नवनीत कुमार गुप्ता
लगातार और लंबे समय तक सिलिका धूलकणों के संपर्क में रहने से सिलिकोसिस रोग होता है। सिलिकोसिस के लक्षण सिलिका धूलकणों के संपर्क में आने के कुछ हफ्तों से लेकर कई वर्षों बाद तक प्रकट हो सकते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 30 लाख लोग सिलिका के संपर्क में रहने का गंभीर जोखिम झेलते हैं। 95 प्रतिशत ज्ञात चट्टानों में सिलिका मुख्य रूप से पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि खनन एवं खदानों में लगे 50 प्रतिशत से अधिक मज़दूरों पर सिलिका के संपर्क का खतरा मंडराता रहता है।
सिलिका कणों के फेफड़ों में पहुंचने पर फेफड़ों में धब्बे पड़ने लगते हैं। खांसी इसका शुरुआती लक्षण है जो सिलिका के निरंतर प्रवेश से बढ़ती जाती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सिलिकोसिस की पुष्टि के लिए पारंपरिक एक्स-रे, मेडिकल हिस्ट्री और स्टैंडर्ड लंग फंक्शन टेस्ट आवश्यक बताए हैं। दुर्भाग्यवश इन जांचों से भी इसकी पुष्टि तभी संभव हो पाती है जब रोग अंतिम चरण में पहुंच चुका होता है।
भारत में सिलिकोसिस के निदान के लिए सही ढंग से एक्स-रे को समझने में प्रशिक्षित व माहिर रेडियोलाजिस्ट की कमी मुख्य चुनौती है। इस रोग से प्रभावित लोगों के सिलिका धूलकणों के लगातार संपर्क में रहने के कारण चिकित्सकों के लिए इसकी रोकथाम और भी मुश्किल हो जाती है। यही नहीं, भारत में ज़्यादातर चिकित्सक पेशेजनित स्वास्थ्य रोगों की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित भी नही हैं।
सिलिकोसिस के रोगियों में अन्य बीमारियों, जैसे टीबी, फेफड़ों में कैंसर और जीर्ण दमा का जोखिम भी बढ़ जाता है। सिलिकोसिस के लक्षण टीबी के लक्षणों से मिलते-जुलते होने के कारण भी इसकी पहचान आसान नहीं है। टीबी रोगाणुओं की घुसपैठ के कारण सिलिकोटिक नोड्यूल्ज़ की गलत पहचान होने से भी सिलिकोसिस के रोगियों के एक्स-रे की व्याख्या करना मुश्किल हो जाता है।
कुल मिलाकर, सिलिकोसिस का जल्दी पता लगाने की कोई भी उपयुक्त निदान पद्धति उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में अहमदाबाद के राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक डॉ. कमलेश सरकार और उनकी टीम ने सिलिकोसिस के लिए एक संभावित बायोमार्कर खोजने पर शोध किया है। उन्होंने फेफड़ों की छोटी-छोटी वायु-थैलियों की कोशिकाओं में पाए जाने वाले खून में क्लब सेल प्रोटीन (cc16) की खोज की है।
भारत और अन्य देशों में अनेक बायोमार्करों पर प्रयोग हुए हैं। लेकिन इनमें से cc16 के अलावा कोई भी इस रोग विशेष से अधिक सम्बंधित नहीं था। यदि cc16 को सिलिकोसिस का पता लगाने वाले बायोमार्कर के रूप में प्रयोग किया जाए तो यह उन लोगों के लिए फायदेमंद होगा जिनमें सिलिकोसिस शुरू हो रहा है। जब सिलिका के कण फेफड़ों में प्रवेश करते हैं, तब वे फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं। जिससे cc16 खून में पहुंचने लगता है। cc16 के स्तर के आधार पर सिलिकोसिस की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है और इसकी रोकथाम के उपाय किए जा सकते हैं। cc16 नामक यह बायोमार्कर सिलिकोसिस निदान की वर्तमान नीति में संशोधन करने के साथ ही, ऐसे रोगियों के लिए स्वास्थ्य योजना तैयार करने का भी आधार बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)