वयोवृद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के अग्रणी सुंदरलाल बहुगुणा का 21 मई को 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इसके दो हफ्ते पहले उन्हें कोविड-19 के चलते ऋषिकेश के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। जंगलों और नदियों को बचाने के उनके प्रयासों और मानव कल्याण में उनके महान योगदान के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
उनका जन्म टिहरी गढ़वाल में गंगा किनारे एक गांव में हुआ था। जब वे स्कूली छात्र थे तब उनकी मुलाकात प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन से हुई, जिन्होंने आगे चलकर कारावास के दौरान अपने जीवन का बलिदान कर दिया था। समाज के प्रति समर्पित उनके जीवन से बहुगुणा जी प्रेरित हुए और उन्होंने सुमन जी का अनुसरण करने का फैसला किया। वे गोपनीय ढंग से सुमन जी से सम्बंधित खबरें भेजने लगे, जिसके कारण उन्हें पुलिसिया कार्रवाई का सामना करना पड़ा। बचने के लिए वे लाहौर चले गए, लेकिन जब टिहरी साम्राज्य में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था तब वे लौट आए।
पहले तो उन्हें टिहरी में प्रवेश नहीं करने दिया गया, लेकिन किसी तरह वे संघर्षों में शामिल हुए और आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आज़ादी के बाद उन्होंने खुद को विभिन्न सामाजिक उद्देश्यों के लिए समर्पित कर दिया। अपनी निर्विवाद ईमानदारी और गहन समर्पण भाव के कारण उस समय वे गढ़वाल के सामाजिक-राजनीतिक दुनिया के उभरते हुए सितारे थे। उन्हें विमला नौटियाल जी के पिता की ओर से शादी का प्रस्ताव आया, लेकिन विमला जी तब तक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी सरला बहन की शिष्या बन गर्इं थी और राजनीति की चमक-दमक से दूर ग्रामीणों की सेवा के प्रति समर्पित थीं। उन्होंने सुंदरलाल जी के सामने यह शर्त रखी कि वे उनसे शादी तभी करेंगी जब वे राजनीति की चमक-दमक छोड़ उनके साथ दूर-दराज़ के ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की सेवा करने के लिए राज़ी होंगे।
सुंदरलाल जी इस बात पर राज़ी हो गए। शादी के बाद वे दोनों घनसाली के पास स्थित सिलयारा गांव में ग्रामीणों की सेवा करने के लिए बस गए। यह गांव बालगंगा नदी के निकट था। वहां उन्होंने सिलयारा आश्रम बसाया, जो सामाजिक गतिविधियों का प्रशिक्षण केंद्र बना। दोनों ने ही दृढ़ता से महात्मा गांधी को अपना मुख्य शिक्षक और प्रेरणा स्रोत माना।
चीन के आक्रमण के बाद गांधीवादी विनोबा भावे ने हिमालयी क्षेत्र में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं से व्यापक स्तर पर सामाजिक कार्य करने का आह्वान किया था। तब विमला जी की सहमति से वे उत्तराखंड के कई हिस्सों, खासकर गढ़वाली क्षेत्र में अधिक यात्राएं करने लगे और आश्रम की बागडोर विमला जी ने संभाल ली। इन यात्राओं से सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों में उनकी भागीदारी बढ़ी।
सुंदरलाल जी और विमला जी दोनों ही ने शराब विरोधी आंदोलनों और अस्पृश्यता को चुनौती देने वाले दलित आंदोलनों में भाग लिया। इस दौरान हेंवलघाटी जैसे क्षेत्र में कई युवा कार्यकर्ताओं के साथ उनके प्रगाढ़ सम्बंध बने। सत्तर के दशक के अंत में अद्वानी और सालेट जैसे जंगलों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में चिपको आंदोलन की शुरुआत की गई, जिसने लोगों में बहुत उत्साह पैदा किया। यह आंदोलन कांगर और बडियारगढ़ जैसे सुदूर जंगलों तक भी फैला, जहां सुंदरलाल बहुगुणा ने बहुत कठिन परिस्थितियों में घने वन क्षेत्र में लंबे समय तक उपवास किया। साथ ही साथ उन्होंने सरकार के वरिष्ठ लोगों के साथ संवाद बनाए रखा। खासकर, प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में उनके लिए बहुत सम्मान था। उनके प्रयासों से बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई - सरकार हिमालय क्षेत्र के एक बड़े इलाके में पेड़ों की कटाई रोकने के लिए तैयार हो गई।
इस सफलता के बाद उन्होंने जंगलों और पर्यावरण को बचाने में लोगों की भागीदारी का संदेश फैलाने के लिए भूटान और नेपाल सहित कश्मीर से लेकर कोहिमा तक हिमालयी क्षेत्र के एक बड़े हिस्से की बहुत लंबी और कठिन यात्रा की। कई चरणों में की गई इस यात्रा के दौरान उनकी जान पर कई बार खतरे आए, लेकिन वे रुके नहीं और अपनी यात्रा पूरी की।
उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ टिकाऊ आजीविका की सुरक्षा पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने विस्थापन का पुरज़ोर विरोध किया और वन श्रमिकों को संगठित किया। उन्होंने कई रचनात्मक कार्य भी किए। जैसे, खत्म होते जंगलों को पुर्नजीवित करना और जैविक/प्राकृतिक/पारंपरिक खेती को बढ़ावा देना।
जल्द ही वे हिमालयी क्षेत्र में बांध परियोजनाओं द्वारा होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय हानि को रोकने के आंदोलन में गहन रूप से जुड़ गए, खासकर विशाल और अत्यधिक विवादास्पद टिहरी बांध परियोजना विरोधी आंदोलन से। उच्च-स्तरीय आधिकारिक रिपोर्टों द्वारा इसके हानिकारक प्रभावों की पुष्टि किए जाने के बावजूद इस परियोजना को बढ़ावा दिया जा रहा था। यह उनका यह बहुत लंबा और कठिन संघर्ष रहा। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपना आश्रम छोड़ दिया और विमला जी के साथ कई महीनों तक गंगा नदी के तट पर डेरा डाले रहे।
भले ही उनका यह लंबा संघर्ष उच्च जोखिम वाले बांध बनने से न रोक सका, लेकिन बेशक उनके इस संघर्ष ने इन महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति दूर-दूर तक जागरूकता फैलाई।
सुंदरलाल बहुगुणा जी भारत के कई हिस्सों और यहां तक कि विदेशों में भी वन संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष के एक प्रेरणा स्रोत बन कर उभरे। जैसे, पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए छेड़े गए अप्पिको आंदोलन के वे एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। उन्हें महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया और पर्यावरणीय मुद्दों पर व्यापक तौर पर उनकी राय ली गई। उन्हें पद्मविभूषण सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।
अपनी आजीविका के लिए उन्होंने आजीवन हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार और लेखक के रूप में काम किया। उनके साक्षात्कारों के अलावा उनके लेख और रिपोर्ट कई प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। विमला जी ने मुझे बताया कि उनके पूर्व में प्रकाशित लेखन के कम से कम दो संग्रह छपकर आने वाले हैं।
उन्होंने भूदान आंदोलन और हिमालयी क्षेत्र में टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण संरक्षण के संयोजन के साथ एक वैकल्पिक विकास रणनीति विकसित करने जैसे कई रचनात्मक कार्यों में योगदान दिया।
उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिन देहरादून में अपनी बेटी के घर बिताए। पिछले वर्ष जब मैंने सुंदरलाल जी और विमला जी की जीवनी लिखी, और अपनी पत्नी मधु के साथ उन्हें यह पुस्तक भेंट करने के लिए देहरादून गया तो वे कमज़ोर होने के बावजूद बातचीत करने के लिए बड़े उत्सुक और खुश थे। उनकी बेटी माधुरी और विमला जी द्वारा उनकी बहुत देखभाल की जा रही थी।
यहां यह भी याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि सत्तर सालों के साथ के दौरान उनकी पत्नी विमला जी ने उनके सभी प्रयासों में साथ और योगदान दिया। वे सभी संघर्षों, बाधाओं और उपलब्धियों में हमेशा साथ रहे। वे अपने पीछे विमला जी और एक बेटी माधुरी और दो बेटे राजीव और प्रदीप छोड़ गए हैं। पर्यावरण संरक्षण और लोगों की टिकाऊ आजीविका के लिए काम करते रहना ही उनके लिए हमारी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - July 2021
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