कुछ वर्षों पहले गिद्धों पर एक संकट आया था और गिद्धों की आबादी तेज़ी से घटी थी। 1990 के दशक में यह एक सामान्य अवलोकन था कि भारत में करोड़ों गिद्ध थे। इनके चलते जानवरों के शव तत्काल ठिकाने लग जाते थे। फिर अचानक गिद्धों की आबादी घटने लगी और काफी शोध के बाद पता चला था कि इसका कारण डिक्लोफेनेक नामक एक दवा थी। यह दवा पशुओं को दर्द निवारक के तौर पर दी जाती थी और इसके अवशेष इन पशुओं में जमा हो जाते थे। पशुओं के शव खाने पर डिक्लोफेनेक गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती थी और उनके गुर्दों को नष्ट कर देती थी।
इस समस्या के मद्देनज़र भारत में 2006 में डिक्लोफेनेक के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कई देशों ने भारत का अनुसरण किया था। इससे परिस्थिति में थोड़ा ठहराव तो आया लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था - देश के लगभग 90 प्रतिशत गिद्ध मारे जा चुके थे। अब दो ताज़ा अध्ययनों ने एक नए खतरे की ओर इशारा किया है। इन अध्ययनों का निष्कर्ष है कि गिद्धों की मौत निमेसुलाइड खाने से भी हो सकती है। निमेसुलाइड भी एक लोकप्रिय दर्द निवारक दवा है।
पर्यावरण समूह अब कोशिश कर रहे हैं कि सराकर निमेसुलाइड के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के उप निदेशक विभु प्रकाश के अनुसार निमेसुलाइड का घातक प्रभाव चिंताजनक है। चिंता की बात यह भी है कि कई सारी दर्द निवारक दवाइयां गिद्धों के लिए जानलेवा पाई गई हैं। जैसे एसिक्लोफेनेक और कीटोप्रोफेन जैसी दवाइयां घातक साबित हो चुकी हैं और कई देशों में प्रतिबंधित हैं। लेकिन ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि ये प्रतिबंध सिर्फ पशुओं में इनके उपयोग पर लगाए गए हैं और बाज़ार में दवाइयां मिलती रहती हैं।
निमेसुलाइड के विरुद्ध कार्रवाई की मांग सबसे पहले 2016 में उठी थी जब कई गिद्धों के शवों में यह दवा पाई गई थी। यह चिंता तब गहरा गई जब सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री के सुब्रामण्यन मुरलीधरन की रिपोर्ट एन्वायरमेंटल साइन्स एंड पॉल्यूशन रिपोट्स में प्रकाशित हुई।
अब पर्यावरणविद अन्य दर्द निवारक दवाइयों की पैरवी कर रहे हैं। एक है टॉलफेनेमिक एसिड जो पशुओं में उपयोग की जाती है और एक रिपोर्ट के अनुसार यह गिद्धों के लिए सुरक्षित है। इसी प्रकार से, मेलोक्सीकैन भी सुरक्षित पाई गई है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - November 2021
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