जाहिद खान
पर्यावरण की सुरक्षा और लोगों के कल्याण के लिए एकत्रित पैसे को दीगर कामों में लगाए जाने पर नाराज़गी जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में सरकार से साफ लहज़े में कहा, “कार्यपालिका हमें मूर्ख बना रही है।” न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने वायु प्रदूषण और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान स्पष्ट तौर पर सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि कैंपा (क्षतिपूर्ति वनीकरण कोश प्रबंधन और नियोजन प्राधिकरण) का पैसा पर्यावरण संरक्षण और जन-उद्देश्य के कामों में खर्च होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
वर्ष 1985 में पर्यावरणविद एम.सी. मेहता ने इस मामले में जनहित याचिका दायर की थी। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका की सुनवाई के दौरान जब बहस आगे बढ़ी तब पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता ए.एन.एस. नाडकर्र्णी ने सीधे जवाब देने की बजाय पीठ से कहा कि अदालत को केंद्र सरकार को बताना चाहिए कि इस कोश का कैसे और कहां इस्तेमाल होना चाहिए और इसका उपयोग कहां नहीं किया जा सकता। इस दलील पर पीठ और नाराज़ हुई और कहा कि यह अदालत का काम नहीं है। अदालत कोई पुलिस नहीं है, जो यह कहकर पकड़े कि तुमने नियम तोड़ा है। स्थिति बहुत निराशाजनक है। एक तरफ अदालत से कहा जाता है कि वह बताए कि क्या किया जाए और जब अदालत कुछ कहती है, तो कहा जाता है कि अदालत सीमा लांघ रही है। पीठ ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव को हलफनामा पेश करने को कहा था। जिसमें इस साल की 31 मार्च तक की स्थिति के मुताबिक सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को बताना था कि इस मद में कुल कितना धन एकत्रित हुआ है और उसका किस मद में कैसे उपयोग किया जाएगा। अदालत खास तौर से ओड़िशा और मेघालय राज्य के हलफनामे देखकर नाराज़ थी। ओड़िशा ने अपने हलफनामे में कहा था कि कैंपा कोश में एकत्रित रकम से सड़कें बनीं, इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ, एक करोड़ बस स्टैंड पर खर्च हुए, कॉलेज की साइंस लैब बनी। इस पर अदालत ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि ये काम तो सरकार और स्थानीय निकायों का है, जिसके लिए अलग से बजट होता है। सरकार, पर्यावरण संरक्षण और जन कल्याण का पैसा इस पर कैसे खर्च कर सकती है? बहरहाल मामले में अब अगली सुनवाई 9 मई को होगी, जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के हलफनामों से मालूम चलेगा कि कैंपा कोश का कितना सदुपयोग हुआ और कितना दुरुपयोग।
विकास कार्यों के नाम पर देश भर में हरे पेड़ों को काटा जाता रहा है। इसकी प्रतिपूर्ति में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से एक दशक पहले, साल 2009 में ‘कंपन्सेटरी अफॉरेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी’ (कैंपा) कोश बनाया था। यह कोश पर्यावरण संरक्षण के लिए इकट्ठा किया जाता है। कैंपा कोश का यह पैसा केंद्र के पास जमा होता है। केंद्र, समय-समय पर यह राशि मांग के अनुरूप राज्य सरकारों को जारी करता रहता है। इस धनराशि के खर्च के लिए कोई ठोस दिशानिर्देश न होने की वजह से बीते सालों में इस कोश का बड़े पैमाने पर गैर-वानिकी कार्यों में उपयोग किया जाता रहा है। जबकि कैंपा नियमावली के मुताबिक इस निधि की 80 फीसदी रकम का इस्तेमाल वनों एवं वन्य प्राणियों के विकास में होगा, बाकी 20 फीसदी रकम का इस्तेमाल गैर-वनीय क्षेत्रों में किया जा सकता है। यानी कैंपा की धनराशि प्रमुख रूप से क्षतिपूरक वनीकरण के लिए खर्च की जानी चाहिए। लेकिन ज़्यादातर राज्य इसे अलग मद में खर्च कर रहे हैं। देश की विभिन्न राज्य सरकारों पर कैंपा कोश के दुरुपयोग के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। कैंपा कोश के दुरुपयोग की कहानी नियम विरुद्ध निर्माण कार्यों से लेकर आलीशान वाहनों की खरीद, इको टूरिज़्म गतिविधि, संरक्षित वनों को काटने, वन विभाग के संविदा कर्मियों को वेतन बांटने और आला अधिकारियों के सैर सपाटे तक फैली हुई है। मसलन उत्तराखंड में 32 करोड़ रुपए से राजाजी नेशनल पार्क टाइगर रिज़र्व में अलग-अलग स्थानों पर दीवारें बना दी गईं जबकि इसके लिए कैंपा के मद का प्रावधान नहीं है। यही नहीं कैंपा कोश से भवन निर्माण और गेस्ट हाउस बना दिए गए। इसके साथ ही भवनों की मरम्मत करा दी गई। कमोबेश यही कहानी प्राकृतिक रूप से समृद्ध बाकी राज्यों की भी है। इसके अलावा भी राज्य के अन्य प्रोजेक्टों में कैंपा से धनराशि लेने का प्रावधान कर दिया गया। ज़ाहिर है, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने कैंपा के नियमों का उल्लंघन किया। विडंबना यह है कि कैंपा कोश की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर गठित की गई ‘सेंट्रल एम्पॉवर्ड कमेटी’ को भी कई मामलों में इसके दुरुपयोग की पूरी जानकारी होने के बावजूद दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। कैग की रिर्पोटों में भी एक नहीं बल्कि कई मर्तबा कैंपा कोश के दुरुपयोग की बातें उजागर हुईं हैं, लेकिन सम्बंधित सरकारों ने दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं की। समय रहते कार्यवाही होती तो कोश का दुरुपयोग रोका जा सकता था।
कैंपा के गठन के वक्त इस कोश में करीब 11 हज़ार 700 करोड़ रुपए थे। फिलहाल इस तरह के सभी कोशों में करीब एक लाख करोड़ रुपए जमा हैं। अफसोस कि इतनी बड़ी रकम का सही तरह से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। अदालतों के दिशा-निर्देश और तमाम आदेशों के बाद भी कैंपा कोश के दुरुपयोग की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। कैंपा कोश की निगरानी के लिए गठित सेंट्रल एम्पॉवर्ड कमेटी ने भी अपनी ज़िम्मेदारियों को सही तरह से नहीं निभाया है। यहां तक कि जिन राज्यों में कैंपा कोश के इस्तेमाल में गड़बड़ियां पाई गईं, उन राज्यों में भी अब तक जांच ज़मीनी स्तर पर नहीं हो पाई है। केवल कागज़ों में ही इंटरनल ऑडिट किया गया है। कैंपा कोश के गठन के बाद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड समेत कई राज्यों की थर्ड पार्टी जांच में खामियां सामने आई थीं। केंद्र सरकार यदि अब भी कैंपा कोश का दुरुपयोग रोकना चाहती है और पर्यावरण के प्रति वाकई गंभीर है, तो उसे किसी स्वतंत्र एजेंसी से इस तरह के मामलों की जांच करानी चाहिए। जांच के बाद जो भी दोषी निकले, उसे सज़ा के अलावा उससे सारे धन की वसूली की जाए। वनों की गुणवत्ता का संरक्षण केवल वनवासियों के लिए ही नहीं है, बल्कि पर्यावरण की व्यापक आवश्यकता है। यह आज के वक्त की पहली ज़रूरत है। कैंपा कोश का जिस मकसद के लिए गठन किया गया था, यदि उसके लिए रकम सही तरह से इस्तेमाल होगी, तो निश्चित तौर पर विकास और पर्यावरण एक साथ कदम मिलाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय की चिंताएं भी यही हैं। (स्रोत फीचर्स)