डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
लगभग एक पखवाड़े पहले दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन में भूवैज्ञानिकों के एक समूह ने सुझाव दिया कि हाल के वर्षों में धरती मां पर मानव जाति का गहरा प्रभाव पड़ा है, और अब समय आ गया है कि पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास में एक नया युग जोड़ा जाए जिसे एंथ्रोपोसीन कहा जाए (एंथ्रोपो ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका उपयोग मानव जाति के लिए किया जाता है)। उन्होंने सुझाव दिया है कि वर्तमान युग होलोसीन के नाम से जाना जाता है जिसमें से एंथ्रोपोसीन का उदय हुआ है। कहा जा रहा है कि एंथ्रोपोसीन 66 साल पहले (1950) से शुरु किया जाए जो होलोसीन युग की समाप्ति दर्शाएगा। होलोसीन करीब 11,700 साल पहले अंतिम हिम युग के साथ शु डिग्री हुआ था। उस समय ज़्यादातर हिम युगीन जानवर (बालों वाले मैमथ, तलवार जैसे दांतों वाले बाघ और विशाल भालू) मर कर खत्म हो गए थे। और लगभग 11 हज़ार साल पहले मनुष्यों ने शिकारी-संग्रहकर्ताओं के रूप में तथा स्थायी समुदायों के रूप में खेती और कृषि की खोज करके पृथ्वी के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था।
इंसान ने संसार को क्या बना दिया? वह क्या बात है जिसने इस युग को एक कुदरती आधार की बजाय मनुष्य के आधार पर परिभाषित करने को प्रेरित किया है? 11 हज़ार साल पहले चलते हैं: उस समय वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर प्रति दस लाख भाग में 220 (पीपीएम) था। यहां तक कि 8 हज़ार साल पहले तक यह करीब 260 पीपीएम था। लेकिन 19वीं शताब्दी के शुरु में पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ भूगर्भ से कोयला निकालकर उसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर परिवहन और उद्योगों के लिए होने लगा था। अन्य प्रमुख जीवाश्म ईंधन, तेल (पेट्रोलियम) और प्राकृतिक गैस खोजी गईं और उनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा। कार्बन युक्त जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होने लगी। कार्बन डाईऑक्साइड ग्रीनहाउस गैस का एक उदाहरण है जो सूरज की रोशनी को तो धरती पर आने देती है लेकिन पृथ्वी और समुद्रों से निकली गर्मी को वापिस आकाश में लौटने नहीं देती। (एक सरल उदाहरण के ज़रिए समझते हैं कि जब एक कार सूरज की रोशनी में खड़ी है और उसके कांच चढ़े हुए हैं, तब सूरज की रोशनी कार के अंदर तो आ सकती है लेकिन वापस बाहर जाने वाली गर्मी कांच के चढ़े होने की वजह से अंदर ही बनी रहती है। यही प्रभाव ग्रीनहाउस में भी इस्तेमाल होता है जहां पौधे और सब्ज़ियां ठंडी जलवायु में उगाई जाती है। इसे ही ग्रीनहाउस प्रभाव कहा जाता है।)
इन सालों के दौरान उद्योगों, यातायात और अन्य उपयोगों से कार्बन डाईऑक्साइड की एक बड़ी मात्रा जमा होती गई है। यह गैस पृथ्वी से पलायन नहीं कर सकती (पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड दूर नहीं जा सकती जबकि हाइड्रोजन या हीलियम जैसी हल्की गैसें अंतरिक्ष में पलायन कर जाती हैं।) इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के चलते पर्यावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 280 पीपीएम से बढ़कर आज 413 पीपीएम हो चुका है। नतीजतन, पिछले दो दशकों में धरती की सतह का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। इसी कारण ग्लेशियरों का पिघलना शु डिग्री हुआ और प्रति वर्ष समुद्र के जल स्तर में 3.2 मि.मी. की बढ़ोतरी हो रही है। (दरअसल द्वीप राष्ट्र मालदीव समुद्र स्तर के बढ़ने से बहुत चिंतित है क्योंकि निकट भविष्य में उसके कुछ द्वीप डूब सकते हैं। वास्तव में उसने ऑस्ट्रेलिया से पूछा है कि क्या वह ज़मीन खरीदकर वहां बसने के बारे में सोच सकता है।)
ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओज़ोन, मीथेन......) के कारण समुद्रों और भूभागों की गर्मी बढ़ने के साथ-साथ प्लास्टिक और उसका मलबा धरती और समुद्र में बिखरे हुए हैं। प्लास्टिक प्रदूषण हाल ही की घटना है। इसके साथ ही मानव जनसंख्या सन 1850 में 1.2 अरब से बढ़ते-बढ़ते आज 7 अरब हो गई है। इसके कारण जंगलों और जंतुओं का विनाश हुआ और इसने भीड़भाड़ और सम्बंधित समस्याओं को जन्म दिया है।
क्या किसी गैस की वजह से पृथ्वी की जलवायु में इस तरह की विशाल उथल-पुथल पहली बार हुई है? इसी तरह की घटना बहुत पहले घटी थी, जिसे ऑक्सीजन संकट (या महान ऑक्सीकरण घटना) कहते हैं। यह 2.4 अरब वर्ष पहले घटी थी। उस समय पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया कहलाने वाले जीवाणुओं का समूह बहुत प्रचुर मात्रा में था जिन्होंने प्रकाश संश्लेषण शु डिग्री किया था। इस प्रक्रिया में ये जीवाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का इस्तेमाल करते थे और अपशिष्ट पदार्थ के रूप में ऑक्सीजन गैस छोड़ते थे। सायनोबैक्टीरिया प्रजनन बहुत तेज़ी से करते हैं (हर 30 मिनिट में एक से दो हो जाते हैं)। इसके चलते पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत अधिक हो गई थी। इसमें से कुछ पृथ्वी के कार्बनिक पदार्थ और लौह द्वारा स्थिर हो जाती थी लेकिन बची हुई ‘ज़हरीली’ गैस का प्रतिशत हवा में 20 प्रतिशत तक हो गया था। इसने कई जीवधारियों को जलाकर भस्म कर दिया था और काफी लंबे समय के बाद, लगभग 50 करोड़ साल बाद, ही इस ऑक्सीजन का इस्तेमाल करने में समर्थ जीवों (एरोबिक जीवों) का प्रादुर्भाव हुआ था।
अलबत्ता, हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है और हमें बहुत तेज़ी से जीवाश्म ईंधनों, प्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार अन्य पदार्थों में कटौती करना होगा। हालांकि कई निहित स्वार्थ आज भी यह मानने से इन्कार करते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसके लिए जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल ज़िम्मेदार है। हमें कम-से-कम अब तो समझदारी दिखाना चाहिए और अपनी धरती मां की और अधिक क्षति रोकने के कठोर प्रयास करने चाहिए। हर छोटा से छोटा प्रयास महत्वपूर्ण है क्योंकि बूंद-बूंद से घट भरता है। (स्रोत फीचर्स)