कुदरती रूप से कपास सफेद होता है किंतु इंसान रंग-बिरंगे वस्त्र पहनना चाहते हैं। इसलिए कपास से सूत कातने के बाद पहले उसका मटमैला रंग उड़ाया जाता है और फिर मनपसंद रंग से रंगा जाता है। आजकल तो खैर सूती कपड़ों का ज़्यादा चलन नहीं रहा किंतु एक समय था जब कपास ही कपड़े का प्रमुख स्रोत था। मगर रंग उड़ाने और वापिस रंगने की प्रक्रिया में कई रसायनों का इस्तेमाल होता था और ये प्रदूषण के बड़े स्रोत थे। कुछ रंगीन कपास उपलब्ध थे मगर इनका सूत हाथ से ही कातना होता था, मशीन से नहीं कतता था।
1980 के दशक में सैली फॉक्स एक कपास ब्राीडर के यहां परागणकर्ता का काम करती थीं। उन्हें कपास के पौधों का कृत्रिम परागण करना होता था। ब्राीडर का उद्देश्य था कीट-प्रतिरोधी कपास के पौधे तैयार करना। यहां काम करते हुए सैली फॉक्स ने हरे और भूरे कपास का ब्राीडिंग शुरू कर दिया। करना यह होता था कि हर बार की फसल में से उन पौधों के बीज चुने जाएं जिनके कपास का रंग मनचाहा हो और रेशे भी लंबे हों। फॉक्स ने कई वर्षों तक धैर्यपूर्वक मेहनत करने के बाद दो रंगों के कपास तैयार कर लिए जिनसे मशीन पर सूत काता जा सकता था। ऐसी एक किस्म को तैयार करने में 10 वर्ष से अधिक का समय लगता है।
सैली फॉक्स को कपास की इन किस्मों के लिए प्रोटेक्शन प्रमाण पत्र भी हासिल हुआ। धीरे-धीरे उनका कारोबार चल निकला और बड़ी-बड़ी कंपनियां उनसे रंगीन कपास खरीदने लगीं। किंतु वै·ाीकरण के थपेड़े कपास तक भी पहुंचे और कपड़ा मिलें दक्षिण अमेरिका तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में शिफ्ट हो गईं। फॉक्स के कारोबार में मंदी छा गई।