एस. अनंतनारायणन


पौधों को खाने वाले कीड़ों को खाने वाले अन्य कीड़ों को संकेतों द्वारा आकर्षित करके पौधों को बचाना कृषि का एक रसायन-मुक्त रास्ता हो सकता है।
फसली पौधों के विकास का उद्देश्य है अधिक उत्पादन और गर्मी या सूखा आदि खतरों का सामना करने की शक्ति। ऐसे गुण पाने के चक्कर में हम अक्सर जंगली पौधों में उपस्थित प्राकृतिक कीट नियंत्रण की सुरक्षा खो देते हैं। इसकी वजह से हमें बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता है, पैसा खर्च करना पड़ता है और पर्यावरण का नुकसान होता है। और यह सब एक ऐसे कार्य के लिए जिसका प्रबंध मनुष्य के हाथ आने के पूर्व जंगली पौधे खुद ही कर लेते थे।
स्वीडन के कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय और मेक्सिको के राष्ट्रीय पोलीटेक्निक संस्थान में कार्यरत जोहन स्टेनबर्ग, मार्टिन हेल, इन्गर आह्मन और क्रिस्टर ब्योर्कमान ने एलसेवीएर की विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में बताया है कि कुछ पौधे ऐसे कीड़ों को आकर्षित करके पालने में समर्थ होते हैं जो उस पौधे को तो हानि नहीं पहुंचाते लेकिन हानि पहुंचाने वाले कीड़ों को खा जाते हैं। यह क्षमता जंगली पौधों में मौजूद थी, किंतु आज के फसली पौधों में नहीं है। उनमें इस क्षमता को फिर से डालना भी संभव नहीं है। वैज्ञानिकों का सुझाव है कि फसली पौधों के साथ कुछ जंगली पौधे लगाए जाएं या जंगली पौधों से उत्पन्न होने वाले कीट आकर्षक रसायन का छिड़काव किया जाए।

शोध पत्र के लेखक बताते हैं कि कई अध्ययनों से पता चला है कि जंगली पौधों को किसी जानवर के दांत से घाव हो जाने पर वे एक वाष्पशील पदार्थ छोड़ते हैं, जिसकी गंध से यह ‘घोषणा’ होती है कि पौधों को चबाने वाला कोई जानवर या जीव परिदृश्य पर आया है। इस गंध-संदेश का असर यह होता है कि अन्य पौधे सचेत हो जाते हैं और अपनी सुरक्षा हेतु कदम उठाते हैं। जैसे, खुले पत्ते बंद हो जाते हैं, या पौधे कोई प्रतिकारक रसायन छोड़ते हैं ताकि आक्रमण करने वाला जानवर पीछे हट जाए। जब घास कटती है तो हम सभी ने ऐसी गंध अनुभव की है।
अपने साथी पेड़-पौधों के आलावा, यह गंध-संदेश अन्य कीड़ों को भी न्यौता देता है। ये कीड़े आकर पौधों को कुतर रहे कीड़ों पर हमला करके पौधे की रक्षा करते हैं। मेक्सिको के मार्टिन हेल कहते हैं कि “ऐसी चेतावनी देने वाली गंध कई प्रकार की होती हैं और हर गंध बहुत विशिष्ट जानकारी देती है।” इस गंध से न सिर्फ यह पता चल सकता है कि घाव किस प्रकार का है बल्कि हमलावर की पहचान भी पता चल सकती है। फायदा यह होता है कि सही जाति के रक्षक कीड़े आकर्षित होते हैं और सुरक्षा तंत्र अधिक प्रभावी हो जाता है। इसके अलावा, सही रक्षक कीड़ों को बुलाने के बाद पौधा यह भी चाहता है कि ये कीड़े वहीं बने रहें और अपना रास्ता न नापें। इसके लिए, पौधे अक्सर शहद या अन्य स्वादिष्ट पदार्थ छोड़ते हैं, जिसके लालच में कीड़े वहीं धावा बोलते हैं। इन भोजन-रूपी तोहफों में ऐसे कार्बोहाइड्रेट्स मौजूद होते हैं जो रक्षक कीड़ों की पोषण की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उपयुक्त होते हैं लेकिन पौधों के दुश्मनों के लिए नहीं। भोजन मिलते रहने से रक्षक कीड़ों को पौधों को बचाने के लिए ऊर्जा मिलती रहती है और वे खुराक के लिए आपस में लड़ते भी नहीं।

खुराक के अलावा पौधे कीड़ों को अपने पास रखने के लिए आवास या शरण भी दे सकते हैं। उदाहरण के लिए ऐसे सुराख, जो चींटियों या घुन जैसे जीवों के काम आते हों, लेकिन जो पौधों के दुश्मनों के लिए उपयुक्त न हों। आम तौर से पाया गया है कि जो पौधे फूलों के अलावा अन्य हिस्सों (पुष्पेतर अंगों) से शहद या पराग छोड़ते हैं या रहने, छिपने की जगह देते हैं, वे नाशक जानवरों या जीवों से ज़्यादा सुरक्षित रहते हैं।
शहद जैसे पदार्थ छोड़ने से पौधे को और भी फायदे हो सकते हैं। जैसे कि घाव या संक्रमण से सुरक्षा। उदाहरण के लिए वाष्पशील सेलिसिलिक एसिड संक्रमण के खिलाफ पौधों के प्रतिरोध का नियमन करता है और कुछ रूपों में तो यह बैक्टीरिया और फफूंद की वृद्धि को रोकता भी है। पुष्पेतर स्राव की इस बहुमुखी क्रिया के चलते यह एक मूल्यवान गुण है और इसे फसली पौधों में पैदा करने के कई फायदे होंगे।

जब जंगली पौधों को मनुष्य ने फसल के लायक बनाने के लिए प्रजनन द्वारा विकसित किया, तो कई नए गुण अवश्य उभरे, लेकिन लगता है जंगली पौधों की जैव कीट नियंत्रण क्षमता को हमने खो दिया। शोध पत्र में कहा गया है कि “फसल पालतूकरण का मकसद रहा है पौधों में मनुष्य के लिए उपयोगी गुण पैदा करना। उपज के अलावा पालतूकरण के अंतर्गत आम तौर पर साइज़, स्वाद और पोषण की गुणवत्ता को बढ़ाया गया है... अधिकांश संवर्धन कार्यक्रमों में पौधों के एक साथ पकने और पौधों की एक-सी साइज़ को बढ़ावा दिया गया है...या कृषि व कटाई से सम्बंधित गुणों में या यातायात और भंडारण में सुविधा की दृष्टि से बदलाव किए गए हैं...रोगकारकों या अन्य किस्म के तनाव के प्रति प्रतिरोध को बढ़ाने के प्रयास भी हुए हैं।” मगर, शोध पत्र में बताया गया है कि शाकाहारी कीटों के विरुद्ध क्षमता पैदा करने की उपेक्षा हुई है। शोध पत्र में तो ऐसे उदाहरण दिए गए हैं कि संवर्धकों और सरकारों ने जानबूझकर ऐसे पौधों को कार्यक्रमों से बाहर रखा जिनमें पुष्पेतर स्राव होता है क्योंकि पौधों पर कीटोंे की बस्ती को अवांछनीय माना गया था।

कीटों से रक्षा करने वाली कई क्षमताओं को तो संवर्धन द्वारा हटाया गया, क्योंकि वे कड़वाहट, रोमिलता, कठोरता, विषाक्तता या अन्य अवांछनीय लक्षणों से जुड़े थे। इन्हें कई बार इसलिए भी हटाया गया क्योंकि इन्हें बनाने में पौधे की बहुत ऊर्जा खर्च होती है और उत्पादन कम हो जाता है।
परिणामस्वरूप अब हमारे खेत ऐसे पौधों से भरे हैं जिनका उत्पादन भरपूर है और वे सूखा या बाढ़ से बच सकते हैं। ये ऐसे लक्षण हैं जिनका फायदा कीटों को भी उतना ही है जितना हमें मगर इन फसली पौधों के पास कीटों से बचने की वह क्षमता नहीं है जो उनके जंगली पूर्वजों के पास थी। अत: वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि यह क्षमता पौधों में वापस डाली जाए, ताकि वे फिर से कीटों या अन्य हानिकारक शाकाहारी जीवों से मुक्त रहें। लेकिन वाष्पशील कार्बनिक पदार्थ बनाने की क्षमता या पुष्पेतर स्राव पैदा करने की क्षमता को हटाने या बनाने में इतने सारे जीन्स की भूमिका है कि सदियों की फिल्म को वापस घुमाना संभव नहीं है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी रोग से बचने की क्षमता अक्सर सिर्फ एक जीन पर निर्भर होती है। लेकिन, खतरे के वक्त विशेष गंध का उत्सर्जन इतना सीधा नहीं है। आम तौर पर अपनाई जाने वाली संवर्धन तकनीकों (जैसे संकरीकरण, उत्परिवर्तन वगैरह) से यह संभव नहीं है कि गुम हो चुकी क्षमता को सदियों से खेतों में उगाई जा रही फसलों में डाला जा सके।
इसीलिए व्यावहारिक स्तर पर जैविक कीट नियंत्रण के अंतर्गत मौजूदा कीट-भक्षियों की संख्या को बनाए रखना और खेतों में आसपास से उन्हें आकर्षित करना या कहीं से लाकर छोड़ देना शामिल रहे हैं। इस तरीके की कामयाबी सीमित रही है, क्योंकि या तो कीटभक्षी कीड़े फिर आसपास के खेतों में फैल जाते हैं, या कीटों के खत्म हो जाने पर खुद भूखे मर जाते हैं या फिर वे उन पौधों को ही खाने लग जाते हैं जिनकी रक्षा के लिए उन्हें लाया गया था!

प्रयोगशला में बनाए गए वाष्पशील पदार्थ छोड़ना भी काम नहीं देता क्योंकि यह गंध कीटभक्षी कीड़ों को ही नहीं, अन्य हानिकारक कीटों को भी आकर्षित करती है। यानी असर उल्टा भी हो सकता है! पौधों पर ऐसे पदार्थों के प्रभाव बहुत पेचीदा होते हैं और कभी-कभी अवांछनीय भी हो सकते हैं। इसके अलावा ये प्रभाव तापमान, नमी इत्यादि कई बातों पर निर्भर होते हैं जिनका हिसाब जंगली पौधा तो रख लेता है, मगर इन्हें भलीभांति समझा नहीं गया है।
अत: इन रसायनों का उपयोग खतरे से मुक्त नहीं है। एक बात यह भी है कि अगर कीटभक्षियों को गलती से उस समय बुला लिया जाए जब खाने को कीड़े न हों, तो हो सकता है कि कुछ समय बाद कीटभक्षी उन रसायनों का असर भूल जाएं।
एक तरीका यह है कि गंध पदार्थ छोड़ने वाले पौधे फसली पौधों के बीच-बीच में लगा दिए जाएं। ये जंगली पड़ोसी गंध छोड़ेंगे जिससे कीटभक्षी कीड़े खींचे चले आएंगे और फसली पौधों को भी फायदा मिल जाएगा। एक तरीका यह है कि प्रयोगशाला में बनाई गई ऐसी गंध का छिड़काव किया जाए जो कीड़ों को दूर भगाती हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे यंत्र भी हैं, जो गंध छोड़ कर कीड़ों को पुकारते हैं और फिर शहद या शक्कर छोड़ कर उपकृत भी करते हैं।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं का कहना है कि अभी तो काफी अनुसंधान की आवश्यकता है। प्रकृति में वाष्पशील पदार्थों और गंध पर आधारित संचार के अस्तित्व की जानकारी अभी लगभग तीस साल से ही है। कीट नियंत्रण के जैविक तरीकों पर व्यापक कार्यक्रमों की ज़रूरत है ताकि टिकाऊ व प्रभावी कीट नियंत्रण संभव हो सके। (स्रोत फीचर्स)