प्रतिरक्षा तंत्र लक्ष्य की पहचान कैसे करता है?
प्रतिरक्षा तंत्र की ऐसी डिज़ाइन कैसे बनी है कि वह अलग-अलग लक्ष्यों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है? कुछ के खिलाफ एंटीबॉडी बनाई जाती हैं, वायरस संक्रमण के खिलाफ मारक कोशिकाएं बनाई जाती हैं और संक्रमित मैक्रोफेज के लिए हेल्पर कोशिकाएं।
प्रतिरक्षा तंत्र का संगठन
हमने पहले यह चर्चा की थी कि परजीवी शरीर में घुसने के लिए कई प्रवेश बिंदुओं का इस्तेमाल करते हैं। वे सांस के साथ घुस सकते हैं (जैसे टीबी के बैक्टीरिया), आंतों की दीवार के ज़रिए घुस सकते हैं (जैसे टायफॉइड बैक्टीरिया) या त्वचा से प्रवेश कर सकते हैं (जैसे मलेरिया परजीवी जो मच्छर के दंश के साथ घुसता है)। प्रतिरक्षा तंत्र पूरे शरीर में फैला होता है और उसकी कोशिकाएं लगभग समूचे कोशिका-बाह्य स्थानों की गश्त करती रहती हैं। दरअसल, वे रक्त में विचरण करती हैं, छोटी-से-छोटी केशिकाओं तक पहुंचती हैं और वहां से रक्त वाहिनियों से बाहर निकलकर ऊतकों में पहुंच जाती हैं।
संभाविता के आधार पर देखा जाए तो ऊतकों में ही वह स्थान है जहां अधिकांश घुसपैठिए सबसे पहले पहुंचेंगे, चाहे कहीं से भी घुसे हों। इस स्थान का पदार्थ तथाकथित लसिका वाहिनियों में पहुंचता है और वहां से यह ऐसे अंगों तक पहुंचता है जहां आने वाले पदार्थ की जांच करके घुसपैठियों का पता लगाया जाता है। इन अंगों को लसिका ग्रंथियां कहते हैं (कई बार पैरों में संक्रमित घाव हो, तो जांघ के ऊपरी हिस्से में गठान-सी बनती है या टॉन्सिल होने पर गले में गठान महसूस होती है। ये लसिका ग्रंथियां हैं।) यहीं पर प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं का जमावड़ा होता है। यानी अस्थि मज्जा में उत्पन्न होने और थायमस ग्रंथि में परिपक्व होने (टी-कोशिकाओं के मामले में) के बाद प्रतिरक्षा कोशिकाएं अपना अधिकांश समय या तो इन लसिका ग्रंथियों में बिताती हैं, अथवा खून में गश्त करती रहती हैं।
कुल मिलाकर उनका रास्ता होता है - रक्त वाहिनियों से ऊतकों में कोशिका बाह्य स्थान, वहां से लसिका तंत्र से होते हुए वापिस रक्त वाहिनियों में। लिहाज़ा, घुसपैठियों के खिलाफ प्रतिक्रिया काफी त्वरित हो सकती है और पूरे मामले को स्थानीय लसिका ग्रंथियों के स्तर पर ही निपटाया जा सकता है।
प्रतिरक्षा तंत्र के किरदार
अब तक हमने सामान्य रूप से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की बात की है। इससे लग सकता है कि ये सारी कोशिकाएं एक जैसी होती हैं। लेकिन ज़ाहिर है कि इनसे विभिन्न कार्य करने की उम्मीद की जाती है और इसलिए विशिष्टीकरण ज़रूरी है। उदाहरण के लिए, कुछ कोशिकाएं एंटीबॉडी बनाएंगी जबकि हो सकता है कि कुछ अन्य कोशिकाएं मैक्रोफेज को सक्रिय करें। तो सवाल यह है कि कौन क्या करता है। इसे समझने के लिए आक्रमण और बचाव की उन रणनीतियों पर गौर करते हैं जिनकी चर्चा हम कर चुके हैं। हर मामले में हम यह देखेंगे कि जन्मजात प्रतिरक्षा के क्लोनल एकरूपी और अनुकूली प्रतिरक्षा के क्लोनल विविधरूपी घटक क्या योगदान देते हैं।
कोशिका-बाह्य घुसपैठिए
घुसपैठियों का सबसे पहला निशे (अड्डा) कोशिकाओं के बाहर की जगह है। इनके लिए ऐसी भक्षी (फैगोसायटिक) कोशिकाओं की ज़रूरत होती है जो घुसपैठियों को निगलकर मार सकें। यह काम करने वाली क्लोनल एकरूपी कोशिकाएं ग्रेनुलोसायटिक कोशिकाएं होती हैं - खास तौर से न्यूट्रोफिल ग्रेनुलोसाइट और मैक्रोफेज।
क्लोनल एकरूपी श्रेणी में कुछ आणविक किरदार भी होते हैं। चूंकि कीटाणु इन कोशिकाओं की पकड़ से बच निकलने की कई रणनीतियां अपनाते हैं (या तो उनकी पहचान में नहीं आते या पकड़े नहीं जाते), इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र कीटाणुओं की सतह को चिंहित करने के कई तरीके अपनाता है ताकि भक्षी कोशिकाएं उन्हें पहचान सकें और उन पर उपस्थित इन चिंहों का उपयोग उन्हें पकड़कर खाने के लिए कर सकें।
कॉम्प्लीमेंट ऐसा ही एक किरदार है यह एंज़ाइमी क्रियाओं की एक शृंखला होती है जिसके माध्यम से कीटाणु पर ऐसे चिंह चस्पा किए जाते हैं। सी-रिएक्टिव प्रोटीन भी ऐसी ही व्यवस्था है। ये दोनों ही बैक्टीरिया की सतह पर मौजूद कुछ आम आणविक आकारों को पहचानते हैं (जो स्तनधारी कोशिकाओं पर नहीं पाए जाते) और इनसे चिपक जाते हैं। कभी-कभी इस प्रक्रिया का परिणाम यह भी होता है कि बैक्टीरिया की सतह पर छिद्र हो जाते हैं और उसका विघटन शुरू हो जाता है। साथ ही फैगोसाइट इन्हें पहचानकर निगलना भी शुरू कर देते हैं।
यह देखा गया है कि कीटाणु कॉम्प्लीमेंट अथवा ऐसी ही अन्य तरकीबों से चिंहित होने से बच निकलते हैं क्योंकि वे उन रचनाओं को ही बदल डालते हैं जिनका उपयोग क्लोनल एकरूपी कोशिकाएं उन्हें पहचानने के लिए करती हैं। लिहाज़ा क्लोनल विविधरूपी प्रतिरक्षा ऐसे अनोखे प्रोटीन (एंटीबॉडी) बनाती है जो बैक्टीरिया वगैरह की सतह पर उपस्थित विविध रचनाओं को पहचानते हैं। ये एंटीबॉडी सामान्यत: खामोशी से विचरती रहती हैं, जब तक कि इनका सामना उस लक्ष्य से न हो जिसे पहचानने के लिए इन्हें डिज़ाइन किया गया है। जब सामना होता है तो वे लक्ष्य को दबोच लेती हैं (कभी-कभी अपनी दोनों भुजाओं से) और इस जुड़ाव का परिणाम यह होता है कि उन एंटीबॉडी की पूंछ की आकृति बदल जाती है जो कीटाणु को चिंहित कर देती है कि फैगोसाइट उसे निगलकर नष्ट कर दे।
दरअसल, जन्मजात व अनुकूली प्रतिरक्षा क्रियाविधियां आपस में अंतर्क्रिया के लिए एंटीबॉडी पर उपस्थित पूंछ की आकृति में इस परिवर्तन का उपयोग करती हैं। यह बदली हुई पूंछ गुंजाइश बनाती हैं कि कॉम्प्लीमेंट आकर उससे जुड़ जाएं ताकि फैगोसाइट्स को एक से अधिक संकेत मिलें।
एंटीबॉडी प्लाज़्मा की कोशिकाओं द्वारा निर्मित व स्रावित इम्यूनोग्लोब्यूलिन होते हैं। ये प्लाज़्मा कोशिकाएं बी-कोशिकाओं की परिपक्वता का आखिरी मुकाम होती हैं और उपयुक्त लक्ष्य से जुड़ती हैं। वास्तव में बी-कोशिकाएं इम्यूनोग्लोब्यूलिन को मुक्त करने की बजाय उनका उपयोग अपनी सतह के एक अणु के रूप में करती हैं। परिणाम यह होता है कि कोई लक्ष्य इस पर जुड़े तो बी-कोशिकाओं में कई तरह के परिवर्तन होने लगते हैं। इन परिवर्तनों की बदौलत वे ऐसी प्लाज़्मा कोशिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं जो उस इम्यूनोग्लोब्यूलिन को खून में छोड़ने लगती हैं।
कोशिका के अंदर बैठे घुसपैठिए
जो परजीवी आनन-फानन मेज़बान की कोशिकाओं के अंदर चले जाते हैं, वे एंटीबॉडी या कॉम्प्लीमेंट द्वारा चिंहित होने से बच जाते हैं और फैगोसाइट स्वयं तो उन्हें खाकर ठिकाने नहीं लगा सकते। तो प्रतिरक्षा तंत्र का दूसरा प्रमुख काम है कि अपनी ही उन कोशिकाओं को पहचाने जिनके अंदर परजीवी छिपे बैठे हैं। ऐसे संक्रमण से निपटने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाएं (टी-कोशिकाएं) सिर्फ इतना नहीं कर सकतीं कि वे एंटीबॉडी बना दें क्योंकि ऐसे इम्यूनोब्लोब्यूलिन अणु संक्रमित कोशिकाओं के अंदर तो पहुंच नहीं पाएंगे। इसलिए इन टी-कोशिकाओं को संक्रमित कोशिकाओं को संकेत देना होते हैं। इसका मतलब है कि ये टी-कोशिकाएं मात्र संक्रमित कोशिकाओं को अपने लक्ष्य के रूप में पहचानें, न कि खून में बहते स्वतंत्र अणुओं को और अपने उत्पादों को किसी ऐसे स्थान पर न छोड़े जहां कोई संक्रमित कोशिका न हो।
यानी उन्हें एक साथ दो बातों की पहचान करनी होगी - परजीवी का पहचान चिंह और यह कि वह परजीवी-चिंह किसी कोशिका से जुड़ा है। यदि इन दो चीज़ों - यानी परजीवी अणु की पहचान और यह पहचान कि यह अणु किसी कोशिका से सम्बद्ध है - को एक-दूसरे से स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो होगा यह कि टी-कोशिकाएं किसी परजीवी-सम्बद्ध अणु को पहचान लेंगी जबकि वे किसी स्वस्थ कोशिका के संपर्क में हों। ऐसा होने पर वे शायद इस स्वस्थ कोशिका को मार डालेंगी।
इसलिए कोई ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि टी-कोशिकाएं किसी परजीवी अणु को तभी पहचानें जब उसे किसी संक्रमित कोशिका ने तोड़-मरोड़ दिया हो और उसके अवशेष कोशिका सतह के किसी सामान्य अणु के साथ जोड़ दिए गए हों। इन वाहक अणुओं को मेजर हिस्टोकॉम्पेटेबिलिटी कॉम्प्लेक्स (एमएचसी) जीन द्वारा कोड किया जाता है और इसलिए इन्हें एमएचसी प्रोटीन कहते हैं। तो, कोशिका की सतह के एमएचसी प्रोटीन्स पर खुद मेज़बान के पेप्टाइडस भी होंगे और परजीवी के अवशिष्ट पेप्टाइड्स भी। इस प्रकार से कोई संक्रमित कोशिका इस बात का संकेत टी-कोशिकाओं को दे सकती है कि उसके अंदर कोई परजीवी है।
हालांकि ये पेप्टाइड्स परजीवी के प्रोटीन के विघटन से बनते हैं लेकिन इनकी आकृति मूल अणु से कदापि मेल नहीं खाती। इनको पहचानने के साथ-साथ ही एमएचसी प्रोटीन भी पहचाना जाना चहिए। इसलिए ऐसे ग्राहियों की आवश्यकता होती है जो एमएचसी और परजीवी से उत्पन्न पेप्टाइड्स दोनों को एक साथ पहचान सकें। और इन ग्राहियों से लैस टी-कोशिकाओं में यह क्षमता होनी चाहिए कि वे या तो संक्रमित कोशिका को मार सकें या उसकी मदद कर सकें कि वह अपने अंदर बैठे परजीवी को मार डाले।
टी-कोशिका थायमस नामक ग्रंथि में परिपक्व होती हैं। टी-कोशिकाएं मात्र सतह का मुआयना करके सामान्य कोशिका और संक्रमित कोशिका के बीच भेद कर सकती हैं। उन्हें कोशिका के अंदर झांकने की ज़रूरत नहीं होती। इसके बाद टी-कोशिकाएं जैविक रूप से सक्रिय विविध अणु बनाती हैं, जिन्हें सायटोकाइन्स कहते हैं। ये सायटोकाइन्स संक्रमित कोशिकाओं को उपयुक्त संकेत प्रेषित कर सकते हैं।
कोशिका के अंदर विभिन्न किस्म के संक्रमण
हम यह बात कर ही चुके हैं कि संक्रमित कोशिका के अंदर कुछ परजीवी बुलबुला अंगकों या एंडोसोम्स के अंदर विराजमान होते हैं। ऐसी कोशिकाओं को निर्देश दिया जा सकता है कि वे परजीवी को मारने के लिए कुछ कदम उठाएं - जैसे कुछ एंज़ाइम्स को सक्रिय कर दें या मुक्त मूलकों को तैनात कर दें। यह कदम उठाना इसलिए संभव हो सकता है क्योंकि परजीवी आम तौर पर भक्षी कोशिकाओं (जैसे मैक्रोफेज) में पहुंचते हैं और कोशिश करते हैं कि उनके एंडोसोम में सुरक्षित बैठे रहें।
दूसरी ओर वायरस जैसे परजीवी कोशिका द्रव्य पर कब्ज़ा करते हैं और इस मामले में एक ही रास्ता बचता है कि संक्रमित कोशिका को ही मार दिया जाए ताकि संक्रमण आगे न फैले।
तो यदि कोई टी-कोशिका किसी कोशिका की सतह पर ऐसा एमएचसी-सम्बद्ध परजीवी पेप्टाइड देखे जो एंडोसोम में से आया हो तो वह कोशिका को यह संदेश दे कि कीटाणु को मारो।
दूसरी ओर यदि उसे कोई एमएचसी सम्बद्ध परजीवी पेप्टाइड दिखे जिसकी उत्पत्ति कोशिका द्रव्य में हुई है तो उस कोशिका को संदेश दिया जाए कि वह मर जाए।
चूंकि ये दो सर्वथा अलग-अलग कार्य हैं, इसलिए ज़रूरी है कि इन्हें टी-कोशिकाओं की अलग-अलग किस्मों द्वारा संपादित किया जाए - पहले मामले में यह काम हेल्पर टी-कोशिकाएं करती हैं जबकि दूसरे मामले में किलर टी-कोशिकाएं। लेकिन कोशिका के बाहर से तो टी-कोशिकाएं सिर्फ एमएचसी-पेप्टाइड संकुल देखती हैं। तो उन्हें कैसे पता चलता है कि उस पेप्टाइड की उत्पत्ति कहां हुई थी।
इसका सबसे आसान तरीका यह होगा कि दो किस्म के एमएचसी अणु हों। एक अणु ऐसा हो जो कोशिका द्रव्य से पेप्टाइड उठाता हो और दूसरा जो एंडोसोम से। प्रतिरक्षा तंत्र ठीक यही करता है। पहले प्रकार को एमएचसी वर्ग I कहते हैं और दूसरे प्रकार को एमएचसी वर्ग II कहते हैं।
एमएचसी वर्ग I
सारे कोशिका प्रोटीन के समान एमएचसी वर्ग I के जिन प्रोटीन्स को कोशिका की सतह पर आना होता है, वे कोशिका की ट्यूबुलर प्रोटीन संश्लेषण मशीनरी - खुरदरा एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम (RER) - में बनते हैं। निर्माण होते ही ये ङकङ की नलिका की सतह से चिपक जाते हैं। यहां पेप्टाइड-एमएचसी संकुल बनते हैं। इसके लिए आसपास पड़े उन पेप्टाइड्स का उपयोग किया जाता है जो ठीक से फिट हो जाएं। तो ये आसपास पड़े प्रोटीन आते कहां से हैं? जब किसी प्रोटीन का संश्लेषण हो और वह ठीक तरह से तह न बना पाए तो आम तौर पर उसे कोशिका द्रव्य में प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा तोड़ दिया जाता है। इस प्रक्रिया में बने पेप्टाइड्स को एक विशेष प्रोटीन पंप द्वारा RER में धकेल दिया जाता है। इस प्रकार से प्रत्येक एमएचसी वर्ग I का अणु उस पेप्टाइड को लेकर सतह पर आ जाता है जिसके साथ वह पैदा हुआ था। चूंकि ये पेप्टाइड प्रोटिएसोम से आते हैं, इसलिए संभावना यही है कि इनमें से अधिकांश पेप्टाइड्स कोशिका द्रव्य से आए होंगे।
एमएचसी वर्ग II
एमएचसी वर्ग II के अणु भी इसी तरह बनते हैं लेकिन वे ङकङ में एक तीसरे प्रोटीन के साथ संयोजित होते हैं जिसे इनवेरिएन्ट चेन कहते हैं। यह प्रोटीन आसपास उपस्थित पेप्टाइड्स को नवनिर्मित एमएचसी वर्ग II अणुओं से जुड़ने नहीं देता। अब इनवेरिएन्ट चेन द्वारा इन अणुओं को एंडोसोम में ले जाया जाता है। एंडोसोम झिल्ली से घिरी कोशिका का एक अजीब विरोधाभास है। इस झिल्ली के घटक टूट-फूट के कारण क्षतिग्रस्त होते रहते हैं और इनकी जगह नए घटक बनाना पड़ते हैं। समस्या यह है कि कोशिका इन टुकड़ों को कैसे अंदर खींचकर उनका विघटन करे और उनकी जगह नए हिस्से चिपकाए। और इस प्रक्रिया में कोशिका की झिल्ली में कहीं दरार नहीं पड़नी चाहिए।
इसका समाधान काफी चतुराई भरा है। समाधान परिवहन बुलबुलों के रूप में किया गया है। कोशिका नई सतह को अपने अंदर बुलबुलों के रूप में बनाती है और उन्हें सतह तक ले जाकर पुरानी झिल्ली पर चिपका देती है। इस प्रक्रिया में बुलबुले के अंदर का पदार्थ कोशिका के बाहर फेंक दिया जाता है। कोशिका इस मार्ग (एक्सोसायटोसिस) का उपयोग तमाम किस्म के पदार्थों को बाहर फेंकने के लिए भी करती है। इसका उलट मार्ग भी होता है जिसे एंडोसायटोसिस कहते हैं जिसमें कोशिका झिल्ली के एक टुकड़े को एक बुलबुले के रूप में चिमटी की तरह अंदर खींचा जाता है और फिर उसे कचरा निपटान केंद्रों (लायसोसोम) में पहुंचा दिया जाता है जहां इसे रीसायकल किया जाता है। ऐसे एंडोसायटिक बुलबुलों के साथ थोड़ा बाहरी पदार्थ भी कोशिका के अंदर आ जाते हैं। इस प्रक्रिया को पिनोसायटोसिस या फैगोसायटोसिस कहते हैं। इस बुलबुले की झिल्ली और इसमें भरे बाहरी पदार्थों का विघटन एंडोसोम का अत्यंत अम्लीय और एंज़ाइम युक्त पर्यावरण करता है।
जब इनवेरिएन्ट चेन से जुड़ा एमएचसी वर्ग II अणु एंडोसोम में पहुंचता है तो इनवेरिएन्ट चेन को पचा लिया जाता है लेकिन स्वयं एमएचसी वर्ग II के अणु आसानी से पचाए नहीं जा सकते। अब इनवेरिएन्ट चेन से मुक्त एमएचसी वर्ग II के अणु पेप्टाइड से जुड़ सकते हैं। ज़ाहिर है इन पेप्टाइड्स की उत्पत्ति एंडोसोम में हुई होगी।
तो एमएचसी वर्ग I और II अपने साथ सतह पर अलग-अलग स्रोतों से उत्पन्न पेप्टाइड लेकर पहुंचते हैं।
परजीवी पेप्टाइड्स
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि प्रोटीन विघटन की मशीनरी परजीवी और कोशिकीय प्रोटीन के बीच कोई भेद नहीं करती। एमएचसी अणु भी इन दो तरह के पेप्टाइड्स में कोई भेद नहीं करते। दोनों किस्म के एमएचसी अणुओं की आकृति तब तक स्थिरता प्राप्त नहीं करती जब तक कि वे पेप्टाइड से न जुड़ जाएं। और असंक्रमित कोशिकाएं भी भरपूर मात्रा में एमएचसी अणु अपनी सतह पर प्रदर्शित करती हैं। इसलिए कोशिका की सतह पर प्रदर्शित अधिकांश एमएचसी अणु से जुड़े पेप्टाइड्स परजीवी नहीं बल्कि कोशिकीय उत्पत्ति के ही होते हैं।
परजीवी पहचान प्रणाली को पहले से उपस्थित कोशिकीय मरम्मत तंत्र (जो कोशिका में प्रोटीन के बनने-बिगड़ने से निपटने के लिए बना है) से जोड़ने का यही परिणाम है। लिहाज़ा संक्रमित कोशिका में भी अधिकांश एमएचसी अणु के साथ परजीवी से उत्पन्न नहीं बल्कि कोशिकीय उत्पत्ति के पेप्टाइड्स होने की ही संभावना है। अर्थात टी-कोशिकाओं की पहचान-क्रियाविधि इतनी संवेदनशील होनी चाहिए कि वह थोड़े से परजीवी-उत्पन्न पेप्टाइड से युक्त एमएचसी को भांप सके और साथ ही उसमें यह क्षमता भी बनी रहे कि वह विभिन्न पेप्टाइड्स के बीच भेद भी कर पाए। टी-कोशिकाएं अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए कई तरकीबों का उपयोग करती हैं।
लेकिन यदि टी-कोशिकाएं अपने प्रत्युत्तर में इतनी संवेदनशील हैं, तो वे टी-कोशिकाओं क्या करेंगी जो कोशिकीय पेप्टाइड-एमएचसी संकुल को पहचानती हैं? टी-कोशिकाओं का पहचान का खजाना काफी बेतरतीबी से निर्मित होता है और इसलिए ऐसी टी-कोशिकाओं को बनने से रोकना असंभव है जो कोशिकीय पेप्टाइड वाले एमएचसी अणुओं को लक्ष्य के रूप में पहचानें।
कोशिकाओं की सतह पर कोशिकीय उत्पत्ति के पेप्टाइड और एमएचसी अणुओं के संकुलों की भारी संख्या में मौजूदगी टी-कोशिकाओं की ‘स्व-प्रतिक्रिया’ (ऑटो-इम्यूनिटी) के ऐसे हादसों को एक वास्तविक खतरा बना देती है। यह अपने आप में चर्चा का विषय हो सकता है कि ऐसी ‘स्व-प्रतिक्रियाशील’ टी-कोशिकाओं का सफाया कैसे किया जाता है।
पूरा परिदृश्य और भी पेचीदा हो जाता है क्योंकि एमएचसी में बहुत विविधता अनिवार्य है। यदि कोई एमएचसी अणु किसी एक पेप्टाइड से अच्छी तरह जुड़ता है, तो वह अन्य पेप्टाइड्स से जुड़ने में नाकाम रहेगा। अर्थात एक एमएचसी अणु सारे संभव पेप्टाइड्स से नहीं जुड़ पाएगा। इसलिए एमएचसी अणुओं में खूब विविधता होनी चाहिए ताकि प्रतिरक्षा तंत्र के लिए अधिक से अधिक पेप्टाइड्स की पहचान करना संभव हो सके। अर्थात एमएचसी अणुओं के दोनों वर्गों में कई तरह के अणु होने चाहिए और ये सब एक साथ कोशिका की सतह पर प्रदर्शित होने चाहिए। लेकिन टी-कोशिका तो अपने क्लोनल विविधरूपी टी-कोशिका ग्राहियों (TCR) की मदद से मात्र एमएचसी अणु और उससे जुड़े पेप्टाइड को पहचानती है। तो क्या किसी टी-कोशिका को पता चल जाएगा कि वह जो एमएचसी अणु देख रही है वह वर्ग I का है या वर्ग II का।
उपयोगी टी-कोशिकाओं का चयन
इस वर्ग भेद को एक अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। टी-कोशिकाओं द्वारा एमएचसी-पेप्टाइड संकुल को पहचानने का सिद्धांत और साथ में एमएचसी अणुओं में विविधता मिलकर प्रतिरक्षा तंत्र के खजाने के विकास के लिए एक बड़ी समस्या पेश करता है। जैसा कि हमने कहा था, इस खजाने का निर्माण बेतरतीब ढंग से होता है और परिणाम यह होता है कि तमाम किस्म की ‘आकृतियां’ बनकर तैयार हो जाती हैं। यह चीज़ बी-कोशिकाओं के संदर्भ में तो ठीक है क्योंकि उन्हें तो मात्र परजीवी लक्ष्यों की पहचान करनी है। लेकिन टी-कोशिकाओं के संदर्भ में घुसपैठी से प्राप्त पेप्टाइड की चाहे जितनी पहचान कर ली जाए लेकिन वह तब तक उपयोगी नहीं होगी जब तक कि यह पेप्टाइड किसी ऐसे एमएचसी अणु से जुड़ा न हो जो उस व्यक्ति में उपलब्ध हो। एक बेतरतीब ढंग से संख्या वृद्धि करती किसी भी आबादी में दोनों वर्गों के एमएचसी अणुओं के अनगिनत विविध सम्मिश्रण बन जाएंगे। और यह विविधता बढ़ती ही जाएगी। लेकिन बेतरतीब ढंग से बढ़ते टी-कोशिका भंडार में ऐसे कई ग्राही बनेंगे जिन्हें अपना लक्ष्य कभी देखने को नहीं मिलेगा। यानी ये कोशिकाएं उस व्यक्ति के लिए कभी उपयोगी नहीं होंगी। इसलिए टी-कोशिका खजाने में से ऐसी कोशिकाओं की छंटाई करनी पड़ेगी जो अपने लक्ष्य पेप्टाइड अणुओं की पहचान किसी ऐसे एमएचसी अणु पर करें जो शरीर में उपस्थित न हो। इसका मतलब है कि सिर्फ उन कोशिकाओं को रखा जाए जो संभवत: शरीर के लिए उपयोगी होंगी (हालांकि यह पक्का तय कर पाना मुश्किल है) और उन कोशिकाओं से छुटकारा पा लिया जाए जो निश्चित रूप से अनुपयोगी होंगी। इस प्रक्रिया को ‘सकारात्मक चयन’ कहा जाता है। विकास सम्बंधी निर्णय के इस पड़ाव पर टी-कोशिकाओं को यह निर्देश भी देना होता है कि उसका ग्राही किस वर्ग के एमएचसी अणु की पहचान कर रहा है ताकि वह या तो तो हेल्पर टी-कोशिका बन जाए अथवा किलर टी-कोशिका बने। तो प्रतिरक्षा तंत्र यह काम कैसे करता है?
टी-कोशिकाओं का सकारात्मक चयन
इस प्रक्रिया के घटकों को कैसे नियंत्रण में रखा जाए? कल्पना कीजिए कि कोई टी-कोशिका है जो (मान लीजिए) एमएचसी A से जुड़े पेप्टाइड X की पहचान करने वाली है। ऐसी स्थिति में वह एमएचसी A से तब भी जुड़ जाएगी (थोड़े दुर्बल ढंग से ही सही) जिस पर पेप्टाइड ज्ञ् हो। अत: विकासशील टी कोशिका को उस स्थिति में जीवित रहना चाहिए जब उसके ग्राही और उसके सूक्ष्म पर्यावरण में उपस्थित किसी एमएचसी अणु के बीच कुछ दुर्बल अंतर्क्रिया हो। यानी यदि सही एमएचसी अणु उपस्थित है, तो सही पेप्टाइड न होने पर भी, वह टी-कोशिका शायद उपयोगी साबित हो। उसे जीवित रहने का संदेश मिलेगा। अन्यथा सारी टी-कोशिकाओं में जन्मजात एक खुदकुशी का स्विच होता है।
अगली समस्या - यह सही है कि एमएचसी के दो वर्गों के अणु कोशिका द्रव्य और एंडोसोम से मिलने वाले पेप्टाइड के बीच भेद कर सकते हैं लेकिन टी-कोशिका के ग्राही को कैसे पता चलेगा कि वह किस वर्ग का एमएचसी अणु देख रहा है क्योंकि वह तो इन अणुओं की सिर्फ परिवर्ती शृंखला को देखता है? इसका सबसे सहज समाधान है कि इस ग्राही में एक वर्ग पहचान का तत्व जुड़ा हो। तो नवजात टी-कोशिकाएं बेतरतीबी से दो में से एक एमएचसी पहचान तत्व प्रदर्शित करती है - एक एमएचसी वर्ग I के लिए होता है (CD8) और दूसरा एमएचसी वर्ग II के लिए होता है (CD4)। CD8 प्रदर्शित करने वाली टी-कोशिकाएं (CD8 टी-कोशिकाएं) परिपक्व होकर किलर कोशिका बनेंगी जबकि CD4 वाली कोशिकाएं (CD4 टी-कोशिकाएं) हेल्पर बनेंगी।
अब यदि कोई विकसित होती टी-कोशिका जिसका ग्राही एमएचसी वर्ग I के अणु से दुर्बल ढंग से जुड़ता है और अपनी सतह पर CD8 प्रदर्शित करती है, तो CD8 और ग्राही साथ-साथ एमएचसी अणु से जुड़ जाएंगे और मिलकर उस कोशिका को पूर्ण जीवित रहने का संदेश देंगे जिसके दम पर वह कोशिका परिपक्व होकर किलर कोशिका में तबदील हो जाएगी। अलबत्ता, यदि इस विकसित होती टी-कोशिका पर एमएचसी वर्ग I का ग्राही है लेकिन वह CD4 प्रदर्शित करती है तो उसका ग्राही उसी एमएचसी अणु से नहीं जुड़ पाएगा जिसे CD4 पहचानता है। दूसरे शब्दों में, इस टी-कोशिका के संदर्भ में वर्ग-विशिष्ट सह-बंधन नहीं बन पाएगा। यह एक अपर्याप्त संदेश होगा और उस टी-कोशिका को मरना पड़ेगा। अर्थात CD4 और CD8 सह-ग्राही हैं जो एमएचसी वर्ग पहचान के लिए ज़रूरी हैं - सिर्फ वही कोशिकाएं जीवित रहेंगी जिनके ग्राही की एमएचसी वर्ग पहचान सह-ग्राही के साथ मेल खाती हो।
कोशिका में विराजमान परजीवी के विरुद्ध जन्मजात प्रतिरक्षा के तत्व
कोशिका के अंदर छिपकर बैठे परजीवियों की पहचान की उपरोक्त सारी पेचीदा रणनीतियों का सम्बंध अनुकूली प्रतिरक्षा के क्लोनल विविधतारूपी घटक से है। तो क्या ऐसी क्लोनल एकरूप कोशिकाएं होती ही नहीं हैं जो कोशिका में प्रवेश कर चुके परजीवियों को पहचान सके? ज़रूर हैं, और सबसे पहला नाम मैक्रोफेज का उभरता है। यह सही है कि विकल्पी अंतरा-कोशिका परजीवी मैक्रोफेज के अंदर भी जीवित रह सकते हैं लेकिन वैकासिक दबाव कुछ इस तरह काम करेगा कि ये मैक्रोफेज अपने अंदर घुसकर बैठे कुछ परजीवियों को CD4 किलर कोशिकाओं की मदद के बगैर भी मार डालेंगी।
अलबत्ता, इस संदर्भ में वास्तविक किरदार तो तथाकथित प्राकृतिक किलर (NK) कोशिकाएं हैं। पहले NK कोशिकाओं के बारे में माना गया था कि ये ट्यूमर कोशिकाओं को मारती हैं, चाहे उनसे इनका संपर्क पहले कभी न हुआ हो। लेकिन हमने कहा था कि कैंसर से सुरक्षा संभवत: प्रतिरक्षा रक्षा तंत्र के विकास की प्रमुख चालक शक्ति नहीं रही है। तो सवाल है कि क्या NK कोशिकाएं संक्रमण के संदर्भ में कोई भूमिका निभाती हैं? जवाब है कि कम से कम कुछ वायरस संक्रमणों के मामले में इन कोशिकाओं की अनुपस्थिति का परिणाम ज़्यादा गंभीर व लंबे संक्रमण के रूप में सामने आता है। और NK कोशिकाएं वायरस-संक्रमित कोशिकाओं को उसी तरह से मारती हैं जैसे किलर CD8 टी-कोशिकाएं मारती हैं।
लेकिन हम कहते आए हैं कि किलर टी-कोशिकाओं को संक्रमित कोशिका की सतह पर पेप्टाइड्स से जुड़े एमएचसी वर्ग I के अणु को लक्ष्य के रूप में पहचानना होता है और यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि किलर टी-कोशिकाएं क्लोनल विविधता से बनती हैं। अब यदि NK कोशिकाएं क्लोनल एकरूप हैं तो वे किस तरह के आणविक लक्ष्य को पहचानती हैं?
यहां रणनीति यह होती है कि कोशिका की सतह पर कुछ ऐसे परिवर्तनों को भांपा जाए जो अधिकांश वायरस संक्रमणों में एक जैसे होते हैं। एक तरीका यह है कि जिन कोशिकाओं की प्रोटीन निर्माण मशीनरी का अपहरण हो गया है, उनके बारे में माना जाए कि वे संक्रमित हैं और उन्हें मरना चाहिए। सतह को देखकर कैसे पता चले कि किसी कोशिका की प्रोटीन मशीनरी खुद के प्रोटीन नहीं बना रही है?
एक तरीका है कुछ मार्कर प्रोटीन्स के स्तर का आकलन करना। ऐसा प्रतीत होता है कि NK कोशिकाएं सतह पर एमएचसी वर्ग I के अणुओं का स्तर देखती हैं। यदि स्तर ऊंचा है तो NK कोशिका उस कोशिका को ‘असामान्य’ चिंहित करके मार डालेंगी। इसका मतलब है कि NK कोशिकाओं को भी प्रशिक्षित करना होगा कि एमएचसी वर्ग I के अणुओं के किस स्तर को स्वीकार्य मानें। अर्थात चयन की प्रक्रिया क्लोनल एकरूप कोशिकाओं के संदर्भ में भी चलती है। दरअसल, इस बात के संकेत मिले हैं कि NK कोशिकाएं शायद पूरी तरह एकरूप नहीं होतीं बल्कि उनमें कुछ विविधता होती है। अलबत्ता यह विविधता शायद उस स्तर की नहीं है जैसी अनुकूली प्रतिरक्षा में पाई जाती है। अनुकूली प्रतिरक्षा में तो ऐसे कृत्रिम अणुओं को पहचानने की क्षमता भी होती है जो पहले कभी अस्तित्व में भी न रहे हों।
अगला सवाल यह है कि टी-कोशिकाओं का ऐसा अनंत खजाना कैसे बनाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)