दुनिया भर में लगभग 2 लाख आरक्षित क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों को प्रकृति की खातिर, वन्य जीवों की खातिर आरक्षित किया गया है। इन क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल लगभग 180 लाख वर्ग कि.मी. है। किंतु एक ताज़ा सर्वेक्षण से पता चला है कि इसमें से 32.8 प्रतिशत भूमि ‘कठोर मानवजनित दबाव’ में है। सर्वेक्षण का नेतृत्व ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के जेम्स वॉटसन ने किया है। उनका कहना है कि इसी वजह से आरक्षित क्षेत्र में वृद्धि के बावजूद जैव विविधता में लगातार कमी आ रही है।
1992 में रियो डी जेनेरो में हुई जैव विविधता संधि के अंतर्गत जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनके मुताबिक सदस्य राष्ट्रों को 2020 तक अपनी भूमि का 17 प्रतिशत हिस्सा आरक्षित क्षेत्रों में तबदील करना है। अलबत्ता, पता यह चला है कि जिन 111 राष्ट्रों ने यह लक्ष्य पूरा करने का दावा किया है उनमें से 74 ने वास्तव में ऐसा नहीं किया है। इन 74 देशों में हालत यह है कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव अतिक्रमण के चलते प्रकृति का ह्यास जारी है।
वॉटसन और उनके साथियों ने प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र में ‘मानव पदचिंहों’ की छानबीन की। इसके लिए उन्होंने प्रत्येक आरक्षित क्षेत्र को 1-1 वर्ग किलोमीटर के चौखानों में बांटा और फिर यह नापा कि इंसान वहां 8 तरीकों से प्रकृति को प्रभावित करते हैं। जैसे सड़क निर्माण, सघन खेती और पथ-प्रकाश वगैरह। इसके आधार पर उन्होंने प्रत्येक चौखाने में मानव पदचिंह की गणना की। यह देखा गया कि आरक्षित क्षेत्रों में मानव पदचिंह वैश्विक औसत से आधा थे किंतु चिंताजनक बात यह है कि 1992 के बाद से स्थिति बदतर होती गई है। वॉटसन की टीम ने पाया कि आरक्षित क्षेत्रों की सबसे बुरी स्थिति पश्चिमी युरोप, दक्षिण एशिया और अफ्रीका में है।
अच्छी बात यह पता चली है कि 42 प्रतिशत आरक्षित भूमि मानव दखलंदाज़ी से लगभग मुक्त है। टीम ने कुछ आदर्श स्थल भी चिंहित किए हैं। इनमें से एक है कंबोडिया का किओ सीमा वन्यजीव अभयारण्य और दूसरा है बोलिविया का मादिदी राष्ट्रीय उद्यान। टीम का कहना है कि अभयारण्य अथवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर देना एक बात है किंतु उसके लिए संसाधन जुटाना और उसका प्रबंधन करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)