माधव केलकर

22 मई 1997, जबलपुर में - -- भूकम्प का ज़ोरदार झटका आया। अखबारों में भी कुछ दिनों तक भूकम्प की चर्चा होती रही और बाद में दूसरी खबरों ने उसकी जगह ले ली। लेकिन मुझे रह-रहकर एक बात कचोटती रही कि सैंकड़ों किलोमीटर दूर बैठे वैज्ञानिकों को भूकम्प की इतनी सटीक जानकारी कैसे मिल जाती है। और वे इतने विश्वास के साथ भूकम्प का केन्द्र और भूकम्प की तीव्रता किस तरह बता पाते हैं।

कुछ पूछताछ की तो पता चला कि इन वैज्ञानिकों के पास साइज़्मोमीटर नामक उपकरण होता है जो धरती के कम्पनों का एक ग्राफ बनाता है (कुछ -कुछ वैसा ही ग्राफ जैसा डॉक्टर द्वारा लिए गए हृदय के ई. सी. जी. में दिखता है)। यह ग्राफ ही वह प्रमुख औज़ार है। जो भूकम्प के बारे में इतनी सटीक जानकारी देता है।

साइमोमीटर के बारे में अभी इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि यह यंत्र धरती के कम्पनों को एक बेलनाकार ड्रम (घूमते हुए) पर लिपटे कागज़ पर रिकॉर्ड करता है। यदि कागज़ पर बनने वाली लकीरें सीधी हैं तो इसका मतलब है कि अभी धरती में कम्पन नहीं हो रहे, यदि कागज पर कोई कम्पन दिखते हैं तो इनका विस्तृत अध्ययन करने पर बहुत-सी जानकारी निकाली जा सकती है।

भूकम्प तरंगें
आमतौर पर भूकम्प का उद्गम केन्द्र (Focus) 10 किलोमीटर से 700 किलोमीटर की गहराई में स्थित होता है। यहीं से भूकम्प तरंगें निकलकर सभी दिशाओं में फैलती है। साइज़्मोमीटर की मदद से इन भूकम्प तरंगों को रिकॉर्ड करके और फिर इन तरंगों का अध्ययन करने पर ही कई बातें समझी जा सकीं। भूकम्प में मुख्य रूप से तीन तरंगें चलती हैं - P, s,L (इन तरंगों पर और जानकारी के लिए देखिए बॉक्स)।

*धरती के भीतर जहां भूकम्प की घटना घटती है उस स्थान को भूकम्प का केन्द्र (Focus) कहते हैं। फोकस के ठीक ऊपर जमीनी सतह के बिन्दु को अधिकेन्द्र (Epicentre) कहते हैं।

जिस तरह पास से गुजरती हुई रेलगाड़ी की धड़धड़ाहट को हमारे पैर महसूस करते हैं उसी तरह साइज़्मोमीटर भूकम्प के केन्द्र से उत्पन्न कम्पनों को महसूस करता है। ये कम्पन P, s और L तरंगों के रूप में पहुंचते हैं। P, S, L तरंगों का वेग अलग-अलग होता है इसलिए साइज़्मोग्राफ में दर्ज तरंगों में भी एक क्रम होता है। सबसे पहले P. फिर s और सबसे आखिर में L तरंगें। (साथ में चल रही घड़ी को भी देखिए) भूकम्प केन्द्र के पास वाले साइज्मिक-स्टेशन पर ये तीनों तरंगें जल्दी पहुंच जाती हैं लेकिन जैसे-जैसे भूकम्प केन्द्र से साइज्मिक-स्टेशन की दूरी बढ़ने लगती है तरंगों को पहुंचने में लगने वाला समय भी बढ़ता जाता है। इस रिकॉर्ड को साइज्मोग्राम कहते हैं।

किसी भूकम्प को भूकम्प केन्द्र के नज़दीक रिकॉर्ड किया जाए तो साइज़्मोग्राम में काफी ज्यादा उतार-चढ़ाव होते हैं लेकिन इसी भूकम्प को 1000 किलोमीटर दूर रिकॉर्ड किया जाए तो वहां बने साइज़्मोग्राम में उतार-चढ़ाव काफी कम होते हैं।

लगातार किए गए अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया है कि P और S तरंगों के रास्ते में यदि ज्यादा घनत्व वाली चट्टानी परतें आती हैं तो इन तरंगों की गति बढ़ जाती है और कम घनत्व वाली परतें आ जाएं तो तरंगों की गति कम हो जाती है। साथ ही ये दोनों तरंगें सघन से विरल या विरल से सघन माध्यम में जाने पर परावर्तित और अपवर्तित भी होती हैं।

इस सब के बावजूद भी इन तरंगों की पृथ्वी की विभिन्न परतों में गति

तीन किस्म की तरंगें

P तरंगें - इन तरंगों को पुश-पुल तरंगें भी कहते हैं जो धरती के भीतरी हिस्सों से होती हुई सतह तक पहुंचती हैं। ये ठोस, द्रव और गैस तीनों माध्यमों में से होकर गुज़र सकती हैं। जो भी पदार्थ इनके मार्ग में आता है उनमें एक क्रम से दबाव (Compression) और विरलीकरण (Rarefaction) होता है और तरंग आगे बढ़ती है। जिस तरह लोहे की सलाख के एक छोर को किसी हथौड़े की मदद से धीरे से ठोका जाता है तो ध्वनि तरंगें दूसरे छोर तक पहुंच जाती हैं उसी तरह ‘पी' तरंगें आगे बढ़ती हैं। ‘पी' तरंगों की औसत रफ्तार 5.5 किमी/सेकेंड होती है।

S तरंगें - ये भी भूकम्प के फोकस से चलकर सतह तक आती हैं। 'एस' तरंगें केवल ठोस माध्यम में से गुजर सकती हैं। ये जिस माध्यम से गुजरती हैं उस माध्यम के कण इनकी आगे बढ़ने की दिशा के लम्बवत गति करते हैं। इन्हें समझने के लिए किसी दीवार में लगी कील से रस्सी बांधकर रस्सी का एक छोर अपने हाथ में थाम लीजिए। फिर धीरे-धीरे रस्सी को ऊपर-नीचे या दाएं-बाएं हिलाते हुए उसमें लहरें पैदा कीजिए। आप देखेंगे कि लहरें दीवार की ओर जा रही हैं, परन्तु रस्सी दरअसल उनकी लम्बवत दिशा में गति कर रही है। ‘एस' तरंगों की औसत गति 3 किमी/सेकेंड होती है।

L तरंगें या सतही तरंगें - ये तरंगें भी ‘एस' तरंगों की तरह ही हैं, बस फर्क इस बात का है कि ये ज़मीन की सतह पर पानी की लहरों की तरह गति करती हुई आगे बढ़ती हैं। भूकंप में सबसे ज्यादा नुकसान सतही तरंगों के कारण होता है। इन तरंगों की गति को समझने के लिए तालाब में पत्थर फेंकने की घटना को याद करना होगा। जैसे ही पत्थर पानी की सतह पर गिरता है कुछ लहरें एक गोल घेरा बनाती हुई किनारे की ओर आने लगती हैं। इस प्रक्रिया में एक लहर उठती है, गिरती है; फिर उठती है, गिरती है। इस तरह गोल घेरा बढ़ता जाता है। यदि एक छोटा-सा कॉर्क का टुकड़ा इस घेरे में डाल दिया जाए तो कॉर्क का टुकड़ा अपनी जगह ही ऊपर-नीचे गति करता रहता है। यानी माध्यम के कण यहां भी तरंग से लम्बवत गति कर रहे हैं। L तरंगों की रफ्तार 5 तरंगों से कुछ कम होती है।

को नापकर यह मालूम किया गया कि किसी भूकम्प के केन्द्र से कितने समय में तरंगें कितना फासला तय कर लेंगी। इस गणना के बाद समझ में आया कि समय के हिसाब से दूरी तय करने का यह करतब ये दोनों तरंगें भूकम्प के अधिकेन्द्र से लगभग 11000 किलोमीटर की दूरी तक दिखाती है। लेकिन 11000 किलोमीटर के बाद जो कुछ घटित होता है वह काफी रोमांचक है। अब तक समय की पाबंद ये तरंगें उसके बाद अचानक गायब

यहां बिन्दू 0 भूकम्प का उद्गम केन्द्र है। मान लीजिए पूरी धरती पर साइज़्मोमीटर का जाल बिछा हुआ है जो 0 पर आए भूकम्प की सूचना दे रहे हैं। 11000  किलोमीटर की दूरी तक स्थित माइज्मिक-स्टेशनों तक तो P और S तरंगें पहुचीं लेकिन 11000 किलोमीटर के बाद पी और एस में से कोई भी तरंग नहीं पहुंची। चित्र में दिखाया गया है कि 11000 किलोमीटर की दूरी के बाद पी और एस तरंगों को धरती के कोर में से होकर गुजरना पड़ता है। बाहरी कोर आंशिक तरल होने के कारण एस तरंगें तो वहीं खत्म हो जाती हैं लेकिन पी तरंगें अपवर्तित होकर कोर के भीतरी भाग की ओर चल देती हैं, और अपने पहले वाले रास्ते से हट जाती हैं। 16000 किलोमीटर की दूरी पर फिर एक बार P तरंग पहुंचती है लेकिन निर्धारित समय से तीन मिनट देरी से। वह क्षेत्र जहां P और S तरंग में से कोई भी तरंग नहीं पहुंचती, उसे ‘शेडो जोन' नाम दिया गया है।

हो जाती हैं। लगभग 16000 किलोमीटर की दूरी पर ये P तरंगें फिर से रिकॉर्ड होने लगती हैं। परन्तु वहां तक पहुंचने में इन्हें जितना समय लगना चाहिए था उससे उसे तीन मिनट ज्यादा लगता है। और S तरंग अभी भी गायब है। जब ऐसा पहली बार हुआ तो सारे भूकंप वैज्ञानिक भौंचक्के रह गए। ऐसा क्यों हुआ कुछ समझ में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि साइज़्मोग्राम की सहायता से उन्होंने न सिर्फ भूकम्प को ही रिकॉर्ड किया है, बल्कि पृथ्वी की भीतरी संरचना के बारे में बहुत सी जानकारी हासिल हुई है। प्रयोगों से यह भी मालूम हुआ कि P तरंगें तरल पदार्थों में से गुजरने पर धीमी हो जाती हैं। S तरंगें तरल पदार्थ को पार नहीं कर पाती और भीतर ही खत्म हो जाती हैं। बाद में यह समझ बनी कि धरती का केन्द्रीय भाग (Core) पूर्णतः ठोस नहीं है बल्कि कोर की बाहरी परत आंशिक रूप से तरल है। 11 000 किलोमीटर तक यात्रा में ये तरंगें धरती के ऊपरी ठोस भाग (क्रस्ट और मेंटल) में से होकर गुजर रही थीं मगर 11000 किलोमीटर के बाद की दूरी तक पहुंचने के लिए इन्हें धरती के केन्द्रीय भाग यानी कोर में से गुजरना पड़ता है। वहां बाहरी तरल पदार्थ को पार करते हुए इन दोनों तरंगों का यह हाल हो जाता है।

भूकम्प अधिकेन्द्र खोजना
जब धरती पर संवेदनशील साइज़्मोमीटर का एक जाल बिछा दिया गया तो यह गणनाएं हो गई कि किसी एक दूरी को तय करने में P तरंगों को कितना समय लगता है और S तरंगों को कितना समय लगेगा। किसी दूरी को तय करते हुए दोनों तरंगों के बीच के समयांतर को आधार बनाकर एक ग्राफ बनाया गया (ग्राफ अगले पेज पर)। यह छोटा-सा ग्राफ किसी भी साइज़्मो-स्टेशन के लिए अहम भूमिका निभाता है।

ग्राफ का इस्तेमाल कर साइज़्मो स्टेशन से भूकम्प अधिकेन्द्र की दूरी पता करना काफी आसान है। जैसे ही किसी स्टेशन पर ‘पी' तरंगें पहुंचने लगती हैं तुरंत समय नोट किया जाता है। उसके बाद जब 'एस' तरंगें पहुंचती हैं तो फिर से समय नोट करके ‘पी' और 'एस' के पहुंचने के बीच के समयांतर को निकाला जाता है। इस अंतर को ग्राफ पर प्लॉट किया जाता है। यहां दिए गए उदाहरण में 'एस' और 'पी' को समयांतर 7 मिनट 58 सेकेंड है। इस अंतर को ग्राफ में प्लॉट करने के बाद एक नज़र दूरी वाले अक्ष पर दौड़ाने पर दिखेगा कि यह अंतर दूरी वाले अक्ष को 7450 किलोमीटर पर काट रहा है। यानी इस स्टेशन से भूकम्प का केन्द्र 7450

यहां ‘पी' तरंगे और 'एस' तरंग के प्रथम आगमन के समय-अंतराल के आधार पर यह वक्र खींचा गया है। इसका इस्तेमाल भूकम्प का उद्गम निकालने के लिए किया जाता है। लेख पढ़ते हुए ग्राफ को साथ-साथ देखिए।

किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अब एक नजर फिर से ग्राफ पर। देखिए समयांतर वाली पतली डॉटेड लाइन ‘पी' तरंगों वाली रेखा को कहां छूती है। इस सम्पर्क बिन्दु के सामने समय वाले अक्ष पर समय देखिए। यह समय लगभग 8 मिनट 52 सेकेंड है। यानी ‘पी' तरंगों को यहां तक का रास्ता तय करने में 8 मिनट 52 सेकेंड का समय लगा है। इससे पता चल जाता है कि भूकम्प की घटना कब घटी थी।

बतौर उदाहरण, साइज्मो-स्टेशन पर 'पी' तरंग दोपहर तीन बजकर 9 मिनट और 6 सेकेंड पर पहुंची और तरंग ने यहां तक आने में 8 मिनट 52 सेकेंड का समय लिया है।

इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि दोपहर तीन बजकर 14 सेकेंड पर भूकम्प आया था। इस भूकम्प की सूचना (पी तरंगों के रूप में) उक्त स्टेशन पर तीन बजकर 9 मिनट और 6 सेकेंड पर आई। इस 8 मिनर 52 सेकेंड के समय में ‘पी' तरंगें 7450 किलोमीटर का फासला तय करके यहां तक पहुंची हैं यानी भूकम्प का केन्द्र 7450 किमी. की दूरी पर था। अभी हमने सिर्फ दूरी का ही पता लगाया है, दिशा का नहीं।

वैसे किसी भी भूकम्प के अधिकेन्द्र का सही-सही निर्धारण करने के लिए कम-से-कम तीन अलग-अलग जगहों के साइज़्मोमीटर पर भूकम्प का दर्ज होना जरूरी है। इन तीनों जगहों पर पी और एस तरंगों के प्रथम आगमन के बीच के अतंराल को ग्राफ में प्लॉट करके दूरी का अनुमान लगाते हैं। फिर

भूकम्प का अधिकेन्द्र पता करने के लिए कम-से-कम तीन साइज़्मो-स्टेशनों की ज़रूरत होती है। यहां तीन काल्पनिक स्टेशन ए, बी, और सी दिखाए गए हैं। इनमें से प्रत्येक स्टेशन पर पी और एस तरंगों के प्रथम आगमन के बीच के समय अंतराल के आधार पर भूकम्प केन्द्र से दूरी का अनुमान लगाकर, उस दूरी के बराबर त्रिज्या का एक-एक वृत्त खींचते हैं। जिस बिन्दु पर ये तीनों वृत्त एक-दूसरे को काटते हैं वहां भूकम्प का अधिकेन्द्र होना चाहिए, जिसे यहां बिन्दु 'एफ' से दर्शाया गया है।

थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि किसी साइज़्मो-स्टेशन में रिकॉर्ड किए गए भूकम्प का एक साइज्मोग्राम आपके हाथ में आ गया है। और आप इसकी मदद से भूकम्प केन्द्र की दूरी और भूकम्प का मैग्नीट्यूड पता करना चाहते हैं।

ऊपर भूकम्प का किसी एक स्टेशन से प्राप्त ग्राफ दिया गया है। इस ग्राफ के साथ कुछ जानकारियां दी गई हैं। जैसे कब 'पी' तरंग आई और कब 'एस' तरंग का आगमन हुआ। साथ में दो पैमाने भी दिए गए हैं। इनमें से एक समय दिखा रहा है जिसमें समय को सेकेंड में नापा जा रहा है। और दूसरा स्केल तरंगों का उतार-चढ़ाव (Amplitude) दिखा रहा है, जिसे मिलीमीटर में नापा गया है।

ग्राफ के नीचे तीन स्तंभ बने हैं। इनमें से पहले कॉलम में बाईं ओर दूरियां दिखाई गई हैं। इसी पहले स्तम्भ में दाईं ओर ‘एस' और 'पी' तरंगों के बीच के समय अंतराल का पैमाना प्रदर्शित किया गया है।

दूसरा कॉलम मैग्नीट्यूड से संबंधित है जो हमें पता करना है। इसमें 1 से 10 तक अंक होते हैं (यहां सिर्फ 6 तक ही अंक दिखाए गए हैं)।

चित्र में तीसरा कॉलम ‘एस' तरंग का आयाम यानी एम्प्लीट्यूड दिखा रहा है जिसका संबंध साइज़्मोग्राम में आए अधिकतम उतार-चढ़ाव से है। यह पैमाना मिलीमीटर में है

चित्र को समझ लेने के बाद अब देखते हैं कि इसके आधार पर रिक्टर स्केल पर भूकम्प का मैग्नीट्यूड कैसे मापते हैं। सबसे पहले 'पी' और 'एस' तरंगों के बीच समय-अंतराल पता लगाना है। साइज्मोग्राम में समय वाले पैमाने से पता करते हैं। कि 'पी' तरंगें कब आई थी और 'एस' तरंगें कब आईं। ‘एस' तरंग के आगमन समय में से ‘पी' तरंग का आगमन समय घटाने से 'एस' और 'पी' तरंग के बीच का समय अंतराल मिल जाता है। इस साइज़्मोग्राम में यह अंतराल 24 सेकेंड है।

तत्पश्चात समय अंतराल की यह जानकारी चित्र के पहले स्तंभ में दर्शा देते हैं। यानी पहले कॉलम के दाहिनी ओर 24 सेकेंड पर एक निशान लगा देते हैं।

अब एक बार फिर साइज़्मोग्राम पर नजर डालते हैं। इस बार 'एस' तरंगों का अधिकतम उतार-चढ़ाव यानी आयाम नापेंगे। इसे हम आधार रेखा से नापते हैं। इस साइज़्मोग्राम में ‘एस' तरंग का अधिकतम आयाम 23 मिलीमीटर है। चित्र के तीसरे कॉलम के पैमाने पर 23 मिलीमीटर पर एक निशान लगा देते हैं।

हम पहले स्तंभ पर 24 सेकेंड पर एक निशान लगा चुके हैं। इसी तरह तीसरे स्तंभ पर 23 मिलीमीटर पर भी निशान लगा दिया है। बस अब भूकम्प का मैग्नीट्यूड और दूरी मालूम करना है। बहुत ही आसान है आगे की प्रक्रिया - 24 सेकेंड और 23 मिलीमीटर वाले निशानों को जोड़ते हुए एक सीधी रेखा खींचिए। यह रेखा दूसरे स्तंभ को जहां भी काट रही है वही है भूकम्प का मैग्नीट्यूड। चित्र से स्पष्ट है कि इस भूकम्प का मैग्नीट्यूड 5 है।

पहले स्तंभ में समय के साथ-साथ दूरी भी दी है। 24 सेकेंड के सामने दर्शाई गई दूरी 210 किलोमीटर है। अब हम बता सकते हैं कि हमारे साइज़्मो स्टेशन से लगभग 210 किलोमीटर की दूरी पर 5.0 मैग्नीट्यूड का भूकम्प आया है। यदि इस भूकम्प का दो और साइज़्मो-स्टेशन के आंकड़ों से मिलान किया जाए तो हम भूकम्प का अधिकेन्द्र (Epicentre) भी बता सकते हैं।

अंत में एक सवाल आपके लिए - किसी साइज्मोग्राम से पता चला कि 'एस' और ‘पी' तरंगों के बीच समय-अंतराल 11 सेकेंड है और तरंगों का अधिकतम आयाम 1 मिलीमीटर। भूकम्प का मैग्नीट्यूड और भूकम्प केन्द्र की दूरी क्या होगी? इस दूरी को त्रिज्या मानते हुए वृत्त खींचते हैं। ये तीनों वृत्त जिस बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते हैं उसे भूकम्प का अधिकेन्द्र मानते हैं।

भूकम्प के पैमाने
भूकम्प की तीव्रता बता पाना एक खासी समस्या रही है। समय-समय पर भूकम्प की तीव्रता बताने के लिए स्केल बनाए जाते रहे हैं। शुरुआती स्केल विनाश की प्रकृति, कम्पनों की अवधि, कम्पनों की संख्या और जमीन में आए परिवर्तनों आदि पर आधारित थे। इटली के भूकम्प वैज्ञानिक एल. मर्केली ने 1902 में एक स्केल सुझाया जिसे प्रबलता स्केल (Intensity Scale) कहा गया। यह स्केल 1 से 12 तक था। प्रत्येक अंक पर उस प्रबलता का भूकम्प आने पर महसूस होने वाले अनुभव और संभावित नुकसान का ब्यौरा दिया होता था।

कई बार हम यह धारणा मन में बैठा लेते हैं कि जितनी ज़्यादा तीव्रता का भूकम्प होगा उतना ही ज्यादा विनाश होगा। वास्तव में किसी स्थान पर विनाश या नुकसान भूकम्प अधिकेन्द्र (Epicentre) से दूरी, जनसंख्या का घनत्व, मकानों-भवनों की बनावट तथा इस्तेमाल की गई सामग्री, जमीन की प्रकृति (कड़ी चट्टानों के मुकाबले भुरभुरी मिट्टी की परत पर ज्यादा नुकसान होता है) आदि बातों पर निर्भर करता है। इसके साथ-साथ एक और महत्वपूर्ण कारक है, भूकम्प का केन्द्र कितनी गहराई में है। क्योंकि जितनी ज्यादा गहराई पर फोकस होगा ‘एल' तरंगें उतनी ही। कम ऊर्जा वाली होंगी, यानी तबाही भी कम होगी। जैसे-जैसे हम एपिसेंटर से दूर जाते हैं भूकम्प की तीव्रता भी घटती जाती है।

जिन दिनों साइज्मोमीटर नहीं होते। थे तब तबाही के आधार पर ही एपिसेंटर का अंदाज़ लगाया जाता था। सबका अनुभव था कि सबसे ज्यादा तबाही एपिसेंटर पर ही देखी जाती है। यानी भूकम्प का केन्द्र, एपिसेंटर के ही नीचे है। उन दिनों भूकम्प केन्द्र का अनुमान लगाते हुए एक और दिलचस्प चीज सामने आई कि एक समान तीव्रता (या तबाही वाले) वाले स्थानों को जोड़ते हुए गोलाकार रेखाएं (कंटूर रेखाओं की तरह) खींची जा सकती हैं। इन रेखाओं को समभूकम्प रेखाएं (Isoseismal Lines) कहते हैं।

यद्यपि हमें भूकम्प की तीव्रता ही। पता करना है और प्रबलता पैमाने से भी भूकम्प की तीव्रता (तबाही के माध्यम से) पता चल ही रही है। लेकिन सिर्फ सतही निरीक्षण पर आधारित होने के कारण इस विधि से कई बार हमारे अनुमान गड़बड़ा भी जाते हैं। क्योंकि तबाही का सीधा संबंध तीव्रता से कम है बल्कि यह जनसंख्या के घनत्व, मकानों की बनावट जैसी बातों पर ज्यादा निर्भर है। इसलिए एक और पैमाना विकसित किया गया जिसे ‘रिक्टर स्केल' कहा गया। साइज़्मोमीटर से प्राप्त रिकॉर्ड के आधार पर सी. एफ. रिक्टर ने 1935 में एक स्केल बनाया जो भूकम्प के दौरान पैदा होने वाली पी, एस, एल तरंगों के अधिकतम उतार-चढ़ाव (Amplitude) के आधार पर तैयार किया गया था। इससे हम भूकम्प के दौरान निकली ऊर्जा को नापते हैं।

रिक्टर की इस विधि में साइज़्मोग्राम के कुछ तयशुदा हिस्सों से तरंगों का आयाम (एम्प्लीट्यूड) नापते हैं। इस विधि की सबसे खास बात यह है कि इस नाप-जोख में भूकम्प से साइज़्मो-स्टेशन की दूरी कहीं भी बाधक नहीं बनती।

रिक्टर का स्केल लॉगरिधम पर आधारित है। इसमें 1 से 10 तक अंक दिए होते हैं। साइज्मोग्राम में दर्ज उतार-चढ़ाव के हिसाब से भूकम्प के दौरान निकली हुई ऊर्जा की मात्रा भी बदलती है। स्केल पर प्रत्येक पूर्णक अपने से पहले वाले पूर्णीक से दस गुना ज्यादा होता है। इसलिए मैग्नीट्यूड 8.0 का भूकम्प, मैग्नीट्यूड 4.0 वाले भूकम्प 'से दो गुना नहीं बल्कि 10,000 गुना शक्तिशाली होगा।

कुछ ही समय में रिक्टर को स्केल लोकप्रिय हो गया। परन्तु इस दौरान कुछ नए स्केल बनाए गए जिनमें से काफी सारे अभी भी इस्तेमाल हो रहे हैं। इन्ही प्रचलित पैमानों में से एक पैमाने में मैग्नीट्यूड ‘पी' तरंगों को आधार बनाकर नापते हैं। साइज़्मोग्राम में ‘पी' तरंगों का वह हिस्सा चुनते हैं जहां आवर्तकाल एक सेकेंड होता है। इसी तरह एक और स्केल सतही तरंगों के आधार पर बनाया गया है। इसमें साइज़्मोग्राम में सतही तरंगों का वह हिस्सा चुनते हैं जिसका आवर्तकाल 20 सेकेंड हो।

भूकम्प से निकलने वाली ऊर्जा के संदर्भ में यह तथ्य भी तुलना के लिए उपयोगी हो सकता है कि दुनिया के पहले परमाणु बम परीक्षण (न्यू मैक्सिको, जुलाई 1945) में निकली ऊर्जा, 5.0 मैग्नीट्यूड वाले भूकम्प में निकलने वाली ऊर्जा के बराबर थी। और एक मैगाटन वाले एटम बम से 6.0 मैग्नीट्यूड वाले भूकम्प के बराबर ऊर्जा निकलती है। हालांकि यह भी सही है कि एटम बम में ऊर्जा एक जगह केन्द्रित रहती है जबकि भूकम्प में फैली होती है। इसलिए एक समान मैग्नीट्यूड वाले भूकम्प और एटम बम विस्फोट के परिणाम भी भिन्न-भिन्न होंगे

इनमें ऊपर बना साइज्मोग्राम भूकम्प का है और नीचे बम का। दोनों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर एक-सी है। परन्तु फिर भी क्या इन दोनों में आपको कुछ फर्क दिखता है?

भूकम्प या परमाणु बम
जब परमाणु बम की बात छिड़ ही गई है तो यह सवाल भी उठता है। कि भूकम्प वैज्ञानिकों को यह कैसे पता चलता है कि साइज्मोमीटर में दर्ज साइज़्मोग्राम भूकम्प का है या किसी परमाणु बम के परीक्षण का?
अमरीका-रूस के शीत-युद्ध के दौरान एक-दूसरे के बम परीक्षणों पर नजर रखने की नीयत से विकसित हुई विधियों में साइज़्मोग्राम का बहुत ही बारीकी से विवेचन किया जाने लगा।

ऊपर दिए गए चित्र में से पहला साइज़्मोग्राम किसी भूकम्प का है तथा दूसरा परमाणु बम परीक्षण का। इन दोनों को एक समान दूरी से रिकॉर्ड किया गया है तथा ‘पी' तरंग को आधार मानकर निकाला गया दोनों का मैग्नीट्यूड भी समान है। यहां दोनों ग्राफ की तुलना करने पर यह बहुत साफतौर पर दिखता है कि भूकम्प में अच्छे से सतही तरंगें विकसित होती हैं जबकि बम परीक्षण में सतही तरंगें बहुत कमज़ोर होती हैं।

इसके अलावा कई और तकनीकी बारीकियां हैं जैसे पहले ‘पी' या 'एस' तरंगों के आयाम को आधार बनाकर मैग्नीट्यूड निकालते हैं। इस मैग्नीट्यूड की तुलना सतही तरंगों से प्राप्त मैग्नीट्यूड से करते हैं। अब दोनों के बीच एक अनुपात पता किया जाता है। लगातार किए गए विश्लेषणों से पता चला है कि भूकम्प में तो यह अनुपात सामान्य होता है लेकिन बम परीक्षण में यह अनुपात काफी कम होता है।

इस मुद्दे पर और भी बातचीत हो सकती है। कुछ आपके भी सवाल होंगे लेकिन शेष चर्चा अगले किसी अंक के लिए मुल्तवी करते हैं।


माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका में कार्यरत