अनिता रामपाल
हवा को लेकर एक अध्याय चल रहा था। शिक्षक ने मशीनी ढंग से कुछ तथ्यों का उच्चारण किया और काफी कर्मठता से पाठ्य-पुस्तकों में लिखी बातों को दोहराया। एक सांस में हवा के सारे गुणधर्म बाहर आ गए:
“हवा सब जगह है।”
“हवा स्थान घेरती है।”
“हवा की अपनी कोई आकृति नहीं होती।”
“हवा गैसों का मिश्रण है।”
“गैस, पदार्थ की एक अवस्था है।”
इन में से हर एक वाक्य ब्राह्यावाक्य है जिसे समझने की कोशिश किए बगैर निष्ठापूर्वक दोहराया जाता है। वास्तव में आठ साल के बच्चों से ऐसे वाक्य ज़ोर-ज़ोर से मंत्रों की तरह बुलवाए-रटवाए जाते हैं। यदि वे कोशिश करें तो भी ऐसे गूढ़ वाक्यों का सिर-पैर नहीं समझ पांएगे।
हवा जैसी अमूर्त अवधारणा को तीसरी-चौथी में पढ़ाने लगना कितना सही है? उस उम्र में रटे हुए ब्राह्यावाक्यों से बच्चों की क्या समझ बनती है? क्या बच्चों की उम्र और उनकी समझ पाने की क्षमता में कोई संबंध है? ऐसे सवालों को लेकर विभिन्न कक्षाओं में बच्चों के साथ की गई बातचीत का विश्लेषण।
“हवा सब जगह है।” क्या वाकई है? मैंने बच्चों से पूछा, “क्या तुम्हारे झोले में भी हवा है?” अधिकतर ने साफ इंकार कर दिया। कुछ जिज्ञासु, ऊधमी बच्चों ने ज़रूर अपने झोलों में झांककर देख लिया कि कहीं गुपचुप हवा अंदर घुस तो नहीं गई।
कक्षा सात के (12 वर्षीय) बच्चों का भी मानना था कि “खाली गिलास में हवा नहीं है।” उनसे वह प्रयोग करने को कहा गया था जिसमें एक गिलास के पेंदे में कागज़ ठूंसकर उसे औंधा करके पानी में डुबोने पर भी कागज़ सूखा ही रहता है। इस प्रयोग से पता चलता है कि गिलास में हवा तब घुस गई होगी जब उसे औंधा करके डुबाया जा रहा था। दिलचस्प बात ये है कि 12 वर्षीय बच्चों के एक अन्य समूह ने भी यही प्रयोग किया और नाटकीय रूप में यह निष्कर्ष निकाला कि - खाली बर्तन में हवा होती है। यह निष्कर्ष बेशक सही था मगर यहां भी बच्चों की हवा के स्थान घेरने के बारे में कोई समझ बनती नहीं दिखाई दी।
प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को ऐसे सैद्धांतिक सूत्र देने की निरर्थकता आसानी से समझ में आती है। विभिन्न देशों में किए गए अनुसंसाधनों से पता चलता है कि 12-14 साल के बच्चे भी इस सूत्र को स्वीकार नहीं कर पाते कि हवा हर जगह है। उनका मानना है कि बंद बर्तन या पिचके टायर में हवा नहीं हो सकती। यह देखा गया हे कि बच्चे हवा को आमतौर पर गति या बहाव से जोड़कर देखते हैं, जैसे बहती हुई हवा।
यानी यदि आपको गिलास में हवा भरनी है तो हमें गिलास का मुंह हवा की उल्टी दिशा में करके दौड़ना होगा। तब क्यों हम ‘ईश्वर सर्वत्र है’ की तर्ज़ पर ‘हवा सब जगह है’ का राग अलापते जाते हैं? जिस तरह प्रथम वाक्य पर कोई सवाल नहीं हो सकता, वह किसी सत्यापन का मोहताज़ नहीं है, उसे आस्था के साथ स्वीकार करना होता है, ठीक उसी तरह के रुतबे की मांग ‘हवा का सब जगह होना’ भी करता है। आखिर विज्ञान शिक्षण संबंधी लेखन में क्यों ऐसे ‘ज्ञान कैप्सूलों’ का चलन ज़ारी है, जो बच्चों का सहज तर्क क्षमता को नकारते हैं। वास्तव में इस लेखन को हम जितना नज़दीक से देखते हैं, उतना ही यह बच्चों की कुदरती शैली और अभिव्यक्ति से बेगाना नज़र आता है। इसकी वजह से बच्चे क्रमश: खामोश होते जाते हैं और प्रश्न उठाने या आलोचना करने की उनकी क्षमता कुंद होती जाती है। ऊपर से, सीखने वाले को कोई चीज़ समझ में न जाए या वह विमुख हो जाए तो इसे उसकी निजी खामी करार दिया जाता है। बच्चे की भाषा से जूझ नहीं पाते तो इसे अपनी अकल का अभाव मान लेते हैं। लेखन में निहित संवाद की दिक्कतों पर कदापि उंगली नहीं उठाई जाती। उदाहरण के लिए मौसम से संबंधित पाठों में यह बताया जाता है कि धूप के कारण पृथ्वी के पास की हवा गर्म हो जाती है। गर्म हवा ऊपर उठने लगती है और ठंडी हवा आकर उसकी जगह ले लेती हैं। ठंडी हवा गर्म हवा को धकेल देती है। यह बात समझने के लिए रेखाचित्र भी बना होता है।
इसे समझने के लिए बनाए गए चित्र में तीन सांकेतिक वक्राकार तीन बनाकर उन पर लिखा गया है कि ‘गर्म हवा ठंडी होने पर नीचे आती है’ और ‘ठंडी हवा गर्म हवा द्वारा घेरी गई जगह में पहुंच जाती है।’
ज़ाहिर है कि यह भाषा छोटे बच्चों के लिए नहीं लिखी गई है। हर वाक्य कई जटिल अवधाणाओं की श्रृंखला प्रस्तुत करता है, जो आपस में कई सारी उप-अवधारणाओं के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। मसलन इस वाक्य का क्या अर्थ लगाया जाए कि ‘गर्म हवा ठंडी होने पर नीचे आती है।’ इस अवधारणा से अपरिचित किसी वयस्क को भी कई सारी उप-अवधारणाओं का सहारा लेना पड़ेगा। और इस प्रक्रिया में हवा के गर्म होने, पृथ्वी की गर्मी हवा को दिए जाने, गर्म होने पर हवा का फैलाव यानी आयतन में वृद्धि, परिणामस्वरूप इसका कम घना होना, अपेक्षाकृत ठंडी हवा के ऊपर इसका तैरना तथा एक बार ऊपर जाने के बाद यह गर्म हवा कैसे अपनी गर्मी गंवाती है और इसकी गति की दिशा बदलती है आदि जैसी अनेकों उप-अवधारणाएं उजागर होती जाएंगी। इसमें से कोई भी उप-अवधारणा इस उम्र के बच्चे पचा नहीं पाते। लिहाज़ा या कदापि उचित नहीं है कि बच्चे विज्ञान शिक्षा के नाम पर ऐसी लू के थेपेड़े सहें।
तीसरी की विज्ञान की किताब में दिए गए दो और चित्र; पानी का गिरना (बाएं); पानी चक्र (दाएं)।
‘जलवाष्प पानी का गैसीय रूप है’ और ‘गीली वस्तुएं सूखती हैं, जब उनमें उपस्थित पानी जलवाष्प बनकर वातावरण में चला जाता है’ जैसे कथन भी फर्जी व्याख्या के नाम पर सूक्तियों जैसे हैं। सात वर्ष का एक बच्चा पूछता है, ‘यह जलवाष्प कया है?’ और उसकी पाठ्य-पुस्तक में दिया गया और शिक्षक द्वारा दोहराया जाने वाला जवाब है कि, ‘जलवाष्प जल का गैसीय रूप है।’ यह कथन मात्र एक शब्द को दूसरे शब्दों में व्यक्त करने का तरीका है। यह कोई व्याख्या नहीं है। क्या किसी ने यह जानने की ज़हमत उठाई है कि बच्चे ‘पानी का गैसी रूप’ से क्या समझते हैं?
क्यों ‘व्याख्या’ या ‘परिभाषा’ के नाम पर इन वाक्यों का इस्तेमाल करके बच्चों की समझने की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया जाता है? हमारे विशेषज्ञों की विषय सूची में ‘समझ’ को कभी जगह मिली ही नहीं है और इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चे समझ नहीं पाते। आपने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि बच्चे कई मर्तबा इन शब्दों का उच्चारण तक नहीं कर पाते।
बच्चे और हवा का दबाव
हवा के दबाव की अवधारणा काफी मुश्किल है। 14 वर्ष उम्र तक के बच्चे दबाव को गति से संबंधित मानते हैं क्योंकि वे बल को भी गति के साथ जोड़कर देखते हैं। गतिविधि आधारित खोज पद्धति के अनुरूप तैयार होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में, कक्षा-7 की पाठ्य-पुस्तक ‘बाल वैज्ञानिक’ में ‘हवा’ से संबंधित एक अध्याय है। इस पाठ में कई सारे प्रयोग दिए हैं, जो बच्चे स्वयं करते हैं। परन्तु इनके आधार पर बहुत सारे निष्कर्ष निकालने को नहीं कहा गया है। इसी पुस्तक के अन्य अध्यायों में जब बच्चे प्रयोग करते हैं तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे उनके आधार पर गुणधर्मो या सिद्धांतों पर गहराई से चर्चा करेंगे और लिखेंगे। मगर ‘हवा’ में पाठ में मात्र उम्मीद यह है कि वे अहसास के स्तर पर कुछ समझ बना पाएंगे। वे कुछ आसान सवालों के उत्तर ज़रूर खोजते हैं परन्तु सिर्फ अपने लिए। कोई मानक उत्तर हासिल करने के लिए नहीं। अध्याय के उपशीर्षकों में ज़रूर लिखा है कि ‘हवा के दबाव के प्रयोग’ मगर यह समझाने का कोई आग्रह नहीं है कि हवा के दबाव का अर्थ क्या होता है।
एक प्रयोग में बच्चे किताबों के एक ढेर के नीचे पोलीथीन की थैली को फुलाकर किताबों को ऊपर उठा देते हैं। इसके बाद उन्हें ‘बल और भार’ नामक अध्याय की याद दिलाई जाती है और सरसरी तौर पर यह ज़िक्र किया जाता है कि थैली में भरी हवा दबाव डालती है और किताबों को ऊपर उठा देती है। उम्मीद यह है कि गुब्बारों से खेलते हुए या सिरिंज, शीशियों या अपने द्वारा बनाए गए हैण्ड-पम्प आदि से खेलते हुए वे इन विचारों के प्रति एक अहसास बना पाएंगे और इन्हें स्पष्ट रूप में व्यक्त करने का काम किसी अगले पड़ाव पर करेंगे।
कहां है हवा?
बाल वैज्ञानिक का पाठ ऐसे शुरू होता है
बैसाख-जेठ की गर्म हवाओं को बाद आषाढ़ की पानी भरी हवाएं तुम्हें ज़रूर याद होंगी। और जाड़े की रातों में उसी हवा से हड्डियों तक को ठंड लगती है। जब हवा पीछे से हो तो साइकल बिना ज़ोर लगाए ही सरपट भागी जाती है। जब सामने की हवा होती है तो वही साइकल चलाने में दम फूल जाता है। यही वहा अंधड़ों के रूप में धूल, कंकड़ से आकाश भर देती है और कभी-कभी तो बड़े-बड़े पेड़ तक उखाड़ फेंकती है। हवा के ऐसे कई चमत्कार तुम्हारे दिमाग में ज़रूर आ रहे होंगे।
परंतु यदि हवा बिल्कुल नहीं बह रही हो, तो तुम कैसे पहचानोगे कि किसी स्थान पर हवा है कि नहीं? एक पेड़ के नीचे जिसकी एक भी पत्ती नहीं हिल रही? एक कमरे में? एक खाली गिलास में? एक बंद बोतल में? एक कांच की नली में?
हवा को हम देख नहीं सकते पर ऐसे प्रयोग ज़रूर कर सकते हैं जिनसे बगैर देखे भी हमें हवा के गुणों के बारे में बहुत कुछ मालूम हो सकता है।
चूंकि होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में परीक्षा खुली किताब प्रणाली से होती है इसलिए यह आशंका भी नहीं रहती कि उनसे चंद गूढ़ वाक्य दोहराने को कहा जाएगा। खुली किताब परीक्षा होने पर प्रश्नों की पकृति ही बदल जाती है।
हवा के अध्याय का उपरोक्त स्वरूप तय करने के आधार में है बच्चों के साथ हुए कई अनुभव।
जैसे कक्षा में जब पूछा जाता है कि उन्हें हवा की उपस्थिति का पता कैसे चलता है, तो वे तत्काल जवाब देते हैं:
‘हवा में धूल उड़ाकर’
‘पतंग उड़ाकर’
‘जब सांस लेते हैं’, वगैरह।
परन्तु जब हवा बिल्कुल ठहरी हुई हो, जैसी किसी पेड़ के नीचे, तो कैसे पता चलता है? या किसी कमरे के अन्दर? ये सरल से सवाल उनकी किताब में ही चर्चा शुरू करने के लिहाज़ से दिए गए हैं।
एक बच्चे ने कुछ देर सोचकर कहा, ‘हम लाइट में धूल देख सकते हैं।’
यह कहते हुए उसने खिड़की से आ रही धूप में चमकते धूल के कणों की ओर इशारा किया। उसके जवाब से स्पष्ट था कि बहती हवा क तरह यहां भी हम किसी गोचर (दर्शनीय) प्रभाव को ही खोज रहे हैं। अलबत्ता वे अभी भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे कि बंद कमरे के अंदर भी हवा है। अंतत: उनके शिक्षक ने उनसे हाथ हिलाकर हवा महसूस करने को कहा। सबके सब इस मज़ेदार काम में मशगूल हो गए।
बाल वैज्ञानिक का हवा वाला प्रयोग
हवा का दबाव:प्रयोग-1: मोटे प्लास्टिक की एक थैली लो। आजकल जिन थैलियों में दूध मिलता है वैसी थैली अच्छी रहेगी। चित्र में दिखाए अनुसार एक कांच की नली या पुराने बॉल पेन का मुंह इस थैली में डालकर धागे या वॉल्व ट्यूब से कसकर बांध दो। थैली के ऊपर एक-दो किताबें रखो। अब नली से फूंक मारकर थैली में हवा भर दो।
थैली में हवा भरने पर क्या हुआ?
पुस्तकों पर नीचे की ओर गुरुत्व बल लग रहा होगा - ऐसा तुमने छठी कक्षा में ‘बल और भार’ अध्याय में सीखा था। पुस्तकों को ऊपर उठाने के लिए उन पर गुरुत्व बल की विपरीत दिशा में कोई बल ज़रूर लगा है।
थैली में भरी हवा थैली के अंदर की सतहों पर दबाव लगाती है, जिससे पुस्तकें ऊपर को उठ जाती हैं।
प्रयोग-2: एक रबर की नली लो और उसके एक सिरे पर फुग्गा चढ़ा कर उसे धागे से कसकर बांध लो। रबर नली द्वारा फूंक कर फुग्गे को फुला लो और उसके खुले मुंह को मोड़ कर बंद कर लो जिससे फुग्गे से हवा निकलने न पाए। अब रबर की नली के बंद किए हुए सिरे को पानी से भरे बर्तन में डुबोकर उसका मुंह खोल दो।
फुग्गे से निकली हुई हवा का तुम्हें कैसे पता चलता है?
फुग्गे से हवा क्यों निकली?
ऊपर किए प्रयोग में हवा के बुलबुले ऊपर की ओर क्यों उठते हैं?
यदि साइकल की ट्यूब में पंक्चर हो जाए तो तुम उसे कैसे टूंढोगे?
मैंने कई तरह से कोशिश की कि उनके जवाबों से यह समझ पाऊं कि वे हवा के दबाव के बारे में क्या सोचते हैं। बार-बार मुझे यही पता चला कि अपने आप वे कभी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते और न ही इस बाबत उनकी कोई पक्की, सहज धारणा ही है।
मसलन, इस आसान से सवाल को ही लें - “जब फूले हुए गुब्बारे का मुंह खोलते हैं तो हवा तुरन्त बाहर क्यों निकल जाती है?” इसके कई जवाब आए:
‘लीक हो जाती है।’
‘हवा से हवा मिल जाती है।’
‘हमने मुंह खोल दिया था।’
‘वही रास्ता मिला।’
‘बाहर की हवा से मिलना चाहती है।’
‘फुग्गा में समा नहीं पाती।’
जब मैंने बार-बार यह पूछा कि फुग्गे की हवा बाहर क्यों निकलती है जबकि गिलास की हवा नहीं निकलती तो जवाब आया, ‘हमने यह हवा भरी तो थी, यह हमारे अंदर की हवा थी और बाहर निकनलना चाहती है।’
चाहे जितनी कोशिश की कि वे यह देख पाएं कि अंदर की हवा ज़्यादा ‘दबाव’ पर थी, मगर उन्होंने इस पर ध्यान देने से इन्कार कर दिया। दबाव की बात के सबसे निकट जो बात उन्होंने कही वह फुग्गे के तना होने की थी।
एक अन्य सवाल नली में से पानी खींचने या उसमें फूंकने से संबंधित था। उन्होंने बस इतना कहा, “हम हवा खींचते हैं तो पानी भी साथ में खिंच जाता है। ”
इसी पुस्तक में एक सुन्दर प्रयोग है जिसमें बोतल में लगी एक नली में से हवा खींचने पर दूसरी नली में से हवा खींचने पर दूसरी नली पर लगा फुग्गा फूल जाता है। इसका असर काफी नाटकीय होता है। यह अवलोकन अनपेक्षित है तथा बच्चे इस पर सोचने को प्रेरित होते हैं। बहरहाल इसके जवाब भी अस्पष्ट ‘यहां की हवा’और ‘वहां की हवा’ कह कर संक्षिप्त व अस्पष्ट रूप में दिए जाते हैं। एक लड़की लालिमा (उम्र 13 वर्ष) ने काफी स्पष्ट उत्तर दिया मगर उसने भी हवा के दबाव की नहीं, मात्रा की बात कही:
“जब हम खींचते हैं तो बोतल की हवा बाहर आ जाती है। अन्दर की हवा कम हो जाती है और बाहर की हवा दूसरी नली से अन्दर आती है और फुग्गा फूल जाता है।”
ज़ाहिर है कि बच्चे स्वाभाविक रूप से हवा के दबाव के बारे में नहीं सोचते। खासतौर से जब हवा थमी हुई है या संतुलन की स्थिति में है तब तो वे दबाव की बात सोच ही नहीं सकते। जब हवा किसी दृश्य प्रभाव के बगैर उपस्थित हो, तो वे हवा के बारे में सोचना भी मुश्किल पाते हैं। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि उन्हें अपने विचारों को टटोलने का मौका मिले, वे अपने विचार आज़ादी से और बेखौफ मुखर कर सकें। स्पष्टता व सटीकता को प्रोत्साहित करने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें बोलकर सोचने का मौका मिले और अनौपचारिक रूप से आज़माइशी भाषा का उपयोग करने की छूट मिले। अन् नत: छात्रों को विज्ञान की एक बेगानी भावभंगिमा से परिचित होना ही पड़ेगा और वे शायद उस पर महारत भी हासिल करें। परन्तु सहज बुद्धि के विपरीत जाने वाली अवधारणाओं, की समझ को काफी हद तक आत्मसात कर चुकें।
एक व्यापक समस्या
12 वर्षीय फ्रांसीसी बच्चों पर किए गए एक अध्ययन से भी पता चला कि वे भी हवा को आमतौर पर गति से जोड़कर ही देखते हैं और “बच्चों को जब तक स्कूल में गैसों के साथ प्रयोग करने का मौका न मिले, तब तक दबाव एक ‘पेचीदा’ व कमोबेश अनजाना शब्द रहता है।” बदनसीबी से हमारे यहां के बच्चों को स्कूलों में ये प्रयोग करना तो दूर, देखने तक का मौका नहीं मिलता। इसके विपरीत उन्हें बचपन से ही ऐसे शब्द और जुमले बोलने पर विवश किया जाता है जिन्हें वे समझते नहीं। इस प्रकार से उन्हें ही कथनों का अर्थ न समझने की ‘शिक्षा’ दी जाती है।
वायुमण्डल का दबाव एक ऐसी अवधारणा है जो बच्चों व वयस्कों दोनों को समान रूप से भ्रमित करती है। इंग्लैण्ड में 15 वर्षीय बच्चों के साथ किए गए एक अध्ययन से उजागर हुआ कि उन्हें भी इस अवधारणा से जुड़े सवालों के जवाब देने में दिक्कत आती है।
वायुमण्डल का दबाव एक ऐसी अवधारणा है जो बच्चों व वयस्कों दोनों को समान रूप से भ्रमित करती है। इंग्लैण्ड में 15 वर्षीय बच्चों के साथ किए गए एक अध्ययन से उजागर हुआ कि उन्हें भी इस अवधारणा से जुड़े सवालों के जवाब देने में दिक्कत आती है। जिन सवालों का संबंध इस बात से था कि किसी बर्तन में अंदर हवा का दबाव बाहर से ज़्यादा था, तो उनके जवाब में मात्र 20 प्रतिशत छात्रों ने ही वायुमंडल के दबाव का ज़िक्र किया। 12,14 व 16 वर्षीय छात्रों के साथ किए गए अन्य अध्ययनों का भी निष्कर्ष है कि ‘स्ट्रॉ’ से पानी पीने, के सवाल पर छात्र ‘निर्वात पानी को खींच लेता है’ जैसे जुमलों का ही उपयोग करते हैं, जबकि प्रश्न में यह साफ लिखा था कि उन्हें वायुमण्डलीय दबाव की अवधारणा का उपयोग करके जवाब देना है।
दरअसल हमने यह भी देखा है कि शिक्षकों को भी वायुमण्डलीय दबाव, निर्वात आदि अवधारणाएं समझने में दिक्कत होती है। कई मर्तबा वे इन शब्दों को समझे बगैर ही इनका इस्तेमाल करते हैं। शिक्षक खुद भी इसी प्रणाली की उपज हैं और स्वाभाविक रूप से उन्हें भी यह समझने का मौका कभी नहीं मिला कि ‘समझ’ क्या होती है। और पहले कभी उन पर यह दबाव भी नहीं डाला गया कि इन बातों पर विचार करें। वे खुद भी प्राय: ‘निर्वात की चूषण क्षमता’ या ‘अन्दर कम हवा पानी को खींचती है’ जैसे आधारों पर ही सोचते हैं।
मुझे याद है कि जब मैं जामिया मिलिया इस्लामिया में भावी शिक्षकों को पढ़ाया करती थी तो हम ‘मौखिक विवरण’ के लम्बे-लम्बे सत्र चलाते थे। इसमें पानी का पम्प कैसे काम करता है एक पसंदीदा विषय होता था। हर प्रशिक्षु जोश में आकर इस प्रश्न की कोई सरल मगर अपर्याप्त व्याख्या पेश करता था। अलबत्ता अक्सर वे यह समझ जाते थे कि वे तार्किक श्रृंखला की कोई महत्वपूर्ण कड़ी का संबंध दबाव में अंतर से होता था।
जब इन बात के इतने सबूत हैं कि ये अवधारणाएं और जुमले वयस्कों के लिए भी समस्यामूलक हैं, तब क्यों हम प्राइमरी स्कूल के बच्चों के दिमाग में दबा-दबाकर इन्हें ठूंसे चले जा रहे हैं? क्या हमें इस बात की कोई परवाह नहीं कि इससे उनका कितना नुकसान हो सकता है? क्या हमें कोई चिन्ता नहीं कि इससे वे समझने की क्षमता खोते जा रहे हैं, और स्कूल तक छोड़ रहे हैं?
हम समझे देरी से
'समझ में न आने' की बात को हमारे देश में पिछले चंद वर्षों में ही महत्व दिया जाने लगा है। कई सर्वेक्षणों व अध्ययनों से पता चला है कि बच्चों के स्कूल न आने या छोड़कर चले जाने का एक कारण यह भी है। दरअसल हमारे नीतिकारों व प्रशासकों का ध्यान इस बात पर हाल ही में गया है कि स्कूलों में कम दर्ज संख्या के पीछे, पेचीदा ‘सामाजिक आर्थिक’ कारकों व स्कूलों की अनुपलब्धता के अलावा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया भी एक महत्वपूर्ण कारक है। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’ तथा ज़िला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डी.पी.ई.पी.) के लिए किए गए ‘वर्तमान हालात सर्वेक्षण से उजागर हुआ है कि स्कूल से बाहर के बच्चों का एक बड़ा तबका पढ़ाई को बहुत मुश्किल’ पाता है और जो बच्चे स्कूल में हैं वे भी बुनियादी साक्षरता व गणित में निहायत पिछड़े हुए हैं।
इस संदर्भ में ‘स्कूल का बोझ’ कम करने हेतु सुझाव देने के लिए गठित की गई राष्ट्रीय सलाहकार समिति की रिपोर्ट ‘बोझ रहित शिक्षा’ की प्रस्तावना में प्रोफेसर यशपाल ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर बहुत ही संवेदनशील टिप्पणी की है:
“बच्चों पर बोझ के संदर्भ में गुरुत्वीय वज़न (भौतिक वज़न) की चर्चा तो संचार माध्यमों व संसद में भी खूब हुई है। इस अध्ययन के बाद मैं और मेरे अधिकतर साथियों को यकीन हो गया है कि ज़्यादा घातक बोझ अग्राह्या, संक्षिप्त व जटिल सामग्री का है। दरअसल हमें यह भी बताया गया है कि स्कूल छोड़ जाने वाले बच्चों में से काफी सारे बच्चे वे होते हैं जो इस से समझौता करने से इन्कार कर देते हैं - वे संभवत: उन बच्चों से श्रेष्ठतर हैं जो बगैर समझे याद करके परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन कर देते हैं।”
(यह लेख तीन मूर्ति भवन की नेहरू मेमोरियल फैलोशिप के दोरान की गई शोध पर आधारति है। अनुवाद - सुशील जोशी।)