“उपभोक्ताओं को लगता है कि जीवाणु-रोधी साबुन और हैण्ड-वॉश सामान्य साबुनों के मुकाबले कीटाणुओं से बचाव में ज़्यादा कारगर हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ये सामान्य साबुन से बेहतर होते हैं। दरअसल प्रमाण तो यह दर्शाते हैं कि ऐसे साबुन फायदे की बजाय नुकसान ज़्यादा करते हैं।” यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन की जेनेट वुडकॉक का यह कथन इस संदर्भ में आया है कि अमेरिका में ऐसे साबुनों व अन्य सौंदर्य प्रसाधन सामग्री पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया है। भारत में भी ऐसे साबुन और हैण्ड-वॉश काफी संख्या में बिकते हैं और इनका विज्ञापन भी ज़ोर शोर से किया जाता है।
वास्तव में यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने एंटीबैक्टीरियल साबुनों में इस्तेमाल किए जाने वाले 19 रसायनों पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है। इनमें से एक प्रमुख रसायन ट्रिक्लोसैन है जिसका उपयोग सर्वाधिक साबुनों, टुथपेस्टों, डियोडोरेंट और क्रीम्स में किया जाता है।
ट्रिक्लोसैन का उपयोग 1960 के दशक में सिर्फ अस्पतालों में इस्तेमाल के लिए शु डिग्री किया गया था। मगर धीरे-धीरे सफाई के प्रति जुनून के चलते इसका उपयोग आम उपभोक्ता वस्तुओं में होने लगा। 2010 में एक गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डीफेंस कौंसिल ने मांग की कि ट्रिक्लोसैन के लाभों और ज़ोखिमों का आकलन किया जाए।
सवाल है कि 1970 से लेकर 2010 के बीच के चार दशकों का अनुसंधान क्या दर्शाता है। जहां तक मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव का सम्बंध है, परिणाम मिले-जुले रहे हैं। मगर अनुसंधान से एक बात स्पष्ट नज़र आती है कि ट्रिक्लोसैन युक्त साबुन किसी भी तरह से साधारण साबुन से बेहतर नहीं हैं।
अनुसंधान से यह भी पता चला है कि ट्रिक्लोसैन युक्त साबुन और हैण्ड-वॉश एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को गंभीर बना सकते हैं। जहां साधारण साबुन मात्र इतना करते हैं कि सूक्ष्मजीवों को हाथ से हटा देते हैं, वहीं ट्रिक्लोसैन उन्हें मारता है। ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि ट्रिक्लोसैन बैक्टीरिया की उस प्रक्रिया को निशाना बनाता है जिस पर टीबी की दवा आइसोनिएज़िड भी क्रिया करती है। यदि ट्रिक्लोसैन के अत्यधिक उपयोग से बैक्टीरिया में प्रतिरोध विकसित हुआ तो टीबी का बैक्टीरिया भी प्रतिरोध हो जाएगा। प्रयोगशालाओं में ट्रिक्लोसैन के प्रति प्रतिरोध विकसित होते देखा भी जा चुका है।
जंतुओं पर किए गए प्रयोगों में पता चला है कि ट्रिक्लोसैन हारमोन की क्रिया पर असर डाल सकता है, एलर्जी पैदा कर सकता है और कैंसर भी पैदा कर सकता है। यानी नुकसान की गुंजाइश तो है। यह भी देखा गया है कि ट्रिक्लोसैन त्वचा को पार करके शरीर में प्रवेश कर सकता है। एक अध्ययन के मुताबिक 75 प्रतिशत अमरीकियों के पेशाब में ट्रिक्लोसैन पाया गया है।
यह भी देखा गया है कि ट्रिक्लोसैन पानी के ज़रिए पर्यावरण में भी प्रवेश करता है और कई हानिकारक प्रभाव दर्शाता है। ट्रिक्लोसैन के अंश झीलों, तालाबों और समुद्र में पाए गए हैं।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ट्रिक्लोसैन युक्त साबुन जीवाणुओं से सुरक्षा की दृष्टि से कोई लाभ नहीं पहुंचाते और इनके संभावित हानिकारक प्रभाव हैं। इसलिए खाद्य व औषधि प्रशासन ने इन पर जनवरी 2017 से प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है। मगर इस बीच उद्योगों ने इसके एवज में नए-नए रसायनों का प्रयोग शुरु कर दिया है। उम्मीद की जा रही है कि खाद्य व औषधि प्रशासन इन पर भी कड़ी नज़र रखेगा। (स्रोत फीचर्स)