को छुएंगे, उसे नष्ट कर देंगे और इसलिए उन्हें ऐसी किसी चीज़ को नहीं छूने देना चाहिए जो उनकी नहीं है। ऐसा करने से उनकी जिज्ञासा और आत्मविश्वास को ठेस पहुंचती है। इसके अलावा वे अपनी चीज़ों को लेकर ज़्यादा ही अधिकार जताने लगते हैं उन्हें आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते। हो जाते हैं। मेरा ख्याल है कि हम उन्हें ये सिखाने की कोशिश करें कि सम्पत्ति का आद करने का मतलब यह नहीं है कि जो चीज़ तुम्हारी नहीं है उसे कभी न छुओ। इसका मतलब यह है कि चीज़ों को सावधानी से संभाला जाए, उनका उपयोग निर्धारित तरह से किया जाए और यथास्थान वापस रखा जाए। बच्चे ये बातें बखूबी सीख सकते हैं। वे हमारी कल्पना से कम विनाशकारी और बेढंगे होते हैं। और चीज़ों को हैण्डल करने का सही तरीका बच्चे तभी सीख पाएंगे जब वे उन्हें कीमती योगदान हैं। इनमें से एक यह है कि उन्होंने यह दिखा दिया कि बच्चों को अंग संचालन सिखाया जा सकता है - बर्फ मौज-मस्ती के तौर पर नहीं बल्कि प्रवीणता से, सटीकता से और आहिस्ता से।
(अनुवाद:सुशील जोशी—विज्ञान एवं पर्यावरण विषयों पर सतत लेखन, होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम में सक्रिय)
‘हाउ चिलड्रन लर्न’ का हिंदी अनुवाद ‘बच्चे कैसे सीखते हैं’ शीघ्र ही एकलव्य द्वारा प्रकाशित होने वाला है।
जॉन होल्ट दुनिया के जाने माने शिक्षाविद थे। होल्ट का देहांत 14 सितम्बर 1985 को हुआ। 1982 में उनकी बाईं जांघ में ट्यूमर हुआ जिसका इलाज होल्ट ने स्वयं करने की ठानी आधुनिक चिकित्सा प्रणाली और संस्थाओं पर से उनका विश्वास उठ चुका था। कैंसर के इलाज के लिए उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में विटामिन-सी खाना शुरू किया। 1984 में ट्यूमर को सर्जरी से निकालना पड़ा।
होल्ट की मृत्यु के बाद उनके लिखे लगभग 90 पत्रों का एक संलकन सिलेक्टड लेटर्स ऑफ जॉन होल्ट: ए लाइफ वर्थ लिविंग के नाम से छपा। पत्र लिखने से होल्ट माहिर थे और अपने जीवन काल में ही उन्होंने हज़ारों पत्र लिखे होगे। इन पत्रों में हमें जॉन होल्ट के जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में जानकारियां मिलती हैं।
तमाम लोग शिक्षक का पेशा इसलिए अपनाते हैं क्योंकि उनके पास जीवन में कोई विकल्प नहीं होता। दुनिया में ऐसे खुशनसीब कम ही हैं जो अपने शौक और सपनों के ज़रिए अपनी आजीविका चला पाते हैं। होल्ट उन बिरले लोगों में से थे जिन्होंने अपने शौक को अपना पेशा भी बनाया। वे शायद बच्चों को इतनी संवेदना से इसलिए भी देख पाए क्योंकि वे पेशे से शिक्षक नहीं थे। 1943 में दूसरे महायुद्ध के दौरान, जब होल्ट 20 वर्ष के थे तब उन्होंने अमेरिकी जलसेना की एक पनडुब्बी में 3 साल काम किया। उन्होंने लड़ाई देखी और उसमें हुई तबाही भी। युद्ध से त्रस्त होकर उन्होंने ‘वल्र्ड गवर्नमेंट मूवमेंट’ के लिए काम किया। इस दौरान उन्होंने काफी कुछ लिखा और लेक्चर्स देने के लिए काम किया। इस दौरान उन्होंने काफी कुछ लिखा और लेक्चर्स देने के लिए पूरा यूरोप घूमे। 1952 में अपनी बहन जेन पिचर के आग्रह पर वे रॉकी माउन्टेन स्कूल, कोलेरेडो, अमेरिका गए। इस स्कूल में चार साल पढ़ाने के बाद होल्ट ने कुछ स्कूलों में भी पढ़ाया1 वे बच्चों के करतबों और हरकतों को अपनी डायरी में दर्ज़ करते जाते। ‘हाउ चिलड्रन फेल’ पुस्तक दरअसल उनकी डायरी का एक अंश थी।
1964 में जब ‘हाउ चिलड्रन फेल’ छपी तब उससे शिक्षा जगत में एक तहलका-सा मचा। शिक्षा पर यह एक नायाब किताब थी। एकदम बेबाक और सुन्दर। होल्ट गज़ब का लिखते थे।
इस दौरान होल्ट के तमाम जिगरी दोस्त बने। होल्ट ने बहुत घुमक्कड़ी भी की, कभी हार्वर्ड विश्वविद्यालय, तो कभी सिडको/मेक्सिको में। होल्ट की खोज उन्हें तमाम जगह ले गई। वे एक ऐसे स्कूल की खोज में थे जहां बच्चों की प्राकृतिक प्रतिभाओं को फलने-फूलने का मौका मिलता हो। सारी ज़िंदगी वे ‘खुशियों का स्कूल’ तलाशते रहे। होल्ट के सपनों के सबसे करीब का स्कूल शायद ‘लिटिल न्यू स्कूल’ हॉलैंड में था। इस स्कूल का विस्तृत और सजीव वर्णन होल्ट ने अपनी पुस्तक ‘दी अंडरअचीविंग स्कूल’ में किया। बाद में होल्ट की मित्री पैगी ने इस स्कूल पर एक सुंदर फिल्म बनाई जिसका नाम रखा गया ‘वी हैव गॉट टू काल इट ए स्कूल’।
होल्ट ने शादी नहीं की। लोग उनसे बार-बार पूछते ‘आप के खुद के बाल-बच्चे हैं नहीं फिर आप बच्चों के बारे में इतनी गहराई से कैसे जानते हैं? होल्ट वैसे एक संपन्न परिवार में जन्मे थे परन्तु उन्होंने अपने सिद्धांतों के अनुसार अत्यंत सादगी का जीवन बिताया। आधुनिक और बड़ी संस्थाओं और उपभोक्तावाद से उन्हें चिढ़ थी।
स्कूलों में बदलाव के लिए बीस बरस तक लगातार श्रम करने के बाद होल्ट के विचारों में खुद काफी बदलाव आया। उन्हें स्कूल रूपी संस्था की उपयोगिता खत्म होती दिखाई दी।
उन्हें लगने लगा कि जब कोई संस्था काम करना बंद कर दे तब उस संस्था में दोबारा प्राण फूंकने की बजाए अच्छा यही होगा कि उस संस्था के बगैर काम चलाओं। 1975 में होल्ट स्कूल में बदलाव लाने के बजाए ‘स्कूल बंद करो’ के पक्षघर हो गए। उन्होंने संवेदनशील मां-बापों से कहा कि अगर आप स्कूल द्वारा किए गए अत्याचारों को सहन नहीं कर पा रहे हैं तो अपने बच्चों को स्कूल से निकालिए और उन्हें खुद पढ़ाइए। आप से अच्छा इन्हें दुनिया का कौन शिक्षक समझ सकता है। ‘होम स्कूलिंग’ को बढ़ावा देने के लिए 1975 में होल्ट ने ‘ग्रोइंग विदाऊट स्कूलिंग’ द्विमासिक पत्रिका की शुरुआत की। यह अपने तरह की सारी दुनिया की अनूठी पत्रिका है। इसमें तमाम संवेदनशील मां-बाप अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर खुद के अनुभवों को लिखते हैं।
अमेरिका में रहते हुए होल्ट का पुस्तकों के व्यवसायिक पक्ष से भी टकराव हुआ। होल्ट की एक नई-पुस्तक को किसी प्रकाशक ने छापा। पुस्तक पढ़कर कई पाठकों ने होल्ट को अपनी प्रतिक्रयाएं भेजी। कई पाठकों ने समीक्षा पढ़ी पर तमाम कोशिशें के बावजूद भी उन्हें किताब नहीं मिल पाई। दरअसल हुआ यह कि जब शुरू में किताब अच्छी नहीं बिक्री तो प्रकाशक ने सारी बकाया प्रतियों की लुगदी बना दी। होल्ट को इससे एक बड़ा धक्का लगा। होल्ट को लगा कि ऐसा ही हश्र न जाने कितनी ही अन्य अच्छी पुस्तकों के साथ होता होगा। इसके बाद होल्ट को जहां कहीं भी शिक्षा पर कोई अच्छी पुस्तक दिखती, वे तुरन्त उसकी 100-200 प्रतियां खरीद लेते। वे इन किताबों की समीक्षा तो लिखते ही, परन्तु उन्हें अन्य लोगों को भी उपलब्ध करवाते। प्रसिद्ध जापानी पुस्तक ‘तोत्तोचान’ की एक अत्यंत मार्मिक समीक्षा होल्ट ने लिखी, जो ‘ग्रोर्इंग विदाऊट स्कूलिंग’ में छपी। होल्ट की मृत्यु के बाद उनके द्वारा लिखी गई बहुत सारी पुस्तकों की समीक्षाओं को संकलित करके ‘शेररिंग ट्रेज़र्स’ नामक किताब में छपवाया जो नायाब थीं पर आर्थिक कारणों से जिन्हें कोई छापने को तैयार न था।
अरविंद गुप्ता
(अरविंद गुप्ता - विज्ञान व अन्य विषयों पर स्वतंत्र लेखन, नई दिल्ली में रहते हैं।)