संध्या रायचौधरी
जैसे-जैसे समाज विकसित हो रहा है भाषा के मामले में हम तेज़ी से विपन्न होते जा रहे हैं। अध्ययनों के अनुसार 97 फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं। जबकि 96 फीसद भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जा रही हैं। भाषाओं की मौत का मातम सारी दुनिया मना रही है, पर हम भारतीय भाषाओं में से 196 को जल्दी ही खो देंगे, जिस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है।
भाषा का विलुप्त होना मनुष्य जाति के लिए सबसे खास बात है। जिस तरह मछली जल में रहती है, उसी तरह मनुष्य भाषा में। लेकिन भाषाओं की मौत फटाफट हो रही है। बीती सदी में कोई ऐसा दशक नहीं बीता, जिसमें किसी भाषा का अंत न हुआ हो। इसी दशक में अंडमान की एक भाषा ‘बो’ का अंत इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मृत्यु के साथ हुआ। इसके कुछ ही दिन बाद यूनेस्को ने भाषा एटलस जारी किया, जिसके मुताबिक दुनिया की करीब 6000 भाषाओं में से 2500 के लुप्त होने की आशंका है। भारत में सर्वाधिक 196 भाषाओं पर लुप्त होने का खतरा है। दूसरा स्थान अमेरिका का है जहां की 192 भाषाओं पर यह संकट है। यूनेस्को के अनुसार दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले 10-10 से भी कम लोग हैं।
भाषा की मौत का अर्थ गहरा है। इसके साथ खास संस्कृति का भी अंत हो जाता है, मनुष्यों की विशिष्ट पहचान गुम हो जाती है। भाषा का मरना दुनिया की विविधता पर भी चोट है। यह हमारे एकरंगी विश्व की ओर जाते कदम का सूचक है। दुनिया के भाषा विज्ञानी इसे लेकर सांसत में हैं। वैश्वीकरण के बाद भाषाओं के विलोप में काफी तेज़ी आई है। आज दुनिया के करीब 97 फीसदी लोग केवल चार भाषाएं बोलते हैं। इससे उलट दुनिया की 96 फीसदी भाषाएं केवल तीन फीसदी आबादी द्वारा बोली जाती है।
भाषाओं के विलुप्त होने के कारणों में मनुष्यों का प्रवास, सांस्कृतिक विलोपन, भाषा के प्रति नज़रिए में बदलाव, सरकारी नीतियां, शिक्षा का माध्यम, और रोज़गार आदि अहम हैं। वैश्वीकरण के जिस दौर में हम आज आ पहुंचे हैं, वहां एक ही तरह का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, एक ही तरह की ज़िन्दगी और एक ही तरह की भाषा का ज़ोर है।
आजकल अंग्रेज़ी सबसे अधिक थोपी जाने वाली भाषा बन गई है लेकिन ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाएं अतिक्रमण नहीं कर रही हैं। स्थानीय भाषा भी दूसरी कम प्रभावी स्थानीय भाषाओं को खा जाती है। विश्व स्तर पर अंग्रेज़ी ऐसा ही कर रही है। वैसे ऐसा आरोप हिन्दी जैसी भाषाओं पर भी लगता है, जो क्षेत्रीय भाषाओं पर नकारात्मक असर डालती हैं।
दुनिया के दो सबसे बड़े भाषा प्रेमी और विश्लेषक - प्रोफेसर डेविड हेरीसन और ग्रेगरी एंडरसन, जो नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी की भाषा विषयक परियोजना में दुनिया की खाक छान चुके हैं, ने भाषाओं के विलोपन पर काफी कुछ लिखा और बताया है। इन दोनों विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विश्व पटल से मिटने वाली हैं। प्रशांत महासागरी द्वीप समूहों, पूर्वी साइबेरिया, उत्तरी ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका का उत्तर-पश्चिमी इलाका, मध्यवर्ती दक्षिण अमेरिका भाषाई विलोपन के दृष्टिकोण से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र हैं। ये दोनों भाषा विज्ञानी कहते हैं कि भाषाओं के मिटने की दर जैव विविधता के मिटने की दर से कहीं तेज़ है। दोनों भाषाविदों ने पाया कि कुछ भाषाएं तो ऐसी थीं, जो आनन-फानन में ही मिट गई। अमूमन ऐसा प्राकृतिक आपदाओं के बाद हुआ, जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में ले लिया और उस समूह के साथ उसकी भाषा भी सदा के लिए खो गई। वैसे ज़्यादातर भाषाएं धीरे-धीरे मरती हैं। उनका दम किसी दूसरी भाषा के हाथों घुटता है।
25 साल में लुप्त हुई भाषाएं
। ऑस्ट्रेलिया के जनजातीय समूह में बोली जाने वाली दो भाषाएं ‘यावुरू’ और ‘मगाटा’ को बोलने वाले केवल तीन लोग बचे हैं। इसी तरह भाषा अमुरदाग है, जिसे बोलने वाला केवल एक व्यक्ति ज़िन्दा है।
। बो - यह ग्रेट अंडमानी भाषा इसी साल लुप्त हुई, जब इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मौत हुई। यह भाषा उत्तरी अंडमान के पश्चिमी किनारे पर बोली जाती थी। यह भाषा लिपिहीन थी इसलिए इसके सम्बंध में अब कोई जानकारी नहीं है।
। इयाक - यह 21 जनवरी 2008 को लुप्त हुई। इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति थे स्मिथ जोन्स। इयाक एक सदी पहले अलास्का के प्रशांत महासागरीय तटीय क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी।
। अकाला सामी - यह रूस के कोला पेनेसुएला में बोली जाती थी। इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति मार्जा सर्जीना थे जिनकी मौत 29 दिसंबर 2003 को हुई। इसका लिखित ज्ञान इतना कम है कि इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता।
। गागुडजू - इसकी मौत 23 मई 2002 को इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति बिग बिल निएट्जी के साथ हुई। यह कभी उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में बोली जाती थी। इस भाषा को काकाडू या गागाडू के नाम से भी जाना जाता है।
। उबयेख - यह कभी तुर्की के कॉकेशियन प्रांत में बड़े पैमाने पर बोली जाती थी। यह क्षेत्र काला सागर के इलाके में पड़ता है। उबयेख के अंतिम जानकार का नाम अज्ञात है, लेकिन माना जाता है कि उनकी मृत्यु 1992 में हुई थी।
। मुनिची - यह कभी पे डिग्री के यूरीमागुआस प्रांत के मुनिचीस गांव में बोली जाती थी। इस भाषा के अंतिम जानकार हुऐनचो इकाहुएटे थे जिनकी मौत सन 1990 में हुई थी।
। कामास - इसे कामाशियन के नाम से भी जाना जाता है। यह रूस के यूराल पर्वतमाला क्षेत्र में बोली जाती थी। आखरी बोलने वाले कलावाडिया पोल्तोनिकोवा थे जिनकी मौत सन 1989 में हो गर्ई। भाषा का व्याकरण अभी भी उपलब्ध है।
। मियामी इलिनाइस - यह देशज अमेरिकन भाषा थी। 1989 में हुए अध्ययन के बाद पाया गया कि इसे बोलने वाला कोई नहीं बचा है। लुप्त होने से महज 25 साल पहले तक अमेरिका के इलिनॉय, इंडियाना, मिशिगन, ओहायो जैसे प्रांतों में इसे बोलने वाले कुछ लोग थे।
। नेगरहॉलैंड्स क्रिओल - यह 1987 में लुप्त हुई। आखरी व्यक्ति जो इस भाषा की जानकार थी वे थी श्रीमती एलिक स्टीवेंसन। यह भाषा अमेरिका के वर्जिन आइलैंड में बोली जाती थी।
इस संदर्भ में इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की चर्चा भी लाज़मी है।
भारत सही मायने में इंटरनेट क्रांति को साकार होते देख रहा है। इसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। इंटरनेट पर अंग्रेज़ी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरुआत हो गई है। गूगल ने हिन्दी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शु डिग्री की है जो इंटरनेट पर हिन्दी में उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आई है। इसमें हिन्दी वॉइस सर्च जैसी सुविधाएं भी शामिल हैं। इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाएंस (आईएलआईए) कहा है। इसका लक्ष्य 2017 तक 30 करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना है जो इसका इस्तेमाल स्मार्टफोन या अन्य किसी मोबाइल फोन से करेंगे। गूगल के आंकड़ों के मुताबिक, अभी देश में अंग्रेज़ी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ है, और इनमें से ज़्यादातर लोग फिलहाल इंटरनेट से जुड़े हुए हैं।
एक तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाज़ार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया है क्योंकि सामग्रियां अंग्रेज़ी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेज़ी में है, जबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेज़ी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती है। दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ी की कुछ समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिन्दी जैसी भाषाओं में, जो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं, इंटरनेट सामग्री क्रमश: 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्ति, आशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरे हैं, वह उल्लेखनीय ज़रूर है, मगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता है, वह इंटरनेट में नहीं दिखती। भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती है जब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो। परामर्श संस्था मैकेंज़ी का एक नया अध्ययन बताता है कि 2017 तक भारत के जीडीपी में इंटरनेट 100 अरब डॉलर का योगदान देगा, जो 2014 में 30 अरब डॉलर था। अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा। इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी। मगर इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगी जब इंटरनेट सर्च अधिक सुगम बनेगी। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगा, तभी गैर अंग्रेज़ीभाषी लोग इंटरनेट से ज़्यादा जुड़ेंगे। (स्रोत फीचर्स)