डॉ. वासुदेव मुकुंद
आयुष मंत्रालय ने अपने द्वारा वित्तपोषित शोध को समकक्ष समीक्षित (पीयर-रिव्यूड) शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने का, निष्कर्षों को सार्वजनिक दायरे में रखने का या आंकड़ों को लोगों की समीक्षा हेतु प्रस्तुत करने का कोई प्रयास नहीं किया है।
एक ‘अनुसंधान’ का निष्कर्ष है कि जो मरीज़ दवा के साथ गोमूत्र सत का सेवन करते हैं वे दवा की खुराक कम करके भी वांछित परिणाम हासिल कर सकते हैं। यह काफी खतरनाक है।
अपने कुछ मंत्रियों के विश्वासों (जिनमें गोमूत्र सम्बंधी आस्था भी शामिल है) की पुष्टि करने वाले ‘अनुसंधान’ को आगे बढ़ाने की हड़बड़ी में सरकार अच्छी अनुसंधान प्रथाओं को तिलांजलि देती जा रही है।
नवंबर 25 की एक पीटीआई रिपोर्ट के मुताबिक आयुष मंत्रालय के राज्य मंत्री श्रीपाद नाइक के नेतृत्व में भारत सरकार गोमूत्र को एक औषधि के रूप में प्रोत्साहित करने में लगी है। आयुष वह मंत्रालय है जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में शोध का कामकाज देखता है। राज्य मंत्री नाइक ने एक वक्तव्य में कहा है, “वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने अपनी प्रयोगशालाओं में गो विज्ञान अनुसंधान केंद्र, नागपुर के साथ मिलकर गोमूत्र आसव पर अनुसंधान किया है। यह अनुसंधान उसके ऑक्सीकरण-रोधी गुण तथा संक्रमण-रोधी व कैंसर-रोधी औषधियों व पोषक पदार्थों पर उसके जैव-प्रोत्साहक गुणों के संदर्भ में किया गया है।” इस रिपोर्ट से कई चिंताएं उत्पन्न होती हैं। हालांकि इनमें से कुछ चिंताएं खालिस मज़ाक लगेंगी मगर इनके परिणाम भयानक हो सकते हैं। ऐसी 6 चिंताओं की बात यहां की गई है।
1. पारदर्शिता का अभाव - वनस्पति उपचार (यानी प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त आसवों का अध्ययन) और आयुर्वेद (तथा अन्य पारंपरिक व गैर-एलोपैथी प्रणालियों) में अनुसंधान को बढ़ावा देने की सख्त ज़रूरत है। कारण यह है कि विभिन्न पारंपरिक नुस्खों की प्रभाविता की पुष्टि करने या खारिज करने के लिए मज़बूत प्रमाण ज़रूरी हैं ताकि तमाम नीम-हकीमी नुस्खों और वैध उपचारों के बीच भेद किया जा सके। ऐसे नीम-हकीमी नुस्खे खास तौर से ग्रामीण इलाकों में लोगों को बेचे जा रहे हैं।
इन प्रणालियों के प्रति अपने प्रकट समर्थन के बावजूद आयुष मंत्रालय ने अपने द्वारा वित्तपोषित शोध को समकक्ष समीक्षित (पीयर-रिव्यूड) शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने का, निष्कर्षों को सार्वजनिक दायरे में रखने का या आंकड़ों को लोगों की समीक्षा हेतु प्रस्तुत करने का कोई प्रयास नहीं किया है। मंत्रालय ने कामकाज के स्वस्थ तरीकों को भी प्रोत्साहन नहीं दिया है और परिणाम यह है कि ऐसे ‘अध्ययनों’ का अंबार लग गया है जिनमें किसी तरह की गुणवत्ता नहीं है।
2. शोध पत्र की बजाय पेटेंट पर ज़ोर - आयुष मंत्रालय द्वारा मीडिया में की जाने वाली घोषणाओं के साथ अक्सर यह दावा जुड़ा होता है कि अमुक-अमुक पेटेंट हासिल हो गया है (और किसी वजह से यह भी जोड़ दिया जाता है कि इसे नासा का समर्थन प्राप्त है)। यह सही है कि पेटेंट का मतलब अनूठापन होता है, मगर इसका मतलब यह नहीं होता कि पेटेंटेड वस्तु मानव शरीर के लिए उपयोगी है। इस बात को तो अलग से प्रमाणित करना पड़ता है। और तो और, ऐसे कई दावे तब टिक नहीं पाते जब उनकी थोड़ी खोजबीन की जाती है (जैसा कि सत्य-उपरांत युग की कई चीज़ों के बारे में होता है)। 2016 की शुरुआत में सीएसआईआर द्वारा विकसित और आयुष मंत्रालय द्वारा व्यापारिक रूप से दी गई तथाकथित डायबिटीज़ की दवा बीजीआर-34 के साथ ऐसा ही हुआ। पता चला कि इस नुस्खे को कोई पेटेंट हासिल नहीं हुआ था जबकि अधिकारियों ने दावा किया था कि पेटेंट मिल चुका है। यदि इस तरह के दावे करना जारी रहा तो भावी दावों - वे चाहे जितने सही हों - की विश्वसनीयता गिरना तय है।
3. संसाधनों की हानि - अक्टूबर 2015 में भारत सरकार ने सीएसआईआर का बजट आधा कर दिया और विभिन्न केंद्रों से कहा गया कि वे शेष आधा बजट अपने द्वारा विकसित उत्पादों से पूरा करें। उनसे यह भी कहा गया कि वे अपनी दिशा को बदलकर सामाजिक रूप से उपयोगी टेक्नॉलॉजी (गोमूत्र सहित) पर ध्यान दें और अपनी ‘प्रगति’ की रिपोर्ट हर माह प्रस्तुत करें। कुल मिलाकर इस कदम का मतलब यह निकला कि फंडिंग में 2000 करोड़ की कटौती हुई। और यदि प्रथम दो मुद्दों के साथ जोड़कर देखें, तो इस कटौती से 2015 के बाद हुए परिवर्तनों की दिशा का अंदाज़ लग जाता है। देश में मज़बूत व विश्वसनीय अनुसंधान ने सीएसआईआर के 38 केंद्रों, उनमें उपलब्ध बुनियादी सुविधाओं में से अधिकांश को गंवा दिया है और उसके शोध संस्थान 2000 करोड़ के अनुसंधान फंड से भी हाथ धो बैठे हैं। उसके बाद से सीएसआईआर जिस तरह के अनुसंधान कार्य में जुटा है, उसके विश्वसनीय नतीजे नहीं मिल रहे हैं।
4. अनुसंधान के प्रोटोकॉल - आयुष मंत्रालय सरकार के लिए प्राथमिकता वाला मंत्रालय है (मार्च 2016 के केंद्रीय बजट में आयुष मंत्रालय को 16.6 प्रतिशत की वृद्धि मिली थी, जो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विभाग की 17 प्रतिशत वृद्धि भी थोड़ी-सी कम थी और जैव-टेक्नॉलॉजी की 12 प्रतिशत वृद्धि से तो कहीं ज़्यादा थी)। इसके बावजूद, आयुष मंत्रालय ने वैज्ञानिक अन्वेषण के स्थापित तौर-तरीकों के प्रति घोर अवहेलना ही प्रदर्शित की है। बीजीआर-34 के मामले में अधिकारियों ने दावा किया था कि नई दिल्ली के अग्रवाल अस्पताल में 48 मरीज़ों के साथ चरण-3 के क्लीनिकल परीक्षण किए गए हैं। अलबत्ता, दिल्ली के एक वकील प्रशांत रेड्डी के मुताबिक औषधि व सौंदर्य प्रसाधन कानून के तहत एलोपैथिक औषधियों का क्लीनिकल परीक्षण कम से कम 500 मरीज़ों के साथ एकाधिक केंद्रों पर किया जाना ज़रूरी है। लिहाज़ा, शोधकर्ताओं का यह दावा तथ्यों से परे हैं कि उनके द्वारा किया गया परीक्षण एलोपैथी के मापदंडों के अनुरूप था।
एक अन्य मामले में गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय ने घोषणा की थी कि उन्हें गोमूत्र में 3-10 मि.ग्रा. सोना प्राप्त हुआ है। मगर वे यह नहीं बता पाए कि यह सोना वहां पहुंचा कैसे और न ही उनके परिणामों को समकक्ष समीक्षा के लिए प्रस्तुत किया गया। एक तीसरे मामले में उसी माह उत्तराखंड सरकार ने घोषणा की कि वह पौराणिक वनस्पति संजीवनी को खोजने के लिए 25 करोड़ रुपए खर्च करेगी और यह खोज इस पौधे की अप्रमाणित औषधीय बहुसक्षमता के आधार पर की जाएगी (वैसे अभी आयुष मंत्रालय ने इस प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया है)।
दरअसल, इन सारे दावों से पहले बीजेपी द्वारा 2013 में लोक सभा 2014 के चुनाव अभियान के दौरान दिया गया एक अजीबोगरीब वायदा है। वायदा था कि पार्टी ‘आयुर्जीनोमिक्स’ को बढ़ावा देगी। इसका अर्थ है जीनोमिक अध्ययनों में आयुर्वेदिक सिद्धांतों का उपयोग। वैसे इस विचार को कभी भटनागर पुरस्कार से सम्मानित एक वैज्ञानिक ने समर्थन दिया था मगर कतिपय गंभीर अवधारणात्मक समस्याओं के कारण इसे वापिस लिया था (इनमें से एक समस्या थी कि यह विचार ज्योतिष से जुड़ा है।)
5. अनजाना पदार्थ - नाइक का वक्तव्य (पीटीआई द्वारा रिपोर्टेड) के अनुसार गोमूत्र से आसवन करके निकाला गया एक पदार्थ है जो बैक्टीरिया-रोधी दवाइयों की क्रिया को बढ़ा सकता है। इस विवरण के साथ कम से कम तीन यू.एस. पेटेंट हैं: 6410059, 6896907 और 7235262। इन तीनों में पदार्थ को मात्र कामधेनु अर्क के रूप में पहचाना गया है। तीनों में निम्नलिखित पैरा शामिल है: “इस आविष्कार की नवीनता सटीक प्रयोगों द्वारा उजागर हुए इस तथ्य में है कि इसकी प्रोत्साहक क्रिया और प्रभाविता मात्र उस सांद्रता के परास में है जो अक्षरश: नैनो या माइक्रो मोल स्तर की है। और जब नुस्खों या मिश्रणों में इससे अधिक सांद्रता/खुराक का उपयोग किया जाता है, तो क्रिया नज़र नहीं आतीं। संभवत: इसी वजह से गोमूत्र की इतनी अमूल्य संभावना को नहीं पहचाना जा सका है।”
इस विवरण के साथ कई दिक्कतें हैं। पहली: इन ‘सटीक प्रयोगों’ का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता। दूसरी: पदार्थ की निर्धारित खुराक (अक्षरश: नैनो या माइक्रो मोल) अविश्वसनीय की हद तक कम है, जिसे नियंत्रित करना मुश्किल है और दरअसल होम्योपैथी की याद दिलाती है। तीसरी: पदार्थ का रासायनिक संघटन नहीं बताया गया है। चौथी: पेटेंट दस्तावेज़ के विवरण में कहा गया है: “सामान्य स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की दृष्टि से गोमूत्र को जंतु स्रोत से प्राप्त/स्रावित सबसे कारगर पदार्थ माना जा सकता है।” - यह पुष्टिकरण पूर्वाग्रह का एक लक्षण है - “मगर इसे वैज्ञानिक प्रयोगों से प्रमाणित करने की कोई ज़रूरत नहीं है।” पांचवा: दस्तावेज़ के एक अन्य भाग में कहा गया है, “इसके अलावा, भैंस, ऊंट, हिरन के मूत्र का आसव इसी तरह की जैव-उपलब्धता सम्बंधी क्रिया दर्शाता है।” फिर गोमूत्र में क्या खास बात है, भाई?
ज़रूरत इस बात की है कि वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों को खारिज न किया जाए क्योंकि हमने किसी उपयुक्त विधि से इनकी पूरी संभावनाओं की पड़ताल नहीं की है।
6. जोखिमभरा नुस्खा - सम्बंधित पेटेंट में दो पंक्तियां और हैं जो खतरनाक संकेत देती हैं। पहली है कि गोमूत्र का अर्क कैंसर-रोधी तथा टीबी-रोधी दवाइयों की क्रिया को बढ़ा सकता है: “...गोमूत्र के अर्क का उपयोग कैंसर-रोधी उपचार में सीधे या कैंसर-रोधी अणु के साथ मिश्रण के रूप में जैव-उपलब्धता बढ़ाने वाले कारक के रूप में किया जाता है।” और इसी प्रकार से, “टीबी (बहु-औषधि प्रतिरोधी टीबी समेत) के उपचार में आइसोनिएज़िड व अन्य टीबी-रोधी दवाइयों के साथ मिलाकर।” दूसरा है कि “अर्क के उपयोग से सूक्ष्मजीव-रोधी दवा का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए ज़रूरी खुराक को कम किया जा सकता है।” “चयन का दबाव स्वत: कम हो जाएगा और साथ ही एंटीबायोटिक या दवा की खुराक को कम करने से साइड प्रभाव भी कम होंगे, जिसका अपना व्यापारिक महत्व है।” परिणामस्वरूप, पेटेंट यह कह रहा है कि कैंसर और बहु-औषधि प्रतिरोधी टीबी के मरीज़ अपनी दवा के साथ-साथ गोमूत्र के अर्क का सेवन करेंगे तो दवा की खुराक कम करके भी वैसे ही अच्छे परिणाम हासिल हो जाएंगे। यह एक जोखिम भरा विचार है जो कई जानों को दांव पर लगा सकता है और साथ ही जानबूझकर लापरवाही के आरोप को निमंत्रण दे सकता है।
ज़रूरत इस बात की है कि इन वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों को खारिज न किया जाए क्योंकि हमने किसी उपयुक्त विधि से इनकी पूरी संभावनाओं की पड़ताल नहीं की है। कम से कम उस हद तक तो नहीं ही की है जहां हम इनका मूल्यांकन कर पाएं। इसके अलावा, 2000 में विश्व स्वास्थ्य संगठन समर्थित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि कुछ पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों के मामले में प्रभाविता के आकलन हेतु डबल ब्लाइंड परीक्षण करना व्यावहारिक नहीं है। लिहाज़ा इसमें उपयुक्त बदलाव किए जाने चाहिए। इसके बावजूद करंट साइन्स की समीक्षा में स्पष्ट किया गया था कि किसी भी प्रयोग में बेतरतीबी से किए तुलनात्मक परीक्षण के लक्षण होने चाहिए। साथ ही “परिष्कृत क्लीनिकल तरीके, प्रमाणों का व्यवस्थित दस्तावेज़ीकरण और प्रत्येक शारीरिक लक्षण पर ध्यान देना तथा आयुर्वेद व एलोपैथी में उसकी तुलना-योग्य व्याख्या भी ज़रूरी है।”
एलोपैथी के बचाव का आशय यह नहीं है कि वह ‘बेहतर’ चिकित्सा पद्धति है। दरअसल, यह उस विचार के समान है जो नील्स बोह्र ने प्रस्तुत किया था। इसे जब क्वांटम और क्लासिकल भौतिकी के बीच लागू करते हैं तो इसे समरूपता का सिद्धांत कहते हैं। इस सिद्धांत के मुताबिक यदि कोई नया सिद्धांत किसी पुराने सिद्धांत को समाहित करना चाहता है और यदि पुराने सिद्धांत से कुछ ऐसी भविष्यवाणियां की जा सकती थीं जो क्षेत्र-विशेष में सही साबित होती थीं, तो नए सिद्धांत को उस क्षेत्र में वही भविष्यवाणियां करनी होंगी। इसी प्रकार से यदि चिकित्सा की पारंपरिक शैलियां कुछ सुस्थापित एलोपैथिक भविष्यवाणियों (जैसे किसी दवा को कैसे व्यवहार करना चाहिए), को समाहित करना चाहती हैं, तो उन्हें उसी तरह की भविष्यवाणियां करनी चाहिए। समरूपता में व्यवधान पैदा करने से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे। (स्रोत फीचर्स)