अप्रैल माह में इंडोनेशिया के बजाऊ समुदाय पर हुए अध्ययन ने मानव के चलते हुए विकास का एक आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत करके दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा। इस समुदाय के पुरुष मछली और जलीय जीवों का शिकार करने के लिए अपना अधिकतर समय पानी के अंदर व्यतीत करते हैं। 2015 में इलार्डो ने 59 बजाऊ व्यक्तियों के अध्ययन के आधार पर पाया कि अन्य लोगों की तुलना में बजाऊ समुदाय के लोगों के स्पलीन बड़े होते हैं। ये बड़े स्प्लीन लंबे गोतों के दौरान अतिरिक्त रक्त कोशिकाएं मुक्त करके हाइपॉक्सिया (ऑक्सीजन की कमी) को संभालने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने इसके लिए ज़िम्मेदार एक जीन की पहचान भी की है।
लेकिन सेल में प्रकाशित इस अध्ययन ने इंडोनेशिया में अलग तरह की हलचल पैदा की है। यहां के कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि यह “हवाई शोध” का एक उदाहरण है जिसमें समृद्ध देशों के वैज्ञानिक स्थानीय नियमों और ज़रूरतों की परवाह नहीं करते।
इंडोनेशियाई अधिकारियों के अनुसार शोध दल ने स्थानीय समीक्षा बोर्ड से नैतिक अनुमोदन प्राप्त नहीं किया और बिना अनुमति डीएनए नमूने देश से बाहर ले गया। एक शिकायत यह भी है कि अध्ययन में शामिल एकमात्र स्थानीय शोधकर्ता के पास विकास या आनुवंशिकी में कोई विशेषज्ञता नहीं थी।
लेकिन टीम के प्रमुख, कोपेनहेगन विश्वविद्यालय सेंटर फॉर जियोजेनेटिक्स के निदेशक एस्के विलरस्लेव के अनुसार टीम के पास इंडोनेशिया के सम्बंधित मंत्रालय से अध्ययन करने की अनुमति थी और डेनमार्क नैतिकता समिति से भी नैतिक मंज़ूरी मिली थी। उन्हें यह बताया गया था कि मंत्रालय से मिली अनुमति में सभी स्थानीय अनुमतियां भी शामिल हैं। लेकिन वास्तव में टीम को इंडोनेशिया के एक नैतिक पैनल से भी अनुमोदन लेना चाहिए था; चिकित्सा विज्ञान शोध सम्बंधी अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देश भी स्थानीय अनुमोदन की मांग करते हैं।
इस अध्ययन में शामिल रही इलार्डो ने मंत्रालय के साथ एक सामग्री स्थानांतरण समझौता भी संलग्न किया था। लेकिन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट, जकार्ता के अध्यक्ष सिस्वान्टो ने बताया कि टीम को मानव डीएनए के हस्तांतरण के लिए इस संस्था से मंज़ूरी लेनी चाहिए थी। इलार्डो का कहना है कि यह बात पहले ही बता देना चाहिए था।
इंडोनेशिया के संस्थानों ने उचित सहयोग की कमी, स्थानीय लोगों को शोध में न रखना, छोटे प्राइवेट संस्थानों के शोधकर्ता को शामिल करने जैसी समस्याओं का भी उल्लेख किया है। इन सब समस्याओं से विदेशी अनुसंधान को लेकर चिताएं झलकती हैं। भारत में भी कई विदेशी संस्थान शोध कार्य करते हैं। और कई बार ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं। लिहाज़ा कोई प्रोटोकॉल बनाया जाना ज़रूरी लगता है। (स्रोत फीचर्स)