जानवरों के विपरीत, पेड़-पौधे अपने शिकारियों से बचने के लिए भाग नहीं सकते - वे बस एक ही जगह जड़ खड़े रहते हैं। इसलिए पेड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए खुद को असंख्य रासायनिक ‘हथियारों' से लैस किया है।
वैसे तो अपनी जगह से हिल-डुल न पाने के कारण समूचे पेड़-पौधे ही अपने शिकारियों से असुरक्षित होते हैं लेकिन पेड़-पौधों के वे हिस्से जो ज़मीन के नीचे होते हैं, हमलावरों से विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं। इनके भूमिगत खतरों की सूची लंबी है - बैक्टीरिया, कवक, कृमि, इल्लियां, घोंघे, चूहे आदि इस सूची में शामिल हैं। अचरज न होगा कि सुरक्षा के लिए प्याज़ और लहसुन जैसे पौधों ने हर संभव तरह के सुरक्षा रसायनों से खुद को लैस किया है। ये अपनी भूमिगत गाँठों (बल्बों) में भावी विकास के लिए भोजन (पोषण) संग्रहित करते हैं।

तेईस सौ रसायन
हाल ही में, बहुत ही सूक्ष्म रासायनिक विश्लेषण करने वाले उपकरणों की मदद से पड़ताल करने पर पता चला है कि लहसुन की कलियों (या फांकों) में 2300 से अधिक रसायनों की ‘आणविक फौज’ मौजूद होती है। इनमें से अधिकांश रसायनों की उपस्थिति का कारण हम अब तक समझ नहीं पाए हैं। इनमें से बमुश्किल 70 रसायन ही वर्तमान के पोषण चार्ट में शामिल हैं। लहसुन इनमें से तीन पोषक तत्वों से मुख्य रूप से लबरेज़ है: मैंग्नीज़, सेलेनियम और विटामिन बी-6।
लहसुन के कई अन्य घटक – जैसे थायोसल्फिनेट्स, लेक्टिन, सैपोनिन और फ्लेवोनॉइड्स - मनुष्यों में सुरक्षात्मक भूमिका निभा सकते हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि मनुष्यों ने लंबे समय से अपने आहार में लहसुन को शामिल किया है। 4000 साल पुरानी सुमेरियन मृदा तख्तियों में लहसुन के व्यंजनों का उल्लेख मिलता है। और कई संस्कृतियों में लहसुन का उपयोग, पौष्टिक महत्व से परे, औषधीय गुणों के चलते किया जाता है।

भारत में
आयुर्वेद में, लहसुन वाला गर्म दूध (लहसुन क्षीरपाक) सांस सम्बंधी समस्याओं - जैसे दमा, खांसी, सर्दी-ज़ुकाम - में फायदेमंद माना जाता है, साथ ही यह शक्तिवर्धक भी माना जाता है। इसी तरह, लहसुनी पानी का उपयोग टॉनिक के रूप में किया जाता है: यह पाचन सम्बंधी एंज़ाइमों के स्राव को उकसा कर पाचन में सुधार करता है, और इसके वातहारी गुण गैस बनने की समस्या को कम करते हैं।
लहसुन एवं सम्बंधित प्रजातियों के अन्य मसालों की खासियत है इनकी तीखी महक। यह महक इनमें सल्फर युक्त यौगिक से आती है। लहसुन की खास महक एलिसिन (Allicin) नामक रसायन से आती है। लेकिन साबुत लहसुन या उसकी साबुत कली में एलिसिन मौजूद नहीं होता है। एलिसिन तो लहसुन में तब बनता है जब उसमें मौजूद एलिनेज़ (Alliinase) नामक एंज़ाइम गंधहीन एलीन (Alliin) से क्रिया करता है; जब हम लहसुन को काटते, कूटते, कुचलते या चबाते हैं तब ये दोनों (एलिनेज़ और एलीन) संपर्क में आते हैं और उनकी परस्पर क्रिया के फलस्वरूप एलिसिन बनता है। 
एलिसिन, ट्राइजेमिनल (trigeminal) तंत्रिका में संवेदी न्यूरॉन्स पर पाए जाने वाले ग्राहियों के साथ जुड़ता है। ये ग्राही मुंह और नाक की संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं। लहसुन की तीखी महक ग्राहियों से इसी जुड़ाव का नतीजा है।
एलिसिन और लहसुन के अन्य घटक जैसे डायलिल डाईसल्फाइड शोथ को प्रभावित करते हैं। इसके लाभकारी प्रभावों में रक्तचाप का नियंत्रण और हृदय सम्बंधी स्वास्थ्य का ख्याल रखना शामिल हैं। एक अन्य घटक, फ्लेवोनॉइड ल्यूटिओलिन, एमिलॉयड बीटा प्लाक के बनने को और उसके एक जगह जुटने को रोकता है; एमिलॉयड बीटा प्लाक का जमघट अल्ज़ाइमर रोग की प्रमुख निशानी है।
लहसुन पर केंद्रित शोध भविष्य में लहसुन में पाए जाने वाले कई अन्य रसायनों की भूमिकाओं को उजागर कर सकते हैं। संभव है कि इनमें से कुछ रसायन, अकेले ही या किसी अन्य रसायन के साथ, मानव स्वास्थ्य की बेहतरी में योगदान देते हों। लेकिन वर्तमान में हमें यह मालूम है कि लाभ के लिए हमारे आहार में लहसुन का संतुलित मात्रा में उपयोग महत्वपूर्ण है, ताकि इसकी अति के चलते होने वाले सीने में जलन और दस्त जैसे दुष्प्रभावों से बचा जा सके। कुछ चिकित्सकों का कहना है कि हर दिन चार ग्राम सही मात्रा है।
भारत, लहसुन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। लहसुन की बढ़िया किस्में (जैसे रियावन लहसुन) मध्य प्रदेश के नीमच और रतलाम से आती हैं; मध्य प्रदेश लहसुन का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। दक्षिण भारत में, कर्नाटक के गदग की लहसुन की स्थानीय किस्में अपने तेज़, और तीखे स्वाद और सुगंध के कारण खूब बिकती हैं। और फिर कई कश्मीरी किस्में भी हैं।
आप चाहें जिस भी किस्म के लहसुन इस्तेमाल करें, थोड़ा सा लहसुन ज़ायका बढ़ा सकता है और आपको सेहतमंद रखने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)