यह तो जानी-मानी बात है कि कुत्ते आपराधिक गुत्थी सुलझाने, आपदा के क्षेत्रों में बचाव दलों को मार्गदर्शन देने वगैरह में अच्छी भूमिका निभाते हैं। अब कहा जा रहा है कि कुत्तों को कैंसर सूंघने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। रोगग्रस्त कोशिकाओं से निकलने वाली गंध से कैंसर का पता लगाने के लिए कुत्तों की संवेदनशील नाक का उपयोग कर अनगिनत लोगों का निदान करने में मदद मिल सकती है। लेकिन अभी इसमें कई समस्याएं हैं।
1989 में दी लैंसेट में कुत्ते द्वारा सूंघकर कैंसर पता लगाने की रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद ऐसी कई रिपोट्र्स सामने आईं और 2006 में एक डबल ब्लाइंड अध्ययन भी प्रकाशित हुआ। जल्द ही, अनगिनत अध्ययनों से पता चला कि प्रशिक्षित कुत्ते किसी व्यक्ति की सांस या पेशाब के नमूनों को सूंघकर कतिपय कैंसर का पता लगा सकते हैं। कोशिकाएं, यहां तक कि कैंसर कोशिकाएं, वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वीओसी) का उत्सर्जन करती हैं। इन यौगिकों की प्रकृति के चलते हर प्रकार के कैंसर की एक अलग गंध होती है। लेकिन वैज्ञानिक अभी तक इस गंध से सम्बंधित यौगिकों का पता नहीं लगा पाए हैं।
कुत्तों की नाक में 22 करोड़ से अधिक गंध संवेदना ग्राही होते हैं जिसकी वजह से ये रोग सूंघने के लिए सबसे उत्कृष्ट जानवर हैं।
परन्तु यह इतना आसान नहीं है। लाइव साइंस पत्रिका के अनुसार कुत्तों को प्रशिक्षित करने के लिए समय और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यदि उस दिन उनका मूड खराब हो तो काफी प्रशिक्षण के बावजूद भी वे निदान में भूलचूक कर सकते हैं।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में ओटोलैरिंगोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. हिलेरी ब्राॉडी ने इसका एक विकल्प सुझाया है। आप पहले कुत्तों को सूंघने के लिए यौगिकों का एक मिश्रण दीजिए, फिर उसमें से एक-एक यौगिक को हटाते जाइए। कुछ घटक हटा दिए जाने के बाद जब कुत्ते नमूने पर जवाब देना बंद कर दें तब यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हटाए गए यौगिक कैंसर से सम्बंधित हैं। इसके बाद शोधकर्ता इन अलग-अलग घटकों का विश्लेषण करके जैव रासायनिक परीक्षण विकसित कर सकेंगे।
अधिकांश कुत्तों को विशेष कैंसर की गंध को पहचानने के लिए लगभग 6 महीनों में प्रशिक्षित किया जा सकता है। किंतु ऐसे अध्ययन वास्तविक परिस्थिति में नहीं बल्कि प्रयोगशाला में किए गए हैं जहां कुत्तों को पांच नमूने दिए जाते हैं जिसमें एक कैंसरयुक्त नमूना होता है। मगर वास्तव में एक कुत्ते को 1000 नमूने सुंघाए जाने पर शायद एक ही कैंसर वाला नमूना निकले। शायद इसी वजह से वास्तविक परिस्थिति में किया गया अध्ययन असफल रहा था। यह अध्ययन 2016 में ब्रोथ रिसर्च नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
अगर कुत्तों को ध्यान में रखते हुए सेटअप बदला भी जाए तब भी यह मरीज़ों को स्क्रीन करने के लिए एक यथार्थवादी तरीका नहीं होगा। एक तो इसके लिए विभिन्न प्रकार के कैंसर पहचानने के लिए कुत्तों का प्रशिक्षण करना होगा। और कुत्तों के स्वभाव में परिवर्तन के दैनिक चक्र को भी ध्यान में रखना होगा। और परिणाम अलग-अलग कुत्तों के लिए अलग-अलग भी हो सकते हैं।
इसकी बजाय, ब्राॉडी और हैकनर का ख्याल है कि कुत्ते एक जैव रासायनिक नाक मशीन (ई-नाक) विकसित करने में मददगार हो सकते हैं। ऐसी मशीनें कुछ चिकित्सकीय स्थितियों के लिए उपलब्ध भी हैं। कुत्तों की मदद से इन्हें और अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)