डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी में दो नए क्षेत्रों की धूम है - बायोटेक्नॉलॉजी और इन्फार्मेशन टेक्नॉलॉजी। इनकी शुरुआत मात्र 35-40 साल पहले ही हुई थी। इन दोनों क्षेत्रों ने अच्छे बाज़ार और अच्छे दिमाग दोनों पर ही कब्ज़ा जमा लिया। और बहुत खुशी की बात है कि भारत ने इन क्षेत्रों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी दोनों स्तरों पर पर्याप्त योगदान दिया है।
बायोटेक्नॉलॉजी के बारे में बात करें, तो भारत में शीर्ष पर बैठे निर्णयकर्ताओं को इस नए विज्ञान का महत्व 1980 के दशक में ही समझ में आ गया था और इसे बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त मशीनरी स्थापित करने का निर्णय लिया गया था। योजना आयोग (उस वक्त कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन इसके सदस्य थे) और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय (उस वक्त डॉ. एस. वरदराजन वहां रसायनज्ञ/तकनीकिविद थे) ने मिलकर 1982 में नेशनल बायोटेक्नॉलॉजी बोर्ड की स्थापना की थी। और उन्होंने डॉ. एस. रामचंद्रन को बोर्ड के सदस्य-सचिव के तौर पर चुना। एस. रामचंद्रन उस समय कोलकाता में बेंगाल इम्यूनिटी में कार्यरत थे।
इससे बेहतर कोई हो भी नहीं सकता था। रामचंद्रन सही व्यक्ति थे, सही वक्त पर, और सही जगह पर, सही काम करने के लिए। और इस महान व्यक्ति को ाृद्धांजलि (पिछले माह 82 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई) देते हुए उनके अद्भुत योगदान को याद करते हैं। वे 1986 से 7 सालों तक जैव-टेक्नॉलॉजी विभाग के संस्थापक सचिव रहे और जैव-टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र को बढ़ावा देने और पोषित करने में अपना अमूल्य योगदान दिया।
वह सही वक्त था। कई युवा भारतीय जीव वैज्ञानिक विदेशों में रहकर इस क्षेत्र के विविध पहलुओं के बारे में सीखकर वतन लौटे थे और कुछ करने के सही अवसर की तलाश में थे। रामचंद्रन ने इस बात को समझा और उन लोगों को कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में अवसर प्रदान करवाए, उन्हें आगे बढ़ने के मौके दिए। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बैंगलुरु, मदुरै कामराज विश्वविद्यालय, एम.एस. विश्वविद्यालय बड़ौदा, अन्ना विश्वविद्यालय चैन्नई, जेएनयू दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय, पुणे विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, साथ ही साथ हैदराबाद के सीसीएमबी और चंडीगढ़ के आईएमटैक इसके कुछ उदाहरण हैं। उन्होंने कार्यशालाओं के आयोजन, व्यावहारिक पाठ्यक्रम, विशेष व्याख्यान करवाने में मदद की और जैव-टेक्नॉलॉजी की पाठ्यपुस्तकें लिखने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया (मैं खुद भी उनमें से एक हूं - एमकेयू के स्व. डॉ. कुन्तला जयरामन और प्रो. के. धर्मलिंगम के साथ), प्रयोगशाला के लिए सहयोग और उपकरणों के लिए अनुदान उपलब्ध करवाए और यह सब तेज़ी से और खुशी-खुशी किया। आम तौर पर वे युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए हाज़िर होते थे। ज़्यादातर इन केंद्रों पर जो बड़े पैमाने पर कार्य किए गए वे रामचंद्रन की पहल का नतीजा थे। और भारत में जैव-टेक्नॉलॉजी शोध में आज के कुछ दिग्गज भी अपने रुतबे के लिए रामचंद्रन के समर्थन के ऋणी हैं।
रामचंद्रन को जीव विज्ञान को एक अन्य उभरती टेक्नॉलॉजी - सूचना टेक्नॉलॉजी - के क्षेत्र के साथ जोड़ने की ज़रूरत का भी एहसास था। उन्होंने डॉ. एन. शेषागिरी (नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर के तत्कालीन सचिव) के साथ हाथ मिलाया और दोनों ने मिलकर जैव-टेक्नॉॅलॉजी सूचना प्रणाली (एच्र्क्ष्च् ग़्ड्ढद्य) बनाई। इसे सक्षम वैज्ञानिकों (जैसे प्रो. धर्मलिंगम, प्रो. अशोक कोलास्कर, प्रो. एम. विजयन, प्रो. मंजु बंसल, प्रो. एम.डब्लू. पंडित आदि) के साथ मिलकर देश भर में फैलाया। दरअसल मुझे याद है मैंने अपनी ज़िन्दगी का जो सबसे पहला ई-मेल भेजा था वह एच्र्क्ष्च् ग़्ड्ढद्य की बदौलत ही भेजा था।
रामचंद्रन की दूसरी महत्वपूर्ण पहल थी बायोटेक उद्योग को प्रोत्साहन और समर्थन देने की। भारत में संभवत: पहली-पहली बायोटेक व्यवसायी डॉ. किरण मजूमदार शॉ ने रामचंद्रन के लिए बहुत ही गर्मजोशी के साथ लिखा था और साथ ही दूसरा उदाहरण है टीआईएफआर, मुंबई के डॉ. पद्मानभन बाबू का जिन्होंने अपनी खुद की कंपनी शु डिग्री की थी।
टीका एक अन्य क्षेत्र है जिसे रामचंद्रन ने प्रोत्साहन व समर्थन दिया। यहां यह बात गौरतलब है कि आज भारत दुनिया भर के 45 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चों के लिए इस्तेमाल होने वाले टीकों की आपूर्ति करता है। खुशी की बात है कि उनके उत्तराधिकारी डॉ. सी. आर. भाटिया (1993-96), डॉ. मंजु शर्मा (1996-2004), प्रो. एम. के. बान (2004-12) और अब प्रो. के. विजयराघवन (2013 से अब तक) ने रामचंद्रन के उत्साह को बनाए रखा है। जैव-टेक्नॉलॉजी विभाग का इस साल का बजट लगभग 1,800 करोड़ रुपए है जबकि इसकी तुलना में सन 1997-98 में 20 करोड़ था। और इसका काम समय के साथ बेहतर होता जा रहा है। रामचंद्रन की उदारता ही थी कि जब 2011 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया तो उन्होंने कहा था कि मैं अपना यह सम्मान अपने साथियों के साथ बांटना चाहता हूं जिन्होंने विभाग को बनाने में हाथ बंटाया है।
मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी कि मेरी उनसे मुलाकात होती थी और मैं उनकी कर-गुज़रने वाली आदत का कायल था। जब वे युवाओं के काम के बारे में बताते थे तब वे सकारात्मक उत्साह से भरे होते थे और चेहरे पर मुस्कराहट होती थी।
वे साहित्य और संगीत का लुत्फ उठाते थे, चाहे बिथोवेन हो या बालमुरलीकृष्णन हो, ड्वोराक हो या दिक्षितार। लेकिन साथ ही वे कठिनाइयों से जूझते हुए आगे बढ़ने वालों में से थे। मैं सीसीएमबी हैदराबाद में काम करता था। रामचंद्रन वहां रिसर्च एडवाइज़री बोर्ड के सदस्य रहे और उनका कार्यकाल यादगार रहा। उनके सवाल तीखे हुआ करते थे और आधे-अधूरे जवाब के प्रति उनकी नाराज़गी हमें परेशान तो करती थी मगर सटीक जवाब की ओर ले जाती थी। मुझे उन्हें करीब से जानने का अवसर मिला जब मैं यूएसए के बेथेस्डा, एनआईएच में फोगार्टी आगंतुक वैज्ञानिक के तौर पर काम कर रहा था और वे वहां फोगार्टी विद्वान थे। और तब मैंने वहां उनका जुनून देखा कि जीव विज्ञान में जो भी संभव है, उसे भारत में लाया जाए। दरअसल जब जैव-टेक्नॉलॉजी का क्षेत्र उभर ही रहा था, उस समय डॉ. रामचंद्रन द्वारा किए गए काम के लिए देश उनका ऋणी है। इसलिए जैव टेक्नॉलॉजी विभाग ने उनकी याद में वार्षिक रामचंद्रन व्याख्यान माला शु डिग्री की है जो विभाग के संस्थापक को ाृद्धांजलि है। (स्रोत फीचर्स)
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