संदर्भ 18 में प्रकाशित प्रो. यशपाल के भाषण पर आधारित लेख ‘स्कूल के सवाल ज़िन्दगी के सवालों से फर्क क्यों?' जब से पढ़ा है तब से मन उद्वेलित है। हालांकि बहुत देर से इस पर अपनी प्रतिक्रिया भेज रहा हूं लेकिन यह जानते हुए भी अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं।
यह लेख इतना महत्वपूर्ण विचारोत्तेजक और सामयिक है कि न सिर्फ इस पर केवल प्रतिक्रिया होनी चाहिए, बल्कि मुझे लगता है कि इस पर विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और स्कूलों तथा वैज्ञानिक संस्थानों में एक बहस होनी चाहिए। आखिर कब तक हम लोग कुंए के मेंढक की तरह अपनी-अपनी दुनिया में सिमटे रहेंगे। ज़िन्दगी के सवालों के जवाब जब तक अलग-अलग क्षेत्र के लोग मिल बैठ कर, खुले दिलो दिमाग से नहीं विचारेंगे तब तक हमारा देश, दुनिया की सबसे बड़ी ‘वैज्ञानिक फौज' होते हुए भी किसी नए महान जनोपयोगी आविष्कार को मोहताज रहेगा।
इसी लेख में गांवों में हुए नवाचारों में ‘मरूता' और 'जुगाड़' के बारे में पढ़ा। एक वस्तु से किस तरह ज्यादा से ज़्यादा काम लिया जाए, उसका विभिन्न तरीकों से इस्तेमाल हो - भारतीय परिवेश में यह उसका बेमिसाल उदाहरण है। ऐसे और कई नवाचार हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं जिन पर तथाकथित बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और नीतिनिर्धारकों का ध्यान पता नहीं क्यों नहीं जाता। सेंधवा में, जहां मैं पिछले सात सालों से रह रहा हूं, मैंने भी उपलब्ध संसाधनों का एक बहुत ही बढ़िया उपयोग देखा है। आप जानते ही हैं कि ट्रक और बसों के पुराने टायर को ठिकाने लगाना कितना मुश्किल काम है। जलाने पर ये प्रदूषण फैलाते हैं और इनसे कई केन्सरकारी पदार्थ निकलते हैं, ढेर सारा धुंआ निकलता है सो अलग। यहां के जूते चप्पल बनाने वालों ने इसका एक सुन्दर उपयोग ढूंढ निकाला है - वह है इससे सुन्दर, मजबूत, जंग न लगने वाली तगाड़ी बनाना। ये इतनी सफाई से बनाई जाती है कि तारीफ किए बिना नहीं रहा जा सकता। पुरानी बेकार वस्तु का इससे बढ़िया और क्या उपयोग हो सकता है। टायर से तगाड़ी विदेशों में नहीं बनायी जा सकती, वह तो भारत में ही संभव है।
इन्डीजीनस तकनॉलॉजी का एक और उदाहरण देखिए। क्या आपने बैलगाड़ी में कभी ब्रेक देखे हैं? मैंने देखे हैं।
हमारे यहां महाराष्ट्र से जिस रास्ते बैलगाड़ी में कपास लाया जाता है, बीच में एक बड़ा बीजासनघाट पड़ता है। चढ़ाई के दौरान गाड़ी के पीछे लुढ़कने का डर हमेशा बना रहता है। इस मुश्किल से निजात पाने का सीधा-सरल उपाय देखिए जो ये अपढ़ ग्रामीण अपनाते हैं। गाड़ी के पहिए के पीछे उसके एक्सल के दोनों सिरों पर रस्सी से एक डेढ़ फीट लम्बा लकड़ी का मोटा टुकड़ा लटका दिया जाता है। जो गाड़ी के आगे चलने पर तो पहिए के साथ सड़क पर रगड़ता हुआ चलता रहता है, परन्तु गाड़ी जैसे ही पीछे की ओर आने लगती है वह अपने भार के कारण रुककर ओट बन जाता है। और इस तरह गाड़ी लुढ़कने से बच जाती है। इसे कहते हैं - उपयुक्त टेकनॉलॉजी। जो यह बताती है कि स्थानीय समस्याओं के इलाज भी स्थानीय ही हो सकते हैं। विदेशी तकनीक से देसी समस्याओं के हल नहीं ढूंढे जा सकते। प्रो. यशपाल को और आप लोगों को इतना अच्छा लेख संदर्भ में प्रकाशित करने हेतु धन्यवाद। उम्मीद है संदर्भ इसी तरह से विज्ञान और समाज के रिश्तों पर रोशनी डालती रहेगी।
किशोर पंवार
वनस्पति शास्त्र विभाग
सेंधवा, म. प्र.