डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
लाखों सालों पहले आप्रवासी ‘पर्पल बैक्टीरिया’ ने पादप और जंतु कोशिकाओं की सैर की थी और माइटोकॉण्ड्रिया बनकर वहीं बस गए थे।
आजकल प्रवासी शब्द समाचारों में छाया हुआ है। लेकिन इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि मनुष्य ने ‘अफ्रीका से बाहर’ पलायन लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व करना शुरू किया था। धीरे-धीरे जब इलाके, समुदाय और राष्ट्र स्थापित हुए, तब ऐसे ‘राष्ट्रों’ में किसी ‘विदेशी’ जगह या समूह से आने के आधार पर प्रवेश की स्वीकृति या अस्वीकृति की बातें होने लगीं। यह इस बात पर निर्भर था कि आप्रवासी स्थानीय लोगों के ‘मूल्य’ में इज़ाफा करेंगे या गिरावट लाएंगे।
जीव विज्ञान में यह प्रक्रिया एक-कोशिकीय स्तर पर भी लगभग 2.5 से 3 अरब वर्षों से चली आ रही है और आज भी जारी है। रोगजनकों से संक्रमणों की बात तो जाने दें; ये आप्रवास मददगार भी साबित हुए हैं। उन शुरुआती वर्षों में मददगार आप्रवास के दो उत्कृष्ट उदाहरण माइटोकॉण्ड्रिया और क्लोरोप्लास्ट हैं।
क्लोरोप्लास्ट कोशिकाओं के अंदर मिनी-कोशिकाएं होती हैं जिसमें उसकी अपनी आनुवंशिक सामग्री होती है। इसमें सूरज की रोशनी को अवशोषित करके इसका इस्तेमाल वायुमंडल की कार्बन डायऑक्साइड और पानी से ग्लूकोज़ और ऑक्सीजन गैस का निर्माण करने की क्षमता होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये साइनोबैक्टीरिया नामक प्राचीन कोशिकाओं से (3.5 अरब वर्ष पूर्व) उत्पन्न हुए और फिर पादप कोशिकाओं में ही बस गए। इसी आप्रवास के चलते हवा में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़कर 20 प्रतिशत हो गई। वही ऑक्सीजन जिसके बिना हम ज़िन्दा नहीं रह सकते। इस घटना को ‘ऑक्सीजन क्रांति’ कहते हैं।
पॉवरहाउस
लगभग इसी समय या शायद इसके कुछ समय बाद एक अन्य प्राचीन जीव-रूप की उत्पत्ति हुई थी जो पर्पल बैक्टीरिया से उत्पन्न हुआ था और पादप और जंतु कोशिकाओं दोनों में जा बसा। यह है माइटोकॉण्ड्रिया। माइटोकॉण्ड्रिया की क्रिया क्लोरोप्लास्ट से उलट है। माइटोकॉण्ड्रिया ऑक्सीजन का इस्तेमाल करके अपनी मेज़बान कोशिकाओं के लिए मेटाबॉलिक ऊर्जा उत्पादन को 10 गुना तक बढ़ा देता है। (उदाहरण के लिए, जब आप तेज़ी से व्यायाम करते हैं और आपकी सांस फूल जाती है, तब आपकी कोशिकाएं ग्लूकोज़ के प्रत्येक अणु से लैक्टिक एसिड के तीन अणु उत्पन्न करती हैं, और इस प्रक्रिया में ऊर्जा की तीन इकाइयां उत्पन्न होती हैं। लेकिन जब आप गहरी सांस लेते हैं और ऑक्सीजन लेते हैं तो आपके शरीर की कोशिकाओं में उपस्थित आप्रवासी माइटोकॉण्ड्रिया इस संचित लैक्टिक एसिड को तोड़कर कार्बन डाईऑक्साइड, पानी और ऊर्जा की 30 इकाइयों का उत्पादन करता है)। इस प्रकार माइटोकॉण्ड्रिया कोशिकाओं में पॉवरहाउस का काम करते हैं। और क्लोरोप्लास्ट पौधों में सौर पैनल्स का काम करते हैं।
इस तरह के कोशिकीय आप्रवासियों का कोशिकाओं में स्वागत किया जाता है और उन्हें स्थायी निवास का परमिट दे दिया जाता है। लेकिन वे अपने साथ स्वयं का जीनोम लेकर आते हैं जिसकी मदद से वे संतान उत्पन्न करते हैं और कोशिका में अलग-थलग बस्तियों में रहते हैं जिन्हें कोशिकांग या ऑर्गेनेल कहते हैं। ये अपनी मेज़बान कोशिका को शक्ति और समृद्धि देते हैं। सभी जंतु, वनस्पति और फफूंद अपनी कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया को जगह देते हैं।
अलग-अलग कोशिकाओं में माइटोकॉण्ड्रिया की संख्या उनकी भूमिका के अनुसार अलग-अलग होती है। मांसपेशीय कोशिकाओं को अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है इसलिए उनमें माइटोकॉण्ड्रिया की संख्या अधिक होती है। दूसरी ओर, लाल रक्त कोशिकाओं में एक भी माइटोकॉण्ड्रिया नहीं पाया जाता क्योंकि इन कोशिकाओं का काम ऑक्सीजन का परिवहन मात्र होता है।
माइटोकॉण्ड्रिया के महत्व को देखते हुए, यह आश्चर्य की बात है कि हम मनुष्यों को हमारा माइटोकॉण्ड्रिया केवल अपनी मां से विरासत में मिलता है, पिता से नहीं। दूसरे शब्दों में मां ही अपनी संतानों को कोशिकाओं की ज़रूरत के लिए पावर-पैक देती है। पौधों में भी ऐसा ही होता है; क्लोरोप्लास्ट मादा ही देती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो जैव-विकास के दौरान कृमियों, फल मक्खियों, जंतुओं और मनुष्यों तक में संरक्षित रही है। इसे ‘एक-पालकीय वंशानुक्रम’ कहते हैं।
लेकिन यह क्यों और कैसे होता है? आखिर होता तो यही है ना कि अंडाणु कोशिका को शुक्राणु कोशिका द्वारा निषेचित किया जाता है। अंडाणु व शुक्राणु दोनों ही कोशिकाएं अपने साथ अपने माइटोकॉण्ड्रिया लेकर आती हैं। जब शुक्राणु कोशिका अंडे में प्रवेश करती है तो शुक्राणु के माइटोकॉण्ड्रिया को छोड़ दिया जाता है। ऐसा क्यों होता है? यह एक पहेली है जो वैज्ञानिकों को परेशान करती रही थी लेकिन हाल ही में इसे लेकर कुछ सुझाव आए हैं।
कुछ का कहना है कि स्वाभाविक रूप से केंद्रक में उपस्थित डीएनए की अपेक्षा माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए क्षति की संभावना ज़्यादा होती है। ऐसे में यदि बाहर से प्रवेश करने वाले माइटोकॉण्ड्रिया को छोड़ दिया जाता है तो मां के माइटोकॉण्ड्रिया से काम चलाया ही जा सकता है। जब भ्रूण की वृद्धि होगी तो इसकी संख्या में वृद्धि की जा सकती है। यूएसए के ओहायो स्टेट वि·ाविद्यालय के डॉ. विलियम ब्रिाडी इस समस्या पर लंबे समय से अध्ययन कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस तरह माइटोकॉण्ड्रिया (और क्लोरोप्लास्ट) के एक-पालकीय वंशानुक्रम से फायदा यह हो सकता है कि कोशिका द्रव्य में उपस्थित परजीवी के फैलाव को रोका जा सकता है और साथ ही तथाकथित स्वार्थी डीएनए की वजह से फैलने वाली त्रुटियों को भी कम किया जा सकता है।
इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के मर्डोक वि·ाविद्यालय के डॉ. जे.एम. क्युमिन्स का कहना है कि शुक्राणु में उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए को छोड़ देने से उत्परिवर्तित या क्षतिग्रस्त डीएनए को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। ग्रेनर और अन्य द्वारा की गई समीक्षा में यह बताया गया है कि शुक्राणु में उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए के हट जाने से ऑर्गेनेल्स के बीच प्रतिस्पर्धा नहीं रहती और साथ ही कोशिकांगों और नाभिकीय जीनोम आपस में नकारात्मक प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं।
कोलेरेडो विश्वविद्यालय के डॉ. डिंग ज्यू और साथियों ने इस विषय पर एक पर्चा प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने एक पारदर्शी कृमि का इस्तेमाल कर दर्शाया है कि जब पैतृक माइटोकॉण्ड्रिया किसी अंडाणु कोशिका में प्रवेश करता है तो वह जल्दी ही अपनी आंतरिक झिल्ली गंवा देता है और उसमें एक एंज़ाइम बनता है जो माइटोकॉण्ड्रिया में उपस्थित डीएनए को टुकड़े-टुकड़े कर देता है। यह एंज़ाइम कचरा निपटान प्रक्रिया में मदद करता है। (कोशिकाओं में कचरा निपटान की प्रक्रिया को स्वभक्षण और प्रोटीन-विनाश कहा जाता है)। वैसे इस मामले में अंतिम शब्द अभी कहे नहीं गए हैं किंतु लगता तो यह है कि मातृ कोशिका ही फैसला करती है कि उसके लिए बेहतर यही होगा कि जो कुछ हाथ में है उसी से काम चलाए और क्षतिग्रस्त बाहरी माइटोकॉण्ड्रिया की मदद न ले। अर्थात, मां जानती है कि क्या सही है! (स्रोत फीचर्स)