कैरेन हैडाक

मौजूदा परीक्षा प्रणाली में बच्चों की समझ को जांचने की बजाए उनकी रटत क्षमता की जांच की जाती हैआपने भी कई बच्चों को सुबह-सुबह चार बजे सवालों के जवाब याद करते हुए देखा होगा। क्या ऐसी परीक्षाओं के माध्यम से बच्चों की समझ को जांचा-परखा जा सकता है?

शरीक्षाओं को लेकर सबकी कोई-न-कोई शिकायत रहती ही है। इतनी प्रतिस्पर्धात्मक। कैसे विचित्र सवाल होते हैं। अन्याय और असमानता। जांचने की त्रुटियां। पाठ्यक्रम के बाहर के सवाल। और बच्चे तो पूछते हैं - उन्हें परीक्षा देनी ही क्यों पड़ती है?

लेकिन शिकायत करने वाले अक्सर निराश और जो उन पर गुजर रही है उसे सहन कर लेने वाले लोग होते हैं। किसी में भी स्थिति को सुधारने की, बदलने की इच्छाशक्ति नहीं। या फिर ये सारी परीक्षाएं आवश्यक कुरीतियां हैं? जिन्हें हम सबको सहन करना ही होगा।

बच्चों के पास खेलने का समय ही नहीं - उनकी जिंदगी तो यूनिट टेस्ट, वार्षिक परीक्षा और जैसे कि वे काफी न हो बोर्ड परीक्षा के आतंक एवं अन्य अनगिनत प्रतियोगी परीक्षाओं से नियंत्रित रहती है। कई जगह तो बच्चे अपनी काबिलियत को परीक्षा के परिणामों के आधार पर नापने लगते हैं और पालक भी अपने बच्चों को इन्हीं परिणामों के अनुपात में प्यार करने लगते हैं। इस सबको असर काफी हानिकारक हो सकता है।

संपूर्ण परीक्षा व्यवस्था ने शिक्षा तंत्र को बुरी तरह से जकड़कर रखा है। शालाएं अपना पढ़ाने का तरीका नहीं बदल सकतीं, न ही पाठ्यक्रम बदल सकती हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य है विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए तैयार करना। मां-बाप को भी बच्चों को ट्यूशन के लिये भेजना पड़ता है ताकि वे परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकें। विद्यार्थी स्वयं तो जैसे परीक्षा के लिए। सोचना होता है उससे हटकर और कुछ सोच ही नहीं सकते।

रटना बनाम पढ़ना
परीक्षाओं के लिए किस तरह की सोच जरूरी होती है? अक्सर केवल ‘रटना। विद्यार्थी उत्तरों को शब्दशः रटते हैं। वे उत्तर जिन्हें वे पाठ्यपुस्तक व श्यामपट से उतारते हैं। अगर कोई उनसे पूछे कि क्या कर रहे हैं तो वे कहेंगे ‘पढ़ रहे हैं। या पुनरावृत्ति कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में यह एक कहने का तरीका है जिसमें 'रट रहे हैं' कहने के बजाए ‘पढ़ रहे हैं' कहा जाता है।

रटना ‘पढ़ने' या ‘सीखने के समकक्ष नहीं है - केवल सीखने का एक हिस्सा मात्र है। लेकिन सीखने में इतना कुछ और भी शामिल है। - सीखने के इतने पहलू हैं जिन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता।

याद करने के अलावा जरूरी है कि विद्यार्थी चीजों को समझें। उन्हें जरूरत है कि चीजों को करने के रचनात्मक और नए तरीके सोचें। उनमें क्षमता होनी चाहिए कि अपनी समझ और ज्ञान को नई समस्याएं सुलझाने में, इस्तेमाल कर पाएं; किसी घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से आंककर उसके बारे में मन बना पाएं और समस्याओं का विश्लेषण करके उन्हें हल करने के नए रचनात्मक तरीके सोच पाएं।

लेकिन अधिकांश परीक्षाओं में इस क्षमता को नहीं जांचा जाता। हम अपनी वर्तमान परीक्षा प्रणाली में फंसे हैं जो कि विद्यार्थियों को रटने के अलावा कुछ भी और करने से हतोत्साहित करती है। और रटना हर चीज में लागू किया जाता है - बगैर सोचे कि कुछ जगहों यह उपयुक्त होता है (जैसे पहाड़े याद करने पड़ते हैं) और कुछ जगह यह बिल्कुल उपयुक्त नहीं है - जैसे विज्ञान समझने में, आदि।

किसी ने परीक्षा की दिक्कतों के बारे में गहराई से सोचा हो. गुढ विश्लेषण किया हो, बहुत कम ही सुनने को मिलता है। कुछ लोग । बढ़ती जनसंख्या को दोष दे देते हैं, कुछ अंग्रेजों की विरासत कहकर उसके बारे में फिर सोचते ही नहीं। या फिर इस तरह के जुमले सुनने को मिलते हैं - ‘इस व्यवस्था में इतनी प्रतिस्पर्धा इसलिए है क्योंकि बेरोजगारों की अपेक्षा नौकरियां कम हैं। इसके बारे में हम क्या कर सकते हैं? जो विद्यार्थी अंग्रेज़ी अच्छे से नहीं जानता वह भोगेगा क्योंकि अंग्रेजी आज के दौर में अत्यंत जरूरी है। उसके बारे में भी कुछ नहीं कर सकते।'

असल में, परीक्षा प्रणाली ऐसी ही है क्योंकि इससे एक उद्देश्य पूरा हो रहा है बल्कि ऐसा कहिए कि बहुत ही अच्छी तरह पूरा हो रहा है। इससे छंटाई हो रही है - वे चंद योग्य विद्यार्थी छंट रहे हैं जो समाज के उस तबके की अगली । पीढ़ी बनेंगे जो समाज का नेतृत्व करती है; जो समाज की सीढ़ी पर सर्वोपरि स्थान ग्रहण करते हैं।

परीक्षा और समाज का ढांचा
इस परीक्षा प्रणाली को बदलने से समाज की इस सीढ़ीदार संरचना के टूटने का खतरा हो सकता है। इसी कारण, यह तब तक नहीं बदल पाएगी जब तक वे लोग इसकी मांग न करें जो इससे पीड़ित हैं।

उदाहरण के लिए, हम चाहते हैं। कि मेडिकल की परीक्षा कम प्रतिस्पर्धात्मक हो। इसका अभिप्राय है कि हम मेडिकल के विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं - डॉक्टरों की संख्या बढ़ाना चाहते हैंलेकिन ये डॉक्टरों के हित में नहीं है क्योंकि जहां डॉक्टरों की संख्या बढ़ी, उनके रहन-सहन का स्तर गिर जाएगा। इससे सामाजिक सीढ़ी पर उनकी जगह काफी नीचे आ जाएगी।

इसलिए असली चर्चा इस स्तर पर होनी चाहिए कि हम किस तरह का समाज चाहते हैं - क्या ऐसा जिसमें एक छोटा समूह धन, स्वास्थ्य, सत्ता आदि पर कब्जा जमाए रहता है या ऐसा समाज जो सभी लोगों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं देने की जिम्मेदारी उठाता है।

क्या हम वास्तव में ऐसा समाज चाहते हैं जो रचनात्मक लेखन, वैज्ञानिक सोच, समान खाद्यान्न वितरण, और पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं को प्रोत्साहन देता हो? तो फिर हमारी शिक्षा प्रणाली भी ऐसी होनी चाहिए जो रचनात्मक सोच को बढ़ावा दे, जो प्रयोग धर्मिता को प्रोत्साहित करे, जो लोकव्यापी हो, जो समानतामूलक शिक्षा पर ज़ोर दे।

अगर परीक्षा प्रणाली को रटंतू से बदलकर ऐसा बना दिया जाए कि विद्यार्थियों की समझ के स्तर, नई समस्याओं का विश्लेषण कर पाने की क्षमता, समीक्षात्मक सोच और विश्लेषण आदि का मूल्यांकन हो -- तो वो मौजूदा व्यवस्था के लिए खतरा बन जाएगी। आखिर आम जनता की। रचनात्मक क्षमताओं और सोच को बौना बनाए रखना सत्ताधारियों के हित में ही तो है।

शायद ये प्रणाली बदल जाएगी जब सत्ताधारी यह समझने लगेंगे कि विद्यार्थियों को सोचना सिखाने से शायद उनकी अपनी स्थिति भी सुधरेगी। तब शायद वे ऐसी दोहरी प्रणाली बना लेंगे जिसमें साधारण लोग तो रटकर याद करते रहें; और अंग्रेजी बोलने वाली उच्च श्रेणी को और ऊंचे स्तर पर सोचना सिखाया जाए। इसके आसार नज़र आने भी लगे हैं। गैर-सरकारी अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों और नज़रअंदाज़ किए। गए सरकारी स्कूलों की तुलना कीजिए। क्या गैर-सरकारी स्कूलों पर प्रतिबंध लगा देना ही एकमात्र तरीका है सरकारी स्कूलों को सुधारने का, इन दोनों के बीच की बढ़ती खाई को बढ़ने से रोकने का?

लेकिन आज भी बहुतेरे अत्यंत रचनात्मक लोग ऐसे हैं जो शिक्षा प्रणाली से नहीं गुज़रे - जिन्होंने इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण नहीं । किया। इन्हें खुद को अभिव्यक्त करने के, और बाकी दुनिया से संवाद करने के बहुत कम मौके मिले हैं। हमें आज जरूरत है ऐसी व्यवस्था की जो हर इन्सान को विकसित होने की, खुद को अभिव्यक्त करने की और अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक रुचियों को बढ़ावा देने की इजाजत दे, जगह दे।

परीक्षाएं बदली कैसे जा सकती हैं?

--यदि परीक्षा हो ही न तो? कभी-कभी परीक्षा जरूरी भी नहीं होती किसी और तरह से आंकना ज़्यादा ठीक रहता है। उदाहरण के लिए किसी रचनात्मक लेख या पेंटिंग का मूल्यांकन करना।

--कहीं-कहीं परीक्षा की उपयोगिता नजर आती है। विद्यार्थियों को व औरों को भी एक अंदाजा लग जाता है कि उनकी उपलब्धियां क्या हैं, उनके समझने का स्तर क्या-क्या है। इससे उन्हें आगे की पढ़ाई की योजना बनाने में, व्यवसाय चुनने में मदद मिलती है। लेकिन मूल्यांकन के र भी तरीके हो सकते हैं।

--यदि शिक्षकों के सुझाव और टिप्पणियों का उपयोग किया जाए तो? यदि शिक्षक हर विद्यार्थी के बारे में अच्छे से सोचकर एक समीक्षात्मक विवरण लिखे जिससे कि उसकी उपलब्धियों और विशेषताओं के बारे में पता लगे, तो क्या वह महज 87 प्रतिशत, 55 प्रतिशत लिखने से ज्यादा सार्थक न होगा?

यदि खुली-किताब परीक्षाएं हों तो? विद्यार्थी परीक्षा में अपनी किताबों व कॉपियों का भी प्रयोग कर सकें। फिर सवाल इस प्रकार के होंगे कि वे सीधे-सीधे किताबों से नकल करके उत्तर न लिख पाएं; बल्कि किताब में दी गई जानकारी की मदद से वे नए सवालों को हल करने की कोशिश करें। (नीचे कुछ। उदाहरण दिए गए हैं) मौखिक परीक्षाएं, चर्चाएं, इंटरव्यू के बारे में क्या विचार हैं? कहीं-कहीं उनकी उपयोगिता ज्यादा लगती है। उदाहरण के लिए, एक विद्यार्थी से पांच मिनट बात करके शिक्षक आसानी से बता सकता है कि उसे व्याकरण की कितनी पकड़ है, क्या वह किसी भाषा में सही वाक्य बना सकता है या नहीं। क्या परीक्षाओं का इस्तेमाल ‘याददाश्त' से भी ज्यादा कुछ जांचने में हो सकता है? इन परीक्षाओं से कुछ और ऊंचे स्तर की चीजें जैसे समीक्षात्मक चिंतन जैसी दक्षताओं को कैसे आंकेंगे?

नीचे दिए गए सवालों के उदाहरण देखिए। हर जगह पहला सवाल पुराने साधारण तरीके से पेश किया गया है। फिर उसी विषय को आंकने के लिए एक और सवाल दिया है जिसमें कहीं अधिक सोचने की आवश्यकता है।

रसायन एवं गणित
1. पीतल निम्नलिखित में से किसी एक का मिश्रण है
क. 70 प्रतिशत तांबा और 30 प्रतिशत जस्ता।
ख. 35 प्रतिशत जस्ता और 65  प्रतिशत तांबा
ग. 65 प्रतिशत तांबा और 35  प्रतिशत सीसा
घ. 38 प्रतिशत जस्ता और 62 प्रतिशत तांबा

2. पीतल एक मिश्रधातु है। धातुओं के मिश्रण को मिश्रधातु कहते हैं। पीतल 65 प्रतिशत तांबा और 35 प्रतिशत जस्ते के। मिश्रण से बनता है। कौन-सा चित्र इसको सबसे स्पष्ट दर्शाता है?

पहला सवाल सिर्फ याद्दाश्त को जांचता है। दूसरा सवाल कुछ जानकारी देता है और जानकारी को समझने को कहता है। इसमें विद्यार्थी को जरूरत है पहले सीखी हुई क्षमता, यानी इस तरह के चित्रण को समझने का इस्तेमाल करे। इसमें दी हुई जानकारी को समझना, नक्शा पढ़ने की क्षमता संकेत सूची पढ़ने के लिए, प्रतिशत और भिन्न की समझ, आकारों में तुलना करके अनुमान लगाना, समझना कि 25 प्रतिशत एक चौथाई होता है, 35 प्रतिशत एक तिहाई से थोड़ा ज्यादा होता है।

आदि, सभी की जांच होती है। तो दूसरा सवाल वास्तव में ज्यादा चीजें जांच रहा है। सबसे जरूरी बात यह है यह विद्यार्थियों की सोचने की क्षमता को जांच रहा है।

इससे अभिप्राय यह नहीं है कि याद करना महत्वपूर्ण नहीं है। कई चीजें याद भी करनी पड़ती हैं। लेकिन खुद से ये सवाल भी करना चाहिए कि उदाहरण के लिए यह याद रखना कितना ज़रूरी है कि

पीतल में कितना तांबा और कितना जस्ता मिला होता है। शायद यह समझना/सीखना ज्यादा सार्थक होगा कि ऐसी जानकारी ढूंढने के लिए। पुस्तकालय का उपयोग कैसे कर सकते हैं। और वहां यदि किसी पुस्तक में ऐसे ग्राफ बने हों तो उन्हें पढ़कर कैसे समझ सकते हैं।

भूगोल
1. नक्शा क्या है?
जवाब- पृथ्वी की सतह को छोटे रूप में समतल सतह पर दिखाया जाए तो उसे नक्शा कहते हैं।

2. अपने एटलस के विभिन्न नक्शों को देखकर पता लगाओ कि गंगा नदी कौन-कौन से राज्यों से होकर समुद्र में मिलती है?

विद्यार्थी के लिए पहले सवाल का सही उत्तर केवल याद्दाश्त के आधार पर बिना हिज्जे की। गलतियां किए, बिना ये समझे भी कि नक्शा वास्तव में क्या चीज़ है, देना संभव है। लेकिन अगर कोई विद्यार्थी दूसरे सवाल का उत्तर दे सकता है तो उससे यह भी साबित होगा कि उसे मालूम है नक्शा क्या है, क्योंकि उसे नक्शा इस्तेमाल करना आता है। शायद इसके लिए उसे कुछ राज्यों के नाम भी रटने पड़े (यदि नक्शे पर नाम नहीं लिखे हों तो)- लेकिन वह सिर्फ याद रखने से कहीं ज्यादा कर रहा है। उसे संकेत सूची पढ़ने की आवश्यकता हो सकती है, उसे नक्शा देखकर समझना पड़ सकता है कि नदी किस ओर बह रही है। आदि।

अंग्रेज़ी
1. टॉम सॉयर को (स्कूल में) अपनी कक्षा में --- पसंद था। उसका सबसे अच्छा दोस्त --- था।

2. कल्पना करो कि टॉम सॉयर आज के जमाने में रहने वाला एक भारतीय है और तुम्हारे शहर में रह रहा है, न कि उन्नीसवीं सदी में मिसिसिपी नदी के किनारे। उसकी ज़िन्दगी कैसे फर्क हो जाएगी? मान लो। उसका नाम राम सॉयर है और वह तुम्हारे स्कूल जाता है। जिस पाठ में टॉम सॉयर की दिक्कतों के बारे में लिखा है उसे भारतीय संदर्भ में पुनः लिखो।

जाहिर है, पहले प्रश्न की तुलना में दूसरे प्रश्न में बहुत कुछ पूछा जा रही है। पहले प्रश्न का उत्तर देने के लिए पात्रों के नाम याद रखना जरूरी था। बहुत ज्यादा कुछ। समझने की ज़रूरत नहीं। दूसरे सवाल का उत्तर देने के लिए याददाश्त के साथ-साथ विद्यार्थी को अपनी रचनात्मकता और विश्लेषण की क्षमताओं को दिखाने का मौका मिलता है। कुछ लोगों को यह मुश्किल लग सकता है। लेकिन क्या वाकई इतना मुश्किल है यह?

शायद कुछ शिक्षकों ने बच्चों से वाक्य रटने की बजाए अपने शब्दों में लिखने को कहा होगा और पाया होगा कि वे हिज्जों में, व्याकरण में, वाक्य संरचना में बहुत गलतियां करते हैं। फिर भी, रचनात्मक और विश्लेषणात्मक पहलुओं को अलग से क्यों न देखा जाए? यदि हिज्जे और व्याकरण पर ज्यादा ध्यान न दें, तो मुझे यकीन है कि हम पाएंगे कि बच्चे खुद से सोच सकते हैं। और इसे शुरू से ही प्रोत्साहन देने की ज़रूरत है वरना यह क्षमता हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। और फिर रटने से तो बच्चे कभी भी वाक्य संरचना नहीं सीख पाएंगे। सीखने के लिए उन्हें खुद से लिखना होगा, गलतियां करनी होंगी, खुद सुधारनी होंगी, अभ्यास करना होगा।

विज्ञान 
1. दूध को ज्यादा समय तक सुरक्षित रखने के लिए इस्तेमाल होनेवाली ---विधि को ---कहते हैं।  

2. आठ डिब्बे लो और उन पर 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 संख्या लिख दो। डिब्बा क्रमांक 1, 2, , 4, में बिना उबला, ताज़ा दूध लो। डिब्बा क्रमांक 5, 6, 7, 8, में गर्म, उबला हुआ दूध लो। सब डिब्बों को ढक दो। डिब्बा क्रमांक 1 व 5 को फ्रीज़र में रखो 2 एवं 6 फ्रिज में, 3 एवं 7 को अलमारी में, र 4 र 8 को ऐसी जगह जहां धूप आती हो।

24 घंटे बाद सब डिब्बों को खोलकर सूंघों- क्या कोई खट्टा हो गया है? यदि नहीं तो और 24 घंटों के लिए इन्हें वापस रख दो। फिर सुंघो। जब तक दूध खट्टा न हो जाए ऐसा करते रहो।

अपने अवलोकन एक तालिका में लिखो और स्तंभालेख से दिखाओ कि हर एक डिब्बे के दूध को खट्टा होने में कितने दिन लगे। अपने नतीजों के आधार पर बताओ कि दूध को लंबे समय तक ठीक रखने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? क्या इस प्रयोग को किसी और विधि से बेहतर ढंग से किया जा सकता है?

पहले सवाल का उत्तर देने में विद्यार्थी को मात्र एक शब्द की। परिभाषा याद करनी है, इसे समझना भी जरूरी नहीं।

दूसरे प्रश्न के लिए उसे कम-से कम दो दिन आधा-आधा घंटा विज्ञान को करने में लगाना पड़ेगा। लेकिन इस अनुभव को वे शायद ही भूलेंगे। वे ‘दूध परीरक्षण' के अर्थ के अलावा भी कई चीजें सीखेंगे। वे सीखेंगे विज्ञान क्या है - सिर्फ जानकारियों/तथ्यों की सूची नहीं जिसे रटना पड़ता है। उन्हें वैज्ञानिक तरीका समझ में आएगा - प्रश्न करना, परिकल्पना बनाना, प्रयोग करना, अवलोकन करना, और नतीजे तक पहुंचना। शिक्षक को समझ में आएगा कि क्या विद्यार्थी बारीकी से अवलोकन कर पा रहा है, क्या उसे ग्राफ बनाना आता है, क्या वह आंकड़ों का विश्लेषण कर खुद नतीजे तक पहुंच सकता है?


कैरन हैडॉक: चंडीगढ़ के एक स्कूल में अध्यापनरत; चित्रकार; बायोफिजिक्स में शोधकार्य।
अनुवादः शिवानी बजाज, एकलव्य के प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम से जुड़ी हैं।