहे हैं।
एक और तरीका है ऑगमेन्टेड रिएलिटी। इसमें भी वास्तविक त्रि-आयामी दृश्य नहीं बनते। इसमें कम्प्यूटर जनित या वास्तविक तस्वीरों को पारदर्शी परदे पर दिखाया जाता है। इसमें प्रकाश और ध्वनि प्रभावों और कम्प्यूटर द्वारा दृश्यों को बहुत जल्दी-जल्दी बदलकर इस तरह का माहौल बनाया जाता है कि दर्शकों को लगे कि वे सचमुच उस जगह पर हैं, और उन चीज़ों से घिरे हैं। हैनोवर मेसे मे शेर को भी इसी तकनीक की मदद से दर्शकों के बीच घुमाया गया था और इसके बाद इस शेर को मशीनी पुर्ज़ों से बने शेर में बदल दिया गया था। इसी तकनीक का उपयोग नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार-प्रसार के लिए किया था जिसमें वे एक ही समय एक साथ कई जगहों पर हाज़िर रहकर भाषण दे पाए थे।
इंजीनियरिंग के क्षेत्र में भी त्रि-आयामी दृश्यों का उपयोग होता है जिसे त्रि-आयामी सॉफ्टवेयर के ज़रिए बनाया जाता है। यह सॉफ्टवेयर इमारतों, पुलों, मीनारों आदि की इंजीनियरिंग ड्राइंग के रेखाचित्र लेता है और इनकी त्रि-आयामी इमेज बनाता है। इन त्रि-आयामी इमेज की मदद से जो दृश्य बनते हैं उनको किसी भी एंगल से देख सकते हैं। उन दृश्यों को किसी भी कोण पर घुमा सकते हैं, किसी हिस्से को बड़ा कर सकते हैं, छोटा कर सकते हैं। और इस सॉफ्टवेयर की मदद से तैयार त्रि-आयामी इमेज में मनचाहा बदलाव भी कर सकते हैं। ये बदलाव सभी सम्बंधित द्वि-आयामी इंजीनियरिंग रेखाचित्रों में भी हो जाते हैं जिनका उपयोग इंजीनियर्स कर सकते हैं।
सचमुच की त्रि-आयामी इमेज सिर्फ होलोग्राम की मदद से ही बनाई जा सकती है, जिसमें गहराई हो और जो एकदम वास्तविक लगेे और कोई भी व्यक्ति या चीज़ इसके चारों तरफ घूम सके और जिस एंगल से देखना चाहे देख सके। होलोग्राम वस्तु की उस इमेज को नहीं पकड़ता जो किसी सेंसर पर पहुंचती है बल्कि उस वस्तु से निकलने वाले प्रकाश तरंग के अग्रभाग (वेव-फ्रंट) को रिसीव करता है। यदि ऐसा वेव-फ्रंट फिर से बनाया जाए तोे कोई भी सेंसर (जैसे मनुष्य की आंखें) यह नहीं बता सकता कि जो इमेज वे देख रहे हैं वह वास्तविक नहीं है। वेव-फ्रंट को रिकार्ड करना मुश्किल काम है क्योंकि वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रकाश कोई एक प्रकाश तरंग नहीं बल्कि कई प्रकाश तरंगों से बना होता है और अलग-अलग तरंगें अपनी-अपनी गति के अलग-अलग चरण में होती हैं। इसलिए ग्रहण करने के लिए कोई एक वेव फ्रंट नहीं होता। इस समस्या को वस्तु को लेसर प्रकाश से प्रकाशित करके हल किया जा सकता है। हालांकि लेसर प्रकाश की तरंगें सिंक्रोनाइज़्ड रहती हैं किंतु इसके बावजूद वेव फ्रंट को सेंसर पर ग्रहण करने में एक दिक्कत होती है। इस समस्या को प्रकाश तरंगों के दो सेट लेकर हल किया जाता है - एक सेट सीधे लेसर स्रोत से आने वाली प्रकाश तरंगों का और दूसरा वस्तु से परावर्तित होकर आने वाली प्रकाश तरंगों का। इन दोनों को प्रकाश संवेदी परदे पर गिरा कर समस्या को हल किया जा सकता है।
इस तरह परदे पर आने वाली दो प्रकाश तरंगों के वेव फ्रंट मिलते हैं। परदे के हर बिंदु पर ये वेव फ्रंट या तो जुड़कर और भी मज़बूत हो जाते हैं या एक-दूसरे को कमज़ोर कर देते हैंे। इस तरह पर्दा काले (गहरे) और प्रकाशित पैटर्न से भरा होता है - बारकोड की तरह। यह पैटर्न सीधे लेसर स्रोत से आए प्रकाश और वस्तु द्वारा परावर्तित प्रकाश का सम्बंध दर्शाता है।
अब यदि इस काले और प्रकाशित पैटर्न वाले इस पर्दे को उसी लेसर प्रकाश से प्रकाशित किया जाता है तो जो वेव फ्रंट परदे से उत्सर्जित होता है उसमें तीव्रता का पैटर्न वही होता है जो मूल वस्तु से उत्पन्न हुआ था। तो व्यक्ति को उस परदे पर वही सारी वस्तुएं दिखाई देंगी।
इसके साथ बस एक समस्या है कि इस पैटर्न (होलोग्राम) को परदे पर प्रिंट करने में वक्त लगता है और ये पैटर्न अचर होते हैं। गतिमान दिखाने के लिए हमें सेकंड के हर सोलहवें हिस्से में एक नया होलोग्राम बनाना होगा, और उसी गति से होलोग्राम को चलाना होगा तभी आंखें एक चलती-फिरती पिक्चर देख पाएंगी।
एरिज़ोना की टीम ने जिस खोज की घोषणा की थी वह थी कि उन्होंने एक ही पॉलीमर शीट पर अलग-अलग रंग के लेसर का उपयोग कर हर दो सेकंड में एक होलोग्राम बनाया था। हालांकि इस स्पीड से होलोग्राम बनाकर प्रदर्शित करना चलती-फिरती पिक्चर दिखाने के लिए काफी नहीं है। पर यह एक अच्छी शुरुआत है और होलोग्राम निर्मित करने का समय घटने की उम्मीद है। इस तकनीक की सफलता से तस्वीरों की एक लड़ी दिखाई जा सकती है जिसे देखकर कोई इंसान किसी दूसरी जगह पर इस तरह महसूस कर सकता है जैसे कि वह खुद वहां उपस्थित हो। एरिज़ोना के आविष्कारकों का कहना है कि इस तकनीक को आगे चलकर दूर-चिकित्सा, विज्ञापन, प्रोटोटाइपिंग, त्रि-आयामी मेप, व मनोरंजन में उपयोग कर सकते हैं।
पेनसिल्वेनिया के शोधकर्ताओं ने एक लचीली चादर पर नैनोपर्टिकल का इस्तेमाल करके ज्यामितीय आकारों का होलोग्राम तैयार किया है। यदि इस शीट के घटक और मोटाई उतनी ही हों जितनी प्रकाश की तरंग-दैध्र्य होती है तो वह उस पर पड़नेे वाले वेव फ्रंट को आकार दे सकती है। इस समूह ने सिंथेटिक शीट पर सोने की नैनो-छड़ें जोड़कर एक सतह तैयार की है। इस शीट को खींचकर कणों के प्रकाशीय गुणधर्मों को बदला जा सकता है और कम्प्यूटर द्वारा बनाए गए पंचभुज के होलोग्राम को एक वर्ग में बदला जा सकता है। और उस वर्ग को त्रिभुज में बदला जा सकता है। इस खोज से यह संभावना उजागर हुई है कि होलोग्राम में कुछ बदलाव करके त्रि-आयामी दृश्यों का इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)