अजय शर्मा
कुछ सामान्य विद्दुतीय अवधारणाओं की जांच पड़ताल
स्कूली विज्ञान पाठ्यक्रम में कुछेक चुनिंदा विषय ऐसे भी हैं जिन्हें लगभग हर साल पढ़ाया जाता है - छठवीं से लेकर दसवीं क्लास तक। विद्युत विषय उनमें से प्रमुख है। और अगर विद्यार्थी दसवीं के बाद भौतिकी पढ़ने का मन बना ले तो फिर तो उसका इस विषय से चोली दामन का साथ तय ही समझिए। रोजमर्रा के जीवन में बिजली और बिजली से मुहैया तमाम सुविधाओं की महत्ता के मद्देनज़र शायद यह उचित भी है।
पर क्या हमारे शिक्षकों की इस विषय पर पकड़ मजबूत है? उनकी इस विषय की मूलभूत अवधारणाओं, जैसे करंट, वोल्टेज आदि के बारे में क्या समझ है? क्या वे बच्चों को यह विषय पढ़ाने में सक्षम हैं? ये कुछ सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब खोजना न सिर्फ अपने-आप में एक रुचिकर कार्य है बल्कि निहायत ही जरूरी भी।
एक टेस्ट बिजली के बारे में
होशंगाबाद और हरदा जिले की शासकीय और अशासकीय शालाओं में माध्यमिक स्तर की कक्षाओं को विज्ञान विषय पढ़ा रहे शिक्षक हर महीने अपनी अकादमिक और प्रशा सनिक समस्याओं का परस्पर हल खोजने के लिए ब्लॉक स्तर पर इकट्ठे होते हैं। इन मासिक गोष्ठियों में एकलव्य संस्था के कार्यकर्ताओं का भी सहयोग रहता है। इस वर्ष जनवरी माह की मासिक गोष्ठियों में विद्युत विषय की अवधारणाओं पर चर्चा और कुछ प्रयोग एक अकादमिक मुद्दे के रूप में रखे गए थे। बैठक में चर्चा सुव्यवस्थित और अर्थपूर्ण हो और शिक्षकों की इस विषय की समझ का एक पूर्वआकलन हो सके इस उद्देश्य से चर्चा से पहले शिक्षकों से इस विषय पर दस लघु-प्रश्नों के जवाब एक कागज पर भरवाए गए। ये प्रश्न ऐसे थे जिनसे पता चल सके कि करंट, वोल्टेज, सेल, परिपथ/सर्किट आदि के बारे में इन शिक्षकों की समझ क्या है। इन सवालों में जिन विद्युत परिपथों को लेकर सवाल पूछे गए थे वे परिपथ वही थे जिन्हें वे खुद कक्षाओं में बच्चों से बनवाते हैं और उन पर चर्चाएं करवाते हैं।
165 शिक्षकों ने इन सवालों के लिखित जवाब दिए। ये शिक्षक काफी विविध पृष्ठभूमि के हैं। इस समूह में शहरी और ग्रामीण, विज्ञान पढ़े हुए और विज्ञान न पढ़े हुए, शासकीय और अशासकीय शालाओं में कार्यरत, नियमित और शिक्षाकर्मी, यानी सभी किस्म के शिक्षक शामिल हैं। समूह के अधिकांश शिक्षक स्नातक या उससे अधिक शैक्षिक योग्यता के माने जा सकते हैं। मध्यप्रदेश में माध्यमिक स्तर पर मात्र 12वीं पास शिक्षकों का प्रतिशत अब काफी कम हो गया है।
बस एक मायने में यह समूह माध्यमिक स्तर पर पढ़ा रहे शिक्षकों के एक प्रतिनिधि समूह से भिन्न माना जा सकता है। वह यह कि इन जिलों में माध्यमिक कक्षाओं को विज्ञान पढ़ा रहे शिक्षकों को हर कक्षा के लिए (यानी छठवीं, सातवीं और आठवीं के लिए) 21 दिन का विज्ञान प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके अतिरिक्त उनके अकादमिक सुदृढ़ीकरण के लिए शासन और एकलव्य संस्था द्वारा और भी कई प्रयास किए जाते हैं।
चूंकि शिक्षकों से इन सवालों को हल करवाने का मुख्य उद्देश्य मासिक गोष्ठियों में विद्युत विषय पर चर्चा करवाना था न कि इस विषय पर एक पूर्वनियोजित सर्वे करना; इसलिए सर्वे के तकनीकी नज़रिए से शिक्षकों के जवाबों से उभरी जानकारी के विश्लेषण में कई खामियां संभव हैं। लेकिन फिर भी जवाबों के विश्लेषण से शिक्षकों की इस विषय पर समझ की एक धुंधली तस्वीर तो उभरती ही है। यह तस्वीर कुछ इस प्रकार है।
खर्च क्या - करंट या ऊर्जा?
आखिर सेल में ऐसा क्या होता है जो इस्तेमाल करने पर खर्च हो जाता है? यह एक ऐसा सवाल है जिसके बारे में हरेक की कोई न कोई समझ जरूर होती है, चाहे वो विज्ञान पढ़ा हुआ हो या नहीं। इस बारे में शिक्षकों की समझ परखने के लिए शिक्षकों को एक कथन दिया गया था। शिक्षकों को कारण सहित बताना था कि कथन सही है या नहीं। यह कथन थाः
'हरेक नई बैटरी में एक निश्चित मात्रा में करंट संग्रहित होता है जो बैटरी के इस्तेमाल करने पर धीरे धीरे खर्च होता रहता है।
करीब 90 प्रतिशत शिक्षकों ने इस कथन को सही माना, मात्र दो प्रतिशत ने गलत और आठ फीसदी शिक्षकों ने यह सवाल खाली छोड़ दिया। जाहिर है कि विज्ञान पढ़ने पढ़ाने के बावजूद शिक्षकगण इस आम धारणा को ही सही मानते आ रहे हैं। कि सैल का इस्तेमाल करने से उसमें संग्रहित करंट खर्च होता है। जबकि सच तो यह है कि हरेक सैल या बैटरी में रासायनिक ऊर्जा संग्रहित रहती है और यह ऊर्जा ही बैटरी के इस्तेमाल करने पर अन्य रूपों में परिवर्तित (या आम भाषा में खर्च) होती रहती है। साथ ही उनके द्वारा दिए गए कारणों में साफ है कि अधिकतर शिक्षक करंट, वोल्टेज और ऊर्जा जैसे लफ़्ज़ों में स्पष्ट अंतर नहीं कर पाते हैं। इनकी परिभाषाएं उनके मन में गड़बड़ ही हैं। इस बात की पुष्टि एक और सवाल से होती है। शिक्षकों को एक सवाल में चार विकल्पों में से एक विकल्प चुनना था। यह सवाल थाः
किसी चालू परिपथ में बल्ब के जलने परः
- करंट खर्च होता है;
- वोल्टेज खर्च होता है;
- ऊर्जा खर्च होती है;
- करंट, वोल्टेज और ऊर्जा तीनों ही खर्च होते हैं;
ऊपर दिए गए सवाल के जवाब में हालांकि 52 फीसदी शिक्षकों ने सही (यानी तीसरा) विकल्प चुना है, पर गौरतलब यह भी है कि 27 फीसदी शिक्षकों की राय में बल्ब के जलने पर करंट, वोल्टेज और ऊर्जा तीनों ही खर्च होते हैं, और 12 फीसदी शिक्षक मानते हैं कि बल्ब के जलने पर वोल्टेज खर्च होता है। पहले विकल्प को चुनने वाले शिक्षक बस चार प्रतिशत ही हैं। यानी करीब आधे शिक्षक या तो स्पष्ट नहीं हैं कि बल्ब जलने पर क्या खर्च होता है या फिर गलत को सही मान बैठे हैं। दरअसल बोलचाल की भाषा में बिजली, करंट, वोल्टेज, ऊर्जा आदि शब्दों को पर्याय वाची शब्दों के रूप में उपयोग कर लिया जाता है और किन्हीं कारणों से वर्षों के शिक्षण बाद भी शिक्षक उनको इसी तरह इस्तेमाल करते रहते हैं।
करंट कैसे बहे?
माध्यमिक स्तर पर कक्षाओं में शिक्षक बच्चों से बल्बों और सैलों को जोड़कर तरह-तरह के परिपथ बनवाते हैं। जाहिर है कि ऐसे परिपथों में करंट कैसे बहता है इसके बारे में शिक्षकों की कुछ धारणाएं होंगी। इन्हीं धारणाओं को उभारने के उद्देश्य से हमने शिक्षकों से कुछ सवाल पूछे।
पहला सवाल थाः
परिपथ 1 में दिए गए दोनों बल्ब एक जैसे हैं। अब बताएं कि
--- कौन-सा बल्ब ज़ोर से जलेगा? और क्यों?
इस सवाल में भी अधिकांश शिक्षकगण आम धारणा का ही अनुसरण करते नज़र आते हैं। यानी 60 प्रतिशत शिक्षकों के मत में बाएं से पहला बल्ब यानी बल्ब क्रमांक-1 दूसरे बल्ब की तुलना में ज्यादा प्रकाश देगा। उनके विचार से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि करंट परिपथ में धन से ऋण ध्रुव की ओर बहता है। और चूंकि बल्ब क्रमांक-1 करंट के बहने के रास्ते में पहले पड़ता है इसलिए पूरा का पूरा करंट उसे मिलती है। बल्ब क्रमांक-1 मिलने वाले करंट में से कुछ करंट खर्च कर देता है और बल्ब क्रमांक-2 को बचा-खुचा करंट ही मिल पाता है। इसलिए वह उतना प्रकाश नहीं दे पाता जितना कि बल्ब क्रमांक-11
केवल 27 प्रतिशत शिक्षकों ने ही सही जवाब दिया कि दोनों बल्ब एक जैसा प्रकाश देंगे। और जब उनसे A, B और पर करंट के मान की तुलना करने के लिए कहा गया तो सिर्फ 44 प्रतिशत शिक्षकों ने कहा कि तीनों बिंदुओं पर करंट का मान बराबर होगा। जाहिर है अधिकांश शिक्षक मानते हैं कि बल्ब (तथा अन्य उपकरण) एक निश्चित मात्रा में करंट को खर्च कर देते हैं जबकि खर्च तो असल में ऊर्जा ही होती है। करंट का मान ही पूरे परिपथ में बरकरार रहता है।
स्कूली पाठ्यक्रम में न तो इस बात पर पर्याप्त तवज्जो दी जाती है; और न ही ऊर्जा और करंट में फर्क को स्पष्टता से उभारा जाती है। जिसकी वजह से करंट विद्यार्थी के मन में ऊर्जा के कई गुण अख्तियार कर लेता है। करंट के बारे में इन धारणाओं से जुड़ी एक आम और गलत धारणा यह भी है कि किसी सरल परिपथ में एक और उपकरण शामिल करने का अन्य उपकरणों पर असर इस बात से तय होता है कि नए उपकरण को कहां फिट किया गया है - अन्य उपकरणों के पहले या बाद में। इस संबंध में शिक्षकों की समझ जानने के लिए उनसे नीचे दिए दो प्रश्न पूछे गएः
1. परिपथ-क में लगे हुए बल्ब से पहले एक और बल्ब (जैसे परिपथ-ख में) जोड़ दिया जाता है। क्या अब बल्ब क्रमांक-1 पहले की तुलना में
- कम रोशनी देगा।
- उतनी ही रोशनी देगा जितनी कि परिपथ-क में देता था।
- ज्यादा रोशनी देगा।
2. दूसरा बल्ब अगर बल्व क्रमांक-1 के बाद में लगाया जाता है (जैसे परिपथ-ग में) तो क्या बल्ब क्रमांक पहले की तुलना में
- कम रोशनी देगा।
- उतनी ही रोशनी देगा जितनी कि परिपथ-क में देता था।
- ज्यादा रोशनी देगा।
पहले सवाल के जवाब में 73 प्रतिशत ने माना कि बल्ब क्रमांक-1 पहले की तुलना में कम रोशनी देगा। यह सही भी है। लेकिन दूसरे सवाल के जवाब में केवल 38 प्रतिशत शिक्षकों ने ही कहा कि परिपथ में दूसरे बल्ब को बल्ब क्रमांक-1 के बाद में लगाने पर बल्ब क्रमांक 1 पहले की तुलना में कम रोशनी देगा। यानी दूसरे सवाल में सही जवाब देने वालों का प्रतिशत घट कर मात्र 38 रह जाता है।
इसका कारण यह है कि शिक्षकों के एक बड़े भाग (34 प्रतिशत) की राय में बल्ब क्रमांक-1 को पहले जितनी ही रोशनी देते रहना चाहिए। स्पष्ट है कि हमारे शिक्षकों के एक बड़े तबके में यह भ्रम व्याप्त है कि किसी विद्युत परिपथ में जुड़ा कोई भी अवयव जैसे बल्ब, विद्युत धारा पर तभी असर डालता है जब वह उस तक पहुंचती है, उससे पहले नहीं। जितना करंट उन तक पहुंचता है उसमें से कुछ वे इस्मेमाल कर लेते हैं और बाकी बचा करंट आगे बढ़ जाता इसीलिए परिपथ में नया बल्ब अगर पहले से जुड़े बल्ब के आगे लगा दिया जाता है तो पहले से जुड़े बल्ब को अब उतना करंट नहीं मिलेगा जितना
कि पहले मिलता था लिहाजा वह कम रोशनी देने लगेगा। पर अगर नए बल्ब को पुराने बल्ब के बाद में जोड़ा गया है तो शिक्षकगण यह मान बैठते हैं कि पुराने बल्ब के करंट की सप्लाई में तो कोई फर्क नहीं आएगा। उसे उतना ही करंट मिलेगा जितना कि पहले मिलता था। जाहिर है यह भ्रम उसी आम धारणा का हिस्सा है जिसके तहत परिपथ में विद्युतधारा संग्रहित नहीं रहती और अवयवों द्वारा खर्च कर दी जाती है।
मामला सिर्फ देश का नहीं
यूरोपीय देशों में छात्रों पर अध्ययन से पता चला है कि स्कूल और यहां तक की कॉलेज में पढ़ रहे भौतिकी के छात्रों में भी यह गलत धारणा काफी व्याप्त है। एक अध्ययन में जब स्कूलों में भौतिकी पढ़ाने हेतु ट्रेनिंग ले रहे भौतिकी और इंजीनियरिंग में स्नातक 18 प्रशिक्षणार्थियों के एक समूह का इस विषय पर परीक्षण लिया तो 7 प्रशिक्षणार्थी इस गलतफहमी का शिकार पाए गए। यानी हम ही नहीं अन्य देश भी इस समस्या से जूझ रहे हैं कि कैसे विद्यार्थियों को करंट प्रवाह की सही समझ दे सकें। पर अब देखना यह है कि हमारे देश के शिक्षाविद इस समस्या से निपटने के लिए दूसरे मुल्कों जितने प्रयास करते हैं या नहीं।
सीमाएं किसी तुलना की
बोलचाल की भाषा में हम कई बार यह कहते हैं कि बिजली या करंट तारों में बहता है। इस विषय को पढ़ाते वक्त भी अक्सर तारों में विद्युत धारा प्रवाह की तुलना, पाइप में पानी के . प्रवाह से की जाती है। इसलिए कॉलेज तक भौतिकी पढ़े कई लोग भी यह मानते पाए गए हैं कि जिस तरह मोटर चालू करते ही खाली पड़े पाइपों में पानी बहने लगता है, उसी तरह किसी बंद परिपथ में बैटरी (या जनरेटर) लगाते ही करंट, बैटरी के एक ध्रुव से निकल कर तारों में से होते हुए बैटरी के दूसरे ध्रुव की ओर बहने लगता है। मिसाल के तौर पर परिपथ-1 के चालू करते ही करंट पहले A बिंदु, फिर B और आखिर में c बिंदु पर पहुंचेगा। यह एक गलत धारणा है। दरअसल जिन कणों के बहने को हम विद्युत धारा प्रवाह कहते हैं वे कण (इलेक्ट्रॉन) तारों में पहले से ही मौजूद होते हैं। जब एक परिपथ चालू होता है तो सबसे पहले तो लगभग प्रकाश की गति से पूरे परिपथ में विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र की स्थापना होती है और यह विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र परिपथ के तारों और अवयवों में मौजूद इलेक्ट्रानों पर एक साथ बल लगाता है, जिसकी वजह से परिपथ के सभी बिंदुओं पर एक साथ ही करंट बहने लगता है। बैटरी या जनरेटर को कार्य तो केवल इस विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र को परिपथ में स्थापित करने का होता है।
शिक्षकों से जब इस बारे में एक सवाल पूछा गया तो जवाब आशा के अनुसार ही निकले। हमने एक कथन दिया था जिसके बारे में कारण सहित बताना था कि वह कथन सही है या नहीं। कथन था
उपर दिए गए परिपथ-1 को चालू करते ही करंट पहले A, फिर B और अंत में C बिंदु पर पहुंचता है।
जवाब देने वाले 165 शिक्षकों में से 134 शिक्षकों ने यानी 81 प्रतिशत ने यह कथन सही माना। केवल 11 शिक्षक ऐसे थे जो मानते थे कि तीनों बिंदुओं पर करंट एक साथ बहेगा। मेरे विचार से हमारे अधिकांश शिक्षक इस बारे में एक गलत धारणा को सच इसलिए मानते हैं क्योंकि विद्युतधारा प्रवाह की पानी के प्रवाह से तुलना करना विद्युत धारा जैसी अमूर्त अवधारणा को समझने के लिए काफी उपयोगी साबित होता है। पानी के प्रवाह से सभी परिचित होते हैं इसलिए बात तुरंत समझ में आ जाती है। साथ ही कभी भी अनुभवों के जरिए या किताबों के द्वारा इस धारणा को चुनौती नहीं मिलती है इसलिए भौतिकी में डिग्री प्राप्त शिक्षक भी यही मान कर विद्युत विषय पढ़ाते रहते हैं। दिक्कत यहीं है कि विद्युत धारा एक ऐसी अमूर्त अवधारणा है। जिसे समझने समझाने के लिए आम जीवन की कुछ उपमाओं का सहारा लेना ही पड़ता है; और यही उपमाएं फिर बाद में कई गलत धारणाओं को जन्म देती रहती हैं। बेहतर तो यही होगा कि हम इन उपमाओं का इस्तेमाल भी करें और इन उपमाओं की सीमाओं से भी विद्यार्थियों को भली भांति अवगत कराते जाएं। वर्तमान में हमारी शिक्षण पद्धति में ऐसे प्रयासों की काफी कमी नज़र आती है।
परिपथ दो किस्म के : श्रेणी-क्रम और समानांतर-क्रम
होशंगाबाद और हरदा जिलों की शालाओं में कक्षा 6 और 7 के विद्यार्थी विद्युत विषय को पढ़ते समय खुद अपने हाथों से बल्बों और सैलों को जोड़ कर श्रेणी-क्रम और समानांतर-क्रम परिपथ बनाते हैं। परिपथ बनाने के बाद बच्चों से यह अपेक्षा होती है कि वे इन दोनों परिपथों की आपस में तुलना करें और बताएं कि किस परिपथ में बल्ब ज्यादा प्रकाश देते हैं। हम उम्मीद कर रहे थे कि अगर यही सवाल शिक्षकों से पूछा जाए तो निश्चित ही अधिकांश शिक्षक इसका सही उत्तर दे पाएंगे। परीक्षण में हमारी उम्मीद खरी उतरी। पर सही उत्तर देने वाले शिक्षकों का प्रतिशत उतना अधिक नहीं निकला जितना कि ऐसे सरल सवाल के लिए होना चाहिए था।
कुल 64 फीसदी शिक्षक ही सही उत्तर दे पाए जबकि 29 फीसदी इस गलत धारणा को सही मानते पाए गए कि श्रेणीक्रम में बल्ब समानांतर क्रम की तुलना में अधिक प्रकाश देंगे। 7 प्रतिशत ने इस सवाल को उत्तरे नहीं दिया। यानी इन जिलों में विज्ञान पढ़ा रहे करीब 36 प्रतिशत शिक्षक ऐसे हैं जो इस बारे में अमित या अस्पष्ट हैं। यह एक काफी बड़ा प्रतिशत है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इस परिणाम से कदाचित यह निष्कर्ष निकालना भी गलत न होगा कि इन दोनों जिलों की करीब 36 प्रतिशत शालाओं में बच्चों से श्रेणीक्रम और समानांतर क्रम परिपथ बनवाए नहीं जा रहे हैं। यह यकीनन एक चिंता का विषय है।
वोल्टेज
हालांकि वोल्टेज' लफ्ज़ का प्रचलन काफी आम है, पर शिक्षकों के मन में इसके अर्थ को लेकर अक्सर काफी भ्रम की स्थिति पाई जाती है। एक सामान्य गलतफहमी यह है कि इसे विद्युत धारा प्रवाह का परिणाम मान लिया जाता है, न कि विद्युतधारा प्रवाह का मूल कारण। यानी अक्सर यह मान लिया जाता है कि जब किसी परिपथ में करंट बहता है तभी उसके किन्हीं बिंदुओं के बीच वोल्टेज मौजूद रहता है अन्यथा नहीं। होशंगाबाद और हरदा जिले के शिक्षकगण भी इस भ्रम से ग्रसित हैं या नहीं इसको परखने के लिए हमने एक छोटा-सा सवाल उनके समक्ष रखा था। सवाल कुछ इस तरह था--
नीचे एक सरल परिपथ दिया गया है--
A और B बिंदुओं के बीच वोल्टेज
- शून्य होगा।
- शून्य से अधिक होगा पर 1.5 वोल्ट से कम।
- 1.5 वोल्ट होगा।
- कुछ कहा नहीं जा सकता।
परीक्षण से स्पष्ट है कि दुनिया भर के स्कूली विद्यार्थियों की भांति हमारे अधिकांश शिक्षक (करीब 73 प्रतिशत) भी यही मानते हैं कि चूंकि उपरोक्त परिपथ टूटा हुआ है और उसमें करंट नहीं बह रहा है इसलिए A और B बिंदुओं के बीच वोल्टेज शून्य ही होगा। केवल 16 प्रतिशत शिक्षकों ने सही अर्थात तीसरा विकल्प चुना।
इसलिए इन लघु-प्रश्नों को करवाने के बाद जब हमने शिक्षकों से ऐसा ही एक परिपथ बनवा कर इन दो बिंदुओं के बीच नपवाया तो वोल्टेज का 1.5 वोल्ट निकलना यकीनन ही अधिकांश के लिए एक अचरज का विषय था। जाहिर है कि बहुत ही कम स्कूली शिक्षक इस बात को समझते। हैं कि किसी भी परिपथ में वोल्टेज करंट को जन्म देता है, न कि करंट वोल्टेज को। इस विषय पर किए गए अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकला है कि विद्यार्थियों में (और संभवतः हमारे शिक्षकों में भी ) इस व्याप्त भ्रम का मूल कारण पाठ्यक्रमों में मौजूद असंतुलन है। अधिकांश पाठ्यक्रमों में शुरू से काफी ऊंची कक्षाओं त क विद्युत विषय पढ़ाते समय विद्युत धारा को ही सबसे मूलभूत और महत्वपूर्ण अवधारणा की तरह प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही आम बोलचाल की भाषा में भी बिजली का परिचायक करंट का बहना माना जाता है, न कि वोल्टेज की मौजूदगी। संभवतः इन्हीं कारणों के चलते वोल्टेज के बारे में विद्यार्थियों और शिक्षकों के मन में इस किस्म की गलत धारणाएं घर कर लेती हैं।
सेलः किसमें कितना दम
विज्ञान अक्सर सहज बोध के खिलाफ जाता प्रतीत होता है। रोजाना ढेर विद्युतीय उपकरणों का इस्तेमाल करके हममें से अधिकतर यह निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि विद्युतीय उपकरण हमेशा एक निश्चित मात्रा में ही विद्युतीय ऊर्जा खर्च करते हैं। यानी अगर किसी परिपथ में अगर एक 100 वॉट का बल्ब लगा हुआ है तो वह हर हाल में प्रति सेकंड 100 जूल ऊर्जा ही खर्च करेगा चाहे परिपथ के अन्य अवयव परिपथ से कैसे भी जुड़े हों। इस बात पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है कि 100 वॉट का बल्ब प्रति सेकंड 100 जूल ऊर्जा तभी खर्च करेगा जब उसे 220 वोल्ट को वोल्टेज प्राप्त होगा, अन्यथा नहीं। विज्ञान शिक्षक इस आम समझ से कितना सहमत हैं इसको परखने के लिए हमने दो सवाल उनके सामने रखे।
- किस परिपथ का सेल जल्दी खर्च होगा?
- किस परिपथ में बल्ब ज्यादा लंबे समय तक जलेगा?
शिक्षकों के उत्तरों से ज़ाहिर है। कि वे भी इस मामले में आम समझ को ही सही मानते हैं। पहले सवाल के उत्तर में लगभग 89 प्रतिशत शिक्षकों ने माना कि दो बल्ब वाले परिपथ का सेल जल्दी खर्च होगा। केवल 7 प्रतिशत शिक्षकों ने सही उत्तर दिया कि एक बल्ब वाले परिपथ का सेल जल्दी खर्च होगा। आम समझ पर शिक्षकों का विश्वास इतना गहरा है कि मासिक गोष्ठियों में अधिकांश शिक्षक सही उत्तर को मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। उन्होंने बात तभी मानी जब वहीं पर उनसे ऐसे दो परिपथ बनवा कर यह प्रयोग करवाया गया।
जाहिर है कि शिक्षकों के मन में यही धारणा है कि हरेक बल्ब एक निश्चित दर से ऊर्जा खर्च करता है। इसलिए उनके लिए यह निष्कर्ष निकालना सहज ही था कि अगर एक बल्ब कुछ निश्चित दर से ऊर्जा खर्च करता है तो श्रेणीक्रम में जुड़े दो बल्ब कुल मिलाकर दुगनी नहीं तो अधिक दर से ही ऊर्जा खर्च करेंगे। जिसके फलस्वरूप दो बल्बों वाले परिपथ का सेल एक बल्ब वाले परिपथ के सेल की तुलना में जल्दी खर्च हो जाएगा। दरअसल ऐसा नतीजा निकालते वक्त अधिकांश लोग इसे सामान्य अवलोकन को नजरअंदाज कर देते हैं कि एक श्रेणी क्रम परिपथ में जितने अधिक बल्ब जुड़े हुए होते हैं, हरेक बल्ब उतना ही कम प्रकाश देता है। कम प्रकाश देता है यानी कम ऊर्जा खर्च करता है। ऐसा नहीं है कि शिक्षकगण इस अवलोकन से परिचित नहीं हैं। बस वो इस जानकारी को निष्कर्ष निकालते वक्त इस्तेमाल नहीं करते, हैं। इस विषय पर शोध भी इसी बात को उभारता है कि अधिकांश विद्यार्थी एक समग्र समझ के अभाव में अलग अलग परिस्थितियों में अलग-अलग किस्म के तर्को और जानकारियों का इस्तेमाल अपनी समझ बनाने के लिए करते हैं। और विभिन्न परिस्थितियों की समझ में परस्पर विरोधाभास संभव है।
इसी तरह दूसरे सवाल में भी अधिकांश (यानी 65 प्रतिशत) शिक्षकों ने यही माना कि दो सेल वाले परिपथ का बल्ब ज्यादा देर तक जलेगा। यह प्रश्न करने के बाद जब शिक्षकों ने खुद प्रयोग करके देखा तो उन्हें काफी आश्चर्य हुआ कि दो सेल वाले परिपथ का बल्ब ही जल्दी बुझे जाता है। यहां भी संभवतः शिक्षकों ने इसी समझ के आधार पर गलत उत्तर चुना होगा कि एक बल्ब एक निश्चित दर से ही ऊर्जा खर्च करता है; इसलिए दो सेल, एक सेल की तुलना में अधिक समय तक उस दर से एक बल्ब को ऊर्जा सप्लाई कर सकेंगे। जबकि होता यह है कि दो सेलों को श्रेणीक्रम में जोड़ने के कारण बल्ब को मिलने वाला वोल्टेज दुगना हो जाता है। जिसकी वजह से परिपथ में करंट (आदर्श परिस्थिति में) दुगना और बल्ब की ऊर्जा इस्तेमाल करने की दर चौगुनी (आदर्श परिस्थिति में) हो जाती है। नतीजतन दो सेल वाले परिपथ के सेल देरी के बजाएं जल्दी ही खर्च हो जाते हैं।
दरअसल ये दोनों सवाल थोड़े कठिन हैं और शिक्षकों से सही उत्तर की उम्मीद करना थोड़ी ज्यादती होगी। इनको प्रश्नावली में बस इसी उद्देश्य से शामिल किया गया था ताकि उनकी समझ में मौजूद विरोधाभास उभरकर सामने आ सकें, और उनका चर्चा और प्रयोगों द्वारा निराकरण हो सके।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर देखा जाए तो शिक्षकों से मिले उत्तर, शिक्षकों में। विद्युत विषय को लेकर मुख्यतः चार किस्म की गलत धारणाओं की मौजूदगी की ओर इशारा करते हैं:
- विद्युत धारा, वोल्टेज और विद्युत ऊर्जा में वे फर्क नहीं कर पाते।
- परिपथ में बह रही विद्युतधारा खर्च हो जाती है।
- परिपथ में बदलाव का असर पूरे परिपथ पर न पड़कर केवल ‘स्थानीय' या फिर बदलाव के स्थान के 'बाद' के हिस्से पर ही पड़ता है।
- डिमांड ही सप्लाई का निर्धारण करती है। यानी एक बल्ब (या और कोई उपकरण) एक निश्चित दर से ही ऊर्जा खर्च करता है, ऊर्जा स्रोत को वोल्टेज भले ही कितना भी हो, और चाहे बल्ब परिपथ में कैसे भी फिट हों।
इस विषय पर किए गए सभी शोध बताते हैं कि दुनिया भर के स्कूली विद्यार्थियों को यह विषय समझने में इन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शिक्षकों की समझ को लेकर इस किस्म के ज्यादा शोध नहीं हुए हैं। पर होशंगाबाद और हरदा जिले के शिक्षकों के उत्तरों के आधार पर शायद यह निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि अधिकांश स्कूली शिक्षक भी इन्हीं गलतफहमियों के शिकार होंगे।
कई अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि आम अनुभवों से उपजे सहज ज्ञान की हमारी समझ पर पकड़ काफी मजबूत होती है। स्कूलों में प्राप्त वैज्ञानिक समझ जब हमारे सहज ज्ञान से मेल नहीं खाती तो ऐसा बहुत ही कम होता है कि हम अपना सहज ज्ञान भुला बैठे।
ज्यादातर तो यही होता है कि हम दोनों किस्म की समझे की स्थितिनुसार इस्तेमाल करते रहते हैं। ‘ऑफिशयल' वैज्ञानिक समझ का कक्षा और इम्तहानों में, और आम जनता की समझ का रोज़मर्रा की परिस्थितियों में। विद्युत विषय के साथ ऐसा ही होता है। बदकिस्मती से हमारे स्कूलों के विज्ञान पाठ्यक्रम ऐसे नहीं होते कि कक्षा में ही हमारी अलग -अलग समझ के विरोधाभास उभर कर सामने आएं और उनका वहीं निराकरण हो सके। दरअसल, यह विषय स्कूली स्तर पर पढ़ना-पढ़ाना उतना सरल नहीं है जितना कि प्रतीत होता है। इसकी सभी प्रमुख अवधारणाएं (करंट, वोल्टेज, प्रतिरोध आदि) अमूर्त किस्म की हैं जिनका सीधा अवलोकन संभव नहीं होता। बस इनके प्रभाव ही हम देख पाते हैं। साथ ही इस विषय को समझाने के लिए अक्सर जिन परिपथों का कक्षाओं में इस्तेमाल किया जाता है उनका रोजमर्रा के जीवन से कोई सरोकार नहीं होता। नतीजतन स्कूली ज्ञान का सहज ज्ञान से जुड़ाव नहीं हो पाता।
स्कूलों में पढ़ा रहे अधिकांश शिक्षक इस विषय को स्कूल स्तर तक ही पढ़ते हैं। इसलिए इस स्तर तक जो समझ बन जाती है उसमें सुधार करने के मौके उन्हें कम ही मिल पाते हैं। होशंगाबाद और हरदा जिले के शिक्षकों को जरूर विशिष्ट विज्ञान प्रशिक्षण दिया जाता है। पर ज़ाहिर है अभी और सुधार की गुंजाइश बाकी है।
तो क्या हम मान लें कि होशंगाबाद और हरदा जिले के बच्चों को स्कूलों में इस विषय की गलत समझ दी जा रही है? शायद नहीं। यह इसलिए कि इन दो जिलों में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के तहत जो विज्ञान पाठ्यक्रम माध्यमिक स्तर पर चल रहा है उसमें जोर इस बात पर नहीं है कि बच्चे आठवीं तक करंट, वोल्टेज जैसी कठिन, अमूर्त अवधारणाओं की समझ बना लें।
इस पाठ्यक्रम में बच्चों से अपेक्षा यह है कि अपने हाथों से बल्बों के परिपथ बनाना सीख लें, प्रयोग द्वारा पदार्थों का चालकता-कुचालकता के आधार पर वर्गीकरण कर सकें और कुछ विद्युतीय प्रभावों का अध्ययन कर लें। यानी पाठ्यक्रम का केंद्र बिंदु रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी विषय की वह मोटी समझ है जो सीधे प्रयोगों द्वारा हासिल की जा सकती है। इसलिए शिक्षक अगर करंट, वोल्टेज आदि को लेकर कई गलतफहमियों के शिकार भी हैं तो संभव है कि इसका बच्चों की समझ पर ज्यादा गलत असर न पड़े। पाठ्यक्रमों में जहां करंट, वोल्टेज आदि पर फोकस अधिक है, वहां जरूर शिक्षकों की गलत समझ के बच्चों तक पहुंचने के आसार अधिक हैं। इसलिए स्कूली शिक्षा के कर्ताधर्ताओं का ध्यान इस ओर जाए यह निहायत ही जरूरी है।
अजय शर्मा: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।
सर्वे के आंकड़ों की कम्प्यूटर फीडिंग में नीलेश मालवीय और आंकड़ों के विश्लेषण में प्रमोद मैथिल का विशेष सहयोग रहा।