भारत डोगरा
आदिवासी पारंपरिक ज्ञान को सहेजने व उसकी रक्षा करने के महत्व को अनेक अध्ययन व विशेषज्ञ रेखांकित कर चुके हैं। पर एक नए अध्ययन से पता चला है कि इसके महत्व के बावजूद नई पीढ़ी में पारंपरिक ज्ञान का ह्यास हो रहा है।
केरल में तिरुवंतपुरम स्थित भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन संस्थान द्वारा पश्चिमी घाट क्षेत्र के आदिवासी समुदायों में किए गए इस अध्ययन में बताया गया है कि पारंपरिक ज्ञान का यह ह्यास विशेषकर युवाओं में देखा गया है। जिन आदिवासी समुदायों का अध्ययन किया गया उनमें 33 से 50 प्रतिशत तक परंपरागत जानकारी का ह्यास हुआ है। यह जानकारी आदिवासी समुदायों की दृष्टि से चिंताजनक है ही, साथ ही यह एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय क्षति भी है क्योंकि आदिवासियों के परंपरागत ज्ञान से विकास व पर्यावरण रक्षा की सही राह निकालने में सहायता मिल सकती है।
विशेषकर वनों, लघु वनोपज, वन खाद्य, वन औषधियों, जैव विविधता, मोटे अनाजों, परंपरागत बीजों के ज्ञान के संदर्भ में आदिवासी ज्ञान बहुत उपयोगी हो सकता है।
डॉ. आर.एच. रिछारिया का नाम देश के शीर्ष कृषि वैज्ञानिकों में लिया जाता है। वे कई वर्षों तक कटक व रायपुर स्थित कृषि संस्थानों के निदेशक रहे व उनका महत्वपूर्ण योगदान आज भी याद किया जाता है। उन्होंने अपने दस्तावेज़ों में विशेषकर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में किए गए अपने कार्य के संदर्भ में बताया है कि यहां आदिवासियों का कृषि ज्ञान बहुत समृद्ध था और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी फसलों की सैकड़ों किस्मों के ज्ञान को सहेजते रहे हैं।
यह ज्ञान उनकी खाद्य सुरक्षा का प्रमुख आधार था। इस तरह ऐसी खाद्य सुरक्षा प्राप्त होती थी जो आत्म निर्भरता पर आधारित थी। कई फसल किस्मों की जानकारी आदिवासी समुदायों के पास होने के कारण व बहुत विविधता के बीज उपलब्ध होने के कारण वे प्रतिकूल मौसम व अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अच्छी उपज प्राप्त कर लेते थे।
दूसरी ओर, वनों से खाद्य व औषधि प्राप्त करने के बारे में भी आदिवासियों का ज्ञान बहुत समृद्ध रहा है। ओड़िशा में लिविंग फाम्र्स नामक संस्था द्वारा किए गए अध्ययनों में वन खाद्य सम्बंधी ज्ञान के बारे में बताया गया है कि बहुत विविध खाद्य वनों से प्राप्त होते हैं व उन्हें पहचानने का समृद्ध ज्ञान आदिवासियों के पास उपलब्ध है। वन खाद्यों को आपस में मिल-बांटकर खाया जाता है। अनेक वन खाद्यों का वैज्ञानिक मूल्यांकन करने पर इनके पोषण गुण अधिक पाए गए।
अत: यह निश्चय ही चिंताजनक है कि आदिवासियों के परंपरागत ज्ञान का नई पीढ़ी में ह्यास हो रहा है। इसकी एक वजह यह है कि परंपरागत ज्ञान को उचित महत्व नहीं मिल रहा है, इसे उचित पहचान नहीं मिल रही है। इस ओर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए तथा नई पीढ़ी को परंपरागत ज्ञान के महत्व के प्रति सचेत व प्रोत्साहित करने के प्रयास साथ-साथ होने चाहिए। (स्रोत फीचर्स)