यह काफी पुरानी कहावत है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है। सोशल मीडिया के ज़माने में यह बात और भी सही साबित हो रही है। फर्ज़ी खबरों से परेशान होकर गूगल और फेसबुक ने वादा किया है कि वे इस समस्या से निपटने के प्रयास कर रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या यह वाकई एक समस्या है और क्या लोग वाकई इतने भोले-भाले होते हैं कि झूठ को बार-बार बोलने से उस पर यकीन करने लगें?
कुछ अध्ययनों से तो लगता है कि सचमुच ऐसा ही होता है। यू.एस. के एक पत्रकार क्रेग सिल्वरमैन ने कुछ ऑनलाइन झूठी खबरों का विश्लेषण करने पर पाया कि झूठी खबरों को ज़्यादा तवज्जो मिलती है बनिस्बत उन आलेखों के जो इन खबरों का पर्दाफाश करने की कोशिश करते हैं।
शायद आपको लगे कि आप ऐसी झूठी खबरों के जाल में नहीं फंस सकते। मगर 1940 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि “कोई अफवाह जितनी ज़्यादा बार कही जाए, वह उतनी ही संभव लगने लगती है।” इसका मतलब है कि कोई अफवाह सिर्फ प्रसार के दम पर लोगों के विचारों और अभिमतों को प्रभावित कर सकती है।
इसके बाद 1977 में एक और अध्ययन ने इसी बात को थोड़ा अलग ढंग से प्रस्तुत किया था। यूएस के कुछ शोधकर्ताओं ने कॉलेज के विद्यार्थियों से किसी वक्तव्य की प्रामाणिकता को लेकर पूछताछ की। उन्हें बताया गया था कि वह वक्तव्य सही भी हो सकता है और गलत भी। शोधकर्ताओं ने पाया कि यदि उसी वक्तव्य को कुछ दिनों बाद फिर से दोहराया जाए तो इस बात की संभावना बढ़ती है कि विद्यार्थी उस पर यकीन करने लगेंगे।
वर्ष 2015 में वान्डरविल्ट विश्वविद्यालय (टेनेसी) की लिज़ा फेज़ियो ने एक अध्ययन में देखा कि चाहे विद्यार्थी जानते हों कि कोई कथन गलत है, मगर यदि उसे दोहराया जाए, तो काफी संभावना बनती है कि वे उस पर विश्वास कर लेंगे। फेज़ियो का कहना है कि झूठी खबरें लोगों को तब भी प्रभावित कर सकती हैं जब वे जानते हैं कि वह झूठी है। वही खबर या वही सुर्खियां बार-बार पढ़ने पर लगने लगता है कि शायद वह सच है। लोग प्राय: जांच करने की कोशिश भी नहीं करते।
मसलन, हाल में किए गए एक अध्ययन में यूएस के हाई स्कूल छात्रों को एक तस्वीर दिखाई थी। इसमें बताया गया था कि दुर्घटना के बाद फुकुशिमा दाइची परमाणु बिजली घर के आसपास पौधों पर विकृत फूल उग रहे हैं। जब यह पूछा गया कि क्या वह तस्वीर बिजली घर के आसपास की स्थिति का प्रमाण माना जा सकता है, तो मात्र 20 प्रतिशत छात्रों ने ही इस पर शंका ज़ाहिर की जबकि 40 प्रतिशत ने तो माना कि यह स्पष्ट प्रमाण है। तस्वीर के साथ यह नहीं बताया गया था इसे प्रस्तुत किसने किया है।
कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि आजकल लोग सर्च इंजिन्स पर काफी भरोसा करते हैं और उसमें भी जो पहली प्रविष्टि होती है उसे ही सच मान लेते हैं।
ऐसी स्थिति में आलोचनात्मक सोच विकसित करने का महत्व बहुत बढ़ जाता है अन्यथा हम झूठ और सच का फैसला किए बगैर अफवाहों के जंगल में हाथ-पांव मारते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)