केंद्र सरकार ने हाल ही में 156 नियत खुराक संयोजनों (फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन ड्रग्स या एफडीसी) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगाया है। विशेषज्ञ समितियों के मुताबिक ये एफडीसी बेतुके हैं या चिकित्सा की दृष्टि से इनका कोई औचित्य नहीं हैं।
लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जून 2023 में केंद्र सरकार ने 14 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया था। और 2016 से अब तक लगभग 500 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। ये प्रतिबंध क्यों?
लेकिन पहले यह देखते हैं कि एफडीसी औषधियां या नियत खुराक संयोजन क्या हैं? नियत खुराक संयोजन (एफडीसी) ऐसी औषधियां होती हैं जिसमें एक गोली, कैप्सूल, या शॉट में दो या दो से अधिक औषधियां या दवाएं एक साथ होती हैं। उदाहरण के लिए, पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन। यदि पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन को मिलाते हैं तो यह एक एफडीसी है, यह संयोजन कॉम्बिफ्लेम में होता है। किसी समय में हमारे यहां एक-एक एफडीसी में 10-10 दवाओं का मिश्रण हुआ करता था और आज भी ऐसी दवाइयां प्रचलन में है, जिनकी वास्तव में कोई ज़रूरत न तब थी और न आज है।
एक सवाल यह उठता है कि सिर्फ भारत में इतने बेतुके दवा संयोजन देखने को क्यों मिलते हैं? दरअसल 70, 80 और 90 के दशक में, भारत विश्व के (कम से कम विकासशील विश्व के) लिए ‘दवा सप्लायर’ बनने की राह पर था और आज भी है और खूब प्रगति कर रहा था। उस समय देश में औषधि निर्माण के कायदे-कानून इतने सख्त नहीं थे जितने सख्त होने चाहिए थे। दवा निर्माताओं ने इसका फायदा उठाया। कैसे?
भारत में नई दवा को बाज़ार में लाने की सामान्य प्रक्रिया यह है कि किसी भी नई औषधि के लिए आवेदन और ज़रूरी जानकारी केंद्र सरकार के संगठन, सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (CDSCO), को दिया जाता है। CDSCO की विशेषज्ञ समिति इस पर विचार करके इसे मंज़ूर (या नामंज़ूर) करती है। CDSCO से मंज़ूरी मिल जाने के बाद, दवा निर्माता को इस दवा निर्माण के लिए राज्य लायसेंसिंग अधिकारी से लायसेंस प्राप्त करना होता है। लायसेंस मिलने के बाद ही उसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है।
अब, 70-80-90 के दशक में हुआ यह कि कई निर्माता केंद्रीय प्राधिकरणों से इनकी जांच-परख कराने और मंज़ूरी लेने की ज़हमत उठाने की बजाय लाइसेंस के लिए सीधे लायसेंसिंग प्राधिकरण के पास चले जाते थे। वास्तव में, राज्य लायसेंसिंग प्राधिकरण को पूछना चाहिए था कि क्या आपको केंद्रीय प्राधिकरण से मंज़ूरी मिल गई है? लेकिन वे नहीं पूछते थे। तो, निर्माताओं ने इस ढीले-ढाले रवैये का फायदा उठाया और अपनी मनचाही औषधियों का निर्माण किया। और इस तरह जांच-परख के अभाव में कई बेतुकी और बिना किसी औचित्य की दवाएं बाज़ार में आ गईं।
चूंकि तब भारतीय फार्मा उद्योग खूब फल-फूल रहा था, जो अभी भी उत्तरोत्तर बढ़ ही रहा है, इसलिए इतनी सारी औषधियां बाज़ार में लाने को एक जश्न की तरह देखा गया। और इस तरह दवा निर्माता अधिकाधिक औषधियां बाज़ार में लाते गए।
वे सिर्फ शॉर्टकट से अत्यधिक औषधियां नहीं लाए, बल्कि उन्होंने कई विवादास्पद दावे भी किए। जैसे एफडीसी में आपको एक से अधिक ऐसी दवाइयां मिलेंगी जो आपके लिए बेहतर है। लेकिन किसी ने उन दावों पर सवाल नहीं उठाए। और तो और, (कुछ भले लोगों को छोड़कर) डॉक्टरों, चिकित्सा पेशेवरों, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे ज़िम्मेदार समूहों तक ने इन पर सवाल नहीं उठाए।
बाज़ार में एफडीसी की बाढ़ लाने में एक कारण कीमत भी है। दरअसल, एफडीसी औषधियां बनाकर निर्माता (एकल) औषधियों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम मूल्य से बच निकलते हैं। फिलहाल, भारत में राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची (NLEM) में शामिल 384 दवाइयां मूल्य नियंत्रण के दायरे में हैं। लेकिन 80-90 के दशक में, बहुत कम औषधियां मूल्य नियंत्रण के अधीन थीं; बाज़ार में मौजूद कुल औषधियों में से लगभग 5-10 प्रतिशत। आज भी यह अधिक से अधिक 20 प्रतिशत है।
अब यदि निर्माता NLEM में शामिल औषधि के मूल्य नियंत्रण से बचना चाहते हैं तो रास्ता आसान है; औषधि में कैफीन जैसी कोई चीज़ जोड़कर इसके निर्माण के लिए अनुमोदन ले लिया जाए। यह मिश्रण दवा मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाएगी।
इसके अलावा, यदि पैरासिटामॉल की 500 मि.ग्रा. की गोली NLEM सूची में है, तो निर्माता इसका पैरासिटामॉल 501 मि.ग्रा. संस्करण बनाकर मूल्य नियंत्रण से बाहर निकल सकते हैं। क्योंकि मूल्य नियंत्रण सिर्फ औषधियों की विशेष शक्ति पर लागू होता है। इसका वास्तविक उदाहरण है बाज़ार में मौजूद पैरासिटामॉल 1000 मि.ग्रा.। पैरासिटामॉल का यह अनुचित डोज़ है, लेकिन इसे मंज़ूरी मिली हुई है, बाज़ार में उपलब्ध है और यह मूल्य नियंत्रण से बाहर है। तो, बस खुराक बदलकर, या एक या अधिक सामग्री जोड़कर निर्माता इसे एक नई दवा कहते हैं और मूल्य नियंत्रण से बच निकलते हैं।
सिर्फ इतना ही नहीं, दवा निर्माता अपनी महंगी दवाइयों को खरीदने के लिए लोगों को बेतुके तर्क देकर बरगलाते भी हैं। जैसे वे इन महंगी दवाओं को यह कहकर बेचते हैं कि हम आपको एक से अधिक समस्याओं के लिए एक साथ दो दवाएं दे रहे हैं।
सवाल उठता है कि आखिर क्या एफडीसी कभी उपयुक्त भी होते हैं या हमेशा बेतुके होते हैं?
ऐसा नहीं हैं। कुछ मामलों में एफडीसी उपयोगी होते हैं। जैसे तब जब उनमें उपस्थित घटक लगभग हमेशा साथ-साथ देना ज़रूरी होता है। जीवन रक्षक घोल (ओआरएस) एक उदाहरण है। इसमें मिलाए गए घटक डीहायड्रेशन कम करने, दस्त की रोकथाम वगैरह में ज़रूरी हैं। इसके अलावा, कई घटक एक-दूसरे की क्रिया में मददगार होते हैं। इस स्थिति में इन्हें सिनर्जिस्टिक कहते हैं। यदि किसी एफडीसी के घटक सिनर्जिस्टिक हैं तो उसे तर्कसंगत कहा जा सकता है।
फिर, एफडीसी के घटकों की जैव-उपलब्धता (bioavailability) पर विचार करना होगा। यानी यदि दो या दो से अधिक औषधियां सम्मिलित रूप में परोसी जा रही हैं तो उन्हें लगभग एक ही समय में रक्त में चरम पर होना चाहिए। लेकिन अधिकांश एफडीसी में शामिल दवाइयों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए, ऐसे मिश्रण तर्कहीन हैं।
वास्तव में, NLEM, 2022 में तकरीबन 384 ज़रूरी दवाइयों में से केवल 22 एफडीसी ही इस सूची में है। चूंकि ये NLEM में है, इसलिए इन 22 एफडीसी को तर्कसंगत माना जा सकता है।
एक अनुमान है कि लगभग 800-900 अणु औषधीय उपयोग के लिए उपलब्ध हैं। इनमें से कई औषधियों के निर्माण आदि सम्बंधी जानकारी एवं इनकी गुणवत्ता की जांच के तरीके भारतीय फार्माकोपिया व अन्य बेहतर नियंत्रित देशों के फार्माकोपिया में वर्णित हैं। एकल घटक औषधियों की गुणवत्ता या कारगरता परख के लिए अधिकतम 20 मानदंड हैं जिन पर खरा उतरना आवश्यक है। लेकिन यदि दो या अधिक घटकों का संयोजन कर दिया जाता है, तो हमारे पास इन संयोजनों की गुणवत्ता या कारगरता को जांचने-परखने के कोई मानक मानदंड नहीं है, क्योंकि इनका फार्माकोपिया में कोई उल्लेख नहीं है। नतीजा, एफडीसी के निर्माता ही हमें संयोजन के परीक्षण के तरीके बताते हैं। इन पर निगरानी रखने वाले विशेषज्ञों के पास इन तरीकों को जांचने के लिए न तो समय होता है और न ही सुविधा। नतीजतन, इन एफडीसी औषधियों की गुणवत्ता और कारगरता के बारे में कुछ कहना जटिल मामला हो जाता है। और फिर, किसी ने इन पर पर्याप्त शोध भी नहीं किए हैं। NLEM में शामिल 22 संयोजनों पर ही पर्याप्त शोध हुए हैं।
उपरोक्त कारणों से बाज़ार में तर्कहीन एफडीसी की भरमार है। इनमें एंटीबायोटिक्स, दर्दनिवारक या मधुमेह-रोधी इत्यादि के संयोजन भी मौजूद हैं। जैसे, एंटीबायोटिक और दर्दनिवारक, एंटीबायोटिक और एंटी-कोलेस्ट्रॉल, एंटीबायोटिक और एंटी-ब्लडप्रेशर, इत्यादि। ये एफडीसी अलग-अलग उपचारात्मक वर्ग की औषधियों के मिश्रण हैं।
होता यह है कि (एफडीसी की भरमार के कारण) कई बार कोई रोगी दो, तीन या दस दवाओं के संयोजन वाली औषधि खा रहा होता है, जबकि उसे सिर्फ एक ही औषधि की ज़रूरत थी। जैसे, लोग दर्द के लिए कॉम्बिफ्लेम (पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन का संयोजन) लेते हैं। जबकि दर्द के लिए आपको सिर्फ पैरासिटामॉल की ज़रूरत है, इबुप्रोफेन की नहीं है। इसलिए, जब आप दर्द में कॉम्बिफ्लेम ले रहे हैं, तो आपको इबुप्रोफेन के प्रतिकूल प्रभाव होते हैं। इसी तरह, जब आप एफडीसी के चलते बेवजह पैरासिटामॉल खाते हैं तो लीवर की क्षति और अन्य समस्याएं हो सकती हैं। अनावश्यक रूप से ज़्यादा दवाएं खा लेने के अपने साइड-इफेक्ट और प्रतिकूल प्रभाव होते हैं। इसलिए एफडीसी रोगी के जीवन को जटिल बना रही हैं।
अब थोड़ा बाज़ार में इनकी बिक्री की स्थिति देखते हैं। एक आंकड़ा है कि भारत में दवाओं की कुल बिक्री का लगभग 50 प्रतिशत एफडीसी हैं और 50 प्रतिशत एकल घटक दवाएं हैं। ऐसा पाया गया है कि इस 50 प्रतिशत एफडीसी में से आधी बिक्री तो तर्कसंगत एफडीसी की है और शेष तर्कहीन एफडीसी की। यानी बाज़ार में कम से कम 25 प्रतिशत तर्कहीन एफडीसी बिक रही हैं।
वर्तमान में, भारत में औषधियों का बाज़ार लगभग 2 लाख करोड़ (2 ट्रिलियन) रुपए का है। इसमें से 25 प्रतिशत यानी 50,000 करोड़ रुपये तर्कहीन एफडीसी की खपत से आते हैं। यदि इन्हें बाज़ार से हटा दिया तो ज़ाहिर है, दवा की बिक्री में भारी गिरावट आएगी। बाज़ार तो इन दवाओं के हटाने तो तैयार नहीं होगा, न ही शेयरधारक क्योंकि उन्हें अपने निवेश पर रिटर्न चाहिए।
तर्कहीन एफडीसी को बाज़ार से हटाने के लिए ज़रूरत है सरकार के स्तर पर उचित कार्रवाई की, उचित प्रक्रिया अपनाने की और सख्त नियम-कानून लागू करने की और उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की।
यदि पहले से ही दवाओं का निर्माण उचित मंज़ूरी प्रक्रिया से गुज़रा होता और ऐसा न होने पर कंपनियों पर सख्त दंड लगाया गया होता तो यह नौबत न होती। बस कुछ-कुछ समय के अंतराल में तर्कहीन दवाएं ढूंढकर उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। होता यह है कि दवा कंपनियां इन प्रतिबंधों को निरस्त करवाने या स्थगन आदेश के लिए न्यायालय जाती हैं और न्यायालय की कार्रवाई में सालों-साल बीत जाते हैं। तब तक ये बेतुकी दवाइयां बाज़ार में बिकती रहती हैं। दरअसल, इस मामले में औषधि नियामकों और दवा उद्योग, दोनों को दोषी माना जाना चाहिए।
ऐसा ही मार्च 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियुक्त कोकते कमेटी द्वारा 344 एफडीसी पर लगाए गए प्रतिबंध का मामले में हुआ था। कोकते समिति ने करीब 6000 एफडीसी की जांच की थी। समिति ने इन एफडीसी को चार श्रेणियों में डाला था। पहली श्रेणी में 344 एफडीसी थीं जो निश्चित रूप से तर्कहीन थीं और इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को कहा गया था (मार्च 2016)।
दूसरी श्रेणी में ऐसी औषधियां थीं जिन पर अधिक डैटा की आवश्यकता थी। और कंपनियों को इन पर अधिक डैटा प्रस्तुत करने के लिए समय दिया गया। तीसरी श्रेणी तर्कसंगत एफडीसी की थी। वे उचित कागज़ी कार्रवाई के बाद इनका निर्माण विपणन जारी रख सकती थीं। और चौथी श्रेणी में, वे एफडीसी थीं जिनकी तर्कसंगतता के बारे में कुछ कहने से पहले विपणन-पश्चात निगरानी, परीक्षण आदि की आवश्यकता थी।
लेकिन कंपनियां एकदम तर्कहीन 344 एफडीसी के मामले में तुरंत न्यायालय चली गईं। न्यायालय ने सरकार को दोबारा जांच समिति बनाने का निर्देश दिया ताकि दवा उद्योग की राय पर फिर से विचार किया जा सके। डॉ. नीलिमा क्षीरसागर की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने भी सितंबर 2018 में प्रतिबंध को जायज़ ठहराया। लेकिन कंपनियां फिर से अदालत पहुंच गईं। कंपनियां झुकने को तैयार नहीं होती हैं, भले ही उन्हें पता होता है कि दवाओं पर जो प्रतिबंध लगे हैं वे एकदम सही हैं। कुछ को लगता है तर्कहीन एफडीसी से अच्छा मुनाफा मिलता है इसे हाथ क्यों जाने दें, इसलिए केस लड़ती हैं। साथ में वकीलों को लाभ होता है। मुकदमा चलता रहता है और प्रतिबंधित एफडीसी बाज़ार में बिकती रहती हैं। प्रसंगवश यह बताया जा सकता है कि 2016 में हाई कोर्ट और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में इन कंपनियों की पैरवी देश के नामी-गिरामी वकीलों ने की थी। ताज़ा आदेश के सिलसिले में भी कंपनियां कोर्ट से कुछ राहत पाने में सफल रही हैं।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में निगरानी व्यवस्था अपर्याप्त है, और जो कुछ है उसका पालन घटिया दर्जे का है। और इसलिए कंपनियां जो चाहें कर रही हैं। वर्तमान में देखें तो हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के पास एक अच्छी दवा नीति है, जो उन्होंने 1982 में लागू की थी। उन्होंने बहुत सी तर्कहीन दवाइयों को हटा दिया था। वहां सामान्यत: केवल तर्कसंगत एकल घटक वाली दवाइयां ही उपलब्ध होती हैं। तो, जहां चाह है, वहां राह है है। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के श्रीनिवासन से दी हिंदू की बातचीत पर आधारित है