किशोर पंवार
कीटों की दुनिया काफी निराली है। इनमें कई सामाजिक कीट हैं जैसे चींटियां, दीमक और मधु मक्खियां; जिनकी अपनी एक काबिले तारीफ व्यवस्था है। एक भरा पूरा परिवार जिसका मुखिया मानव समाज की तरह पुरुष न होकर मादा होती है। रानी के इस साम्राज्य में सेवक और सैनिक सभी होते हैं। सभी बेहद अनुशासित और समर्पित, अराजकता की कोई गुंजाइश नहीं।
कीटों की इसी दुनिया का ही एक बाशिंदा है ‘सिकाडा किलर'। सिकाड़ा और सिकाडा किलर दोनों बड़े रोचक जीव हैं। यह वर्ष सिकाडा वर्ष है। पिछले अंक में आपने सिकाडा के बारे में पढ़ा था जो 13 या 17 साल में एक बार एक साथ लाखों की तादाद में निकलते हैं। परंतु इन सिकाडा से ज्यादा रोचक है सिकाडा किलर का व्यवहार।
सिकाडा किलर्स
ततैया की सैंकड़ों जातियों में से, जो अपने शिशुओं को खिलाने के लिए शिकार करती हैं, सबसे ज्यादा रोचक है सेंड वेस्प - स्फीसियस स्पीसिओसस यानी ‘सिकाडा किलर'।
जब मादा सिकाडो किलर अपने ककून से बाहर आती है तो खुद को एक अंधेरी दुनिया में जमीन के अंदर पाती है। यह अंधेरी सुरंग 30-40 इंच लंबी सुरंग का एक हिस्सा होती है और जमीन से तकरीबन चार इंच अंदर होती है।
गर्मी के किसी दिन धूप में यह मादा पहली बार इस सुरंग से बाहर निकलती है। पहली उड़ान में ही इसकी मुलाकात नर से हो जाती है, जो उससे पहले ही बाहर आ चुका होता है। यहां उनका मिलन होता है।मादा ‘सिकोडा किलर' शायद ही कभी दूसरी बार समागम करती है। वह पहले समागम के दौरान एकत्र किए शुक्राणुओं का अगले तीस या उससे अधिक दिनों तक उपयोग करती रहती है।
जल्दी ही यह वैसी ही सुरंग खोदती है जिससे कि वह खुद बाहर निकली थी। खोदने में ये माहिर है इसलिए कुछ ही घंटों में अपना काम निपटा देती है। इस मेहनत भरे काम के लिए इसे फूलों के रस और पेड़ों के रस से मिलती है ऊर्जा। परंतु जैसे ही सुरंग पूरी होती है भोजन की इसकी चाह बदल जाती है और अचानक वह फूल पत्तियों के रस की बजाए सिकाडा की खोज में निकल पड़ती है।
ऐसा लगता है कि सिकाडा की तलाश वह यूं ही हर कहीं नहीं करती। वह उन संभव स्थानों यानी उन पेड़ों के पास जाती है और उनके चारों ओर चक्कर लगाती है, जहां सिकाडा के मिलने की संभावनाएं ज्यादा हों। मादा ‘सिकाडा किलर' पेड़ के तने से कुछ इंच ऊपर उठती है और काफी व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ती है। जैसे ही उसे सिकाडा मिलता है वह उस पर तेजी से आक्रमण कर दंशक से उसके शरीर में जहर घुसा देती है। इस विष के असर से शिकार बेहोश हो जाता है, पर मरता नहीं है। इस बेहोशी की अवस्था में सिकाडा लगभग एक सप्ताह तक पड़ा रहता है।
‘सिकाडा किलर' जो एक तेज़ और सक्षम उड़ाका है, इसे उठाकर अपनी सुरंग की ओर चल देती है। उसकी मेहनत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सिकोडा का वजन
‘सिकाडी किलर' द्वारा अपने दंशक से जहर घुसाकर बेहोश किया हुआ मादा सिकाडा। ‘सिकाडा किलर' ने उसे पीठ के बल औंधा लिटाकर उसके पंजों के बीच अपना अंडा फंसा दिया है ताकि अंडे में से निकलने पर लार्वा को पर्याप्त भोजन मिलता रहे।
‘सिकाडा किलर' से चार-छ: गुना ज़्यादा होता है। सुरंग के नजदीक पहुंचकर वह सिकाडा को घसीटकर सुरंग के किसी एक चेंबर में ले जाती है, और फिर उस पर अपना एक अण्डा देती है।
वेस्प यानी ‘सिकाडा किलर' का यह व्यवहार बड़ा नपा-तुला होता है। सिकाडा को हमेशा पीठ के बल लिटाया जाता है, और अण्डे को हमेशा सिकाडा के पेट की तरफ एक निश्चित जगह पर रखा जाता है। यह सब होने पर वेस्प इस कोठरी को मिट्टी से बंद कर देती है, और फिर कभी नहीं खोलती।
कुछ ही दिनों में अण्डा फूटता है और उसमें से इल्ली निकलती है जिसके लिये शानदार दावत का इंतजाम मां द्वारा पहले से ही किया हुआ है। यह इल्ली ताजे सिकाडा से अपना भोजन लेती है। निष्क्रिय अवस्था में होने से वह कोई प्रतिरोध भी नहीं कर पाता। इस तरह से ‘सिकाडा किलर' बढ़ता रहता है जब तक कि यह अपना ककून नहीं बुन लेता और प्यूपा नहीं बन जाता।
वेस्प का यह व्यवहार कई सवाल उठाता है। मादा के पैतृक व्यवहार में ऐसे भोजन को ढूंढना जो उसके खुद के भोजन से बिलकुल अलग है; अपने बच्चों को भविष्य में लगने वाली भोजन की भूख का पहले से ही अहसास; आदि। ऐसा कई अन्य कीटों में भी होता है। मां शाकाहारी और बच्चे मांसाहारी मादा का ऐसा व्यवहार क्यों?
यदि यह प्रश्न इसलिए है कि वे कौन-से कारक हैं जो इस व्यवहार को नियंत्रित करते हैं तो जवाब है कि हम अब तक नहीं जानते। परंतु यदि सिकाडा और ‘सिकाडा किलर' की विकास यात्रा का इतिहास जानना चाहते हैं तो इस रिश्ते पर कुछ रोशनी डाली जा सकती है। ये वयस्क ततैया जो मुख्य रूप से मकरकंद भक्षी है, ऐसे वेस्प से विकसित हुए हैं जिनके लार्वा और वयस्क दोनों मांसाहारी थे। विकास के इस दौर में वेस्प के लार्वा ने तो अपना पुराना भोजन नहीं छोड़ा परंतु वयस्कों ने एक नई दिशा ढूंढ ली जिसमें मकरंद, शक्कर का और परागकण, प्रोटीन का स्रोत हैं।
इसके लार्वा में इस पुरातन गुण के बचे रहने के कारण वयस्क मादा को इसके लिए वह भोजन तलाशना पड़ता है जिसे उसने स्वयं कभी नहीं खाया। इसी तरह का पैतृक व्यवहार कई पक्षियों में भी देखा गया है जिनके वयस्क तो बीज खाते हैं परंतु अपने नवजात बच्चों के लिए बड़ी संख्या में कीड़े पकड़ कर लाते हैं। ये पक्षी भी ‘सिकाडा किलर' की तरह कीटभक्षी पक्षियों से विकसित हुए हैं।
किशोर पंवारः शासकीय महाविद्यालय सेंधवा, जिला बड़वानी में वनस्पति शास्त्र पढ़ाते हैं।