मई, 2024 में नेचर पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था: ‘सुमात्रा के एक नर ओरांगुटान द्वारा जैविक रूप से सक्रिय पौधे से चेहरे के घाव का सायास स्व-उपचार' (‘Active self-treatment of a facial wound with a biologically active plant by a male Sumatran orangutan’)।
इस शोधपत्र में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर की इसाबेल लॉमर और उनके साथियों ने बताया था कि इंडोनेशिया में इस प्रायमेट जंतु ने किस तरह एक स्थानीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया का लुग्दीनुमा लेप बनाया और इसे अपने चेहरे के घाव पर लगाकर घाव का इलाज किया।
इसी तरह 2012 में नेचर पत्रिका में मैट कापलान ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था: ‘(स्वस्थ रहने के लिए) निएंडरथल हरी पत्तेदार सब्ज़ियां खाते हैं' (Neanderthals ate their greens)। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उत्तरी स्पेन के कुछ निएंडरथलों के दांतों के प्लाक का विश्लेषण किया और पाया कि वे संक्रमण वगैरह से निजात पाने और सामान्य स्वास्थ्य के लिए येरो (संभवत: सहस्रपर्णी) और कैमोमाइल जैसे पौधों का इस्तेमाल करते थे।
ऐसे कई पौधों का इस्तेमाल दुनिया भर के लोगों द्वारा पारंपरिक चिकित्सा में, संक्रमण से उबरने के लिए और स्वस्थ रहने के लिए किया जाता है। मार्च 2009 के रेज़ोनेंस के अंक में आर. रमन और एस. कंदुला की एक विस्तृत समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जो बताती है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद डी. एच. जैनज़ेन ने एक शब्द गढ़ा था ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी'। (यानी जंतुओं द्वारा औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों, कीटों या मिट्टी से स्वयं का उपचार करने का व्यवहार)। डी. एच. जैनज़ेन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उन जंतुओं की सूची तैयार की थी जो विशिष्ट पौधों, मिट्टी या कीटों को खाकर या उनका लेप लगाकर खुद का उपचार कर लेते हैं।
ब्राज़ील के बाहिया के डॉ. ई. एम. कोस्टा-नेटो ने 2012 में एनवायरमेंटल साइंस, बायोलॉजी में ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी: जानवरों का स्व-उपचार का व्यवहार’ (Zoopharmacognosy: the self-medication behaviour of animals)' शीर्षक से, और बाल्टीमोर के जोएल शर्किन ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में कई ऐसे पौधों और उनकी जड़ों, पत्तियों और फलों की सूची प्रकाशित की है जिन्हें वानर, बंदर, बारहसिंगा, भालू और कुछ पक्षी (स्टारलिंग) स्वस्थ रहने के लिए खाते हैं। कुत्ते पेट के संक्रमण से छुटकारा पाने के लिए घास खाकर और उसे उल्टी करके खुद को ठीक करते हैं। गर्भवती लीमर दूध बनने में सहायता के लिए इमली के पत्ते कुतरती हैं, और केन्या में गर्भवती हथिनी प्रसव को शुरू करने के लिए बोरागिनेसी कुल के कुछ पौधों की पत्तियां खाती हैं।
रोमन प्रकृतिविद प्लिनी ने 2000 वर्ष पहले बताया था कि कई जानवरों ने कुछ पौधों के चिकित्सीय/औषधीय गुण खोजे थे, जो स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान बन गया। इनमें से कई औषधीय पौधों के बारे में अफ्रीका, मिस्र, मध्य पूर्व, भारत और चीन में 3000 से अधिक वर्ष पहले से पता है, और आज भी इनका उपयोग किया जाता है।
पारंपरिक दवाएं
सुमात्रा के ओरांगुटान द्वारा घाव भरने में इस्तेमाल किए जाने वाले औषधीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया में शोथ-रोधी अणु बर्बेराइन होता है। इस पौधे का स्थानीय नाम ‘अकर कुन्यी’ है, और इसका उपयोग वहां की पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है। दक्षिणी उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, इसी पौधे जैसा कनेर (ओलिएंडर) पौधा मिलता है, जिसका उपयोग पीलिया के उपचार में किया जाता है। भारत में और एशिया व अफ्रीका के कई हिस्सों में पाई जाने वाले ग्वारपाठा (एलो वेरा) में रोगाणु-रोधी, शोध-रोधी और घाव भरने वाले गुण होते हैं।
कई सभ्यताओं ने हज़ारों वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों को समझा है/दर्ज किया है और उनका उपयोग किया है। चीन में पिछले 5000 वर्षों से झोंग्यी प्रणाली है, अरेबिया 4000 वर्षों से है और भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली 5000 वर्षों से है। इन सभी में उपचार के लिए विभिन्न पौधों, फलों और जड़ों का उपयोग किया जाता है। जैसे सर्पगंधा (Rauwolfina serpentina), तुलसी, एलो वेरा, जंगली लहसुन, प्याज़, अजवायन, आर्टिचोक, कपूर, नारियल और अरंडी का तेल। च्यवनप्राश भारत में लोकप्रिय है; इसको बनाने का एक नुस्खा लगभग 700 ईसा पूर्व से चरक संहिता में दर्ज है। अब हम नए प्राकृतिक उत्पाद अणुओं के बारे में बताने के लिए जैव रसायनज्ञों और दवा कंपनियों से उम्मीद रखते हैं। (स्रोत फीचर्स)