पिछले कुछ वर्षों में कुछ रोमांचक खोजों से मालूम चला है कि किस प्रकार मनुष्य का अनुकूलन इन्तहाई परिस्थितियों के साथ हुआ है। जैसे, इंडोनेशिया के बजाऊ समुदाय के लोगों में एक विचित्र बदलाव देखने को मिला है। ये लोग पीढ़ियों से दिन का अधिकांश समय पानी में गोताखोरी करते हुए गुज़ारते हैं। इस असामान्य जीवन शैली के चलते उनमें आनुवंशिक बदलाव भी हुए हैं। इन ‘समुद्री बंजारों’ में एक जीन का परिवर्तित रूप पाया जाता है जिसके चलते उनकी तिल्ली (स्प्लीन) असामान्य रूप से बड़ी हो गई है। यह बड़ी तिल्ली ज़रूरत पड़ने पर अतिरिक्त ऑक्सीजनयुक्त लाल रक्त कोशिकाएं प्रदान कर सकती है।
बजाऊ लोग पिछले 1000 वर्षों से भी अधिक समय से हाउसबोट में रह रहे हैं। वे रोज़ अपने 8 घंटे के काम में 60 प्रतिशत समय पानी के अंदर मछली, सी-कुकंबर का शिकार करते हैं या गहनों के लिए काले मूंगे बीनते हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया में मूंगा (कोरल) का अध्ययन कर रही स्नातक छात्र मेलिसा इलार्डो को इस जीवन शैली ने आकर्षित किया।
शरीर-क्रिया वैज्ञानिक जानते हैं कि मनुष्यों समेत अधिकांश स्तनधारी जीवों का चेहरा जब ठन्डे पानी से टकराता है तो उनमें एक ‘गोता प्रतिक्रिया’ देखी जाती है। धड़कन धीमी हो जाती है; रक्त शरीर के मध्य भाग में चला जाता है और तिल्ली में संकुचन होता है और वह अपने भंडार में से कुछ ऑक्सीजनयुक्त लाल रक्त कोशिकाएं छोड़ने लगती है। 1990 में, शोधकर्ताओं ने पाया था कि मोती खोजने वाले जापानी गोताखोरों की तिल्ली सामान्य से अधिक संकुचित होती है, जिससे गोताखोरी के दौरान रक्त ऑक्सीजन में 9 प्रतिशत तक वृद्धि होती है। इलार्डो देखना चाहती थीं कि क्या बजाऊ समुदाय के लोगों की तिल्ली में भी कोई विशेषता होती है।
इलार्डो ने 59 बजाऊ और आसपास के किसान समुदाय के 34 लोगों की तिल्लियां नापी। शोध पत्रिका सेल में इलार्डो ने बताया है कि बजाऊ लोगों की तिल्ली वहीं रहने वाले अन्य लोगों की तुलना में 50 प्रतिशत बड़ी थी।
इन दो समूहों के लार से प्राप्त डीएनए की तुलना से पता चला कि बजाऊ समुदाय में 25 जीन ऐसे थे जो आसपास के किसानों और हान चीनी समुदाय के लोगों से भिन्न थे। देखा गया है कि चूहों में ऐसा एक जीन (PDE10A) थायराइड के ज़रिए तिल्ली के आकार को प्रभावित करता है।
वैसे यह दर्शाना काफी मुश्किल होता है कि किसी जीन में हाल में वैकासिक अनुकूलन हुआ है किंतु बजाऊ समुदाय के संदर्भ में प्रमाण काफी पुख्ता हैं।
पुरातत्ववेत्ता मार्क एल्डेंडर का मत है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि मनुष्यों में प्राकृतिक चयन जारी है। इसके विपरीत केस वेस्टर्न रिज़र्व विश्वविद्यालय की मानवविज्ञानी सिंथिया बीएल इलार्डो के निष्कर्षों से आश्वस्त नहीं हैं। उन्हें लगता है कि बेशक बजाऊ अन्य लोगों की तुलना में अधिक बार गोता लगाते हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि पानी के अंदर ज़्यादा समय बिताते हों। इसके अलावा, एक बड़ी तिल्ली होने मात्र से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि लाल रक्त कोशिकाओं की मात्रा बढ़ रही है। लंदन विश्वविद्यालय के एडवर्ड गिल्बर्ट-कावाई का भी मत है कि यह असंभव है कि तिल्ली का आकार केवल एक जीन द्वारा नियंत्रित होता है।
फिर भी, इलार्डो को उम्मीद है कि इस अध्ययन से उन लोगों को मदद मिल सकती है जो किसी कारण से ऑक्सीजन की कमी का सामना करते हैं। जैसे नींद के दौरान सांस की दिक्कत या मस्तिष्क की चोट से जुड़ी समस्याएं। (स्रोत फीचर्स)