लेखक : एलेक्स एम. जॉर्ज
अनुवाद: के.बी.सिंह
कनव् को एक स्कूल की तरह देखा जाए या कम्यून की तरह? यहाँ बच्चे उस जगह पर चल रही भिन्न-भिन्न गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं और इसी प्रक्रिया में सीखते भी हैं। इस तरह कनव् में ‘क्लासरूम’ अपनी हर गतिविधि में कहीं भी पाया जा सकता है!
हमारे देश में स्कूली शिक्षा की अनेक वैकल्पिक दृष्टियाँ विकसित हुई हैं। केरल के वायनाडू ज़िले के चीनगोडे गाँव में ‘कनव्’ ऐसी ही एक खोज है। स्कूल से अधिक यह एक कम्यून है, सामूहिक जीवन का एक तरीका है, जहाँ सीखना अपनी प्राकृतिक गति से होता है। टॉलस्टॉय, टैगोर और कृष्णमूर्ति जैसे अनेक लेखकों व दार्शनिकों ने स्कूली व्यवस्था पर चिन्तन-मनन किया है तथा उसे लेकर प्रयोग किए हैं। पर ‘कनव्’ में अलग क्या है?
कनव्, नाटककार और लेखक के.जे. बेबी की एक साहसिक पहल है। उनका नाटक नट्टुगधिका औपनिवेशिक तथा सामन्ती मालिकों के प्रभुत्व के विरुद्ध आदिवासी समूहों के प्रतिरोध की कहानी है। अपने आप में ‘नट्टुगधिका’ गाँव से बुरी आत्माओं की सफाई का अनुष्ठान है। पर अपने नाटकीय रूप में यह आदिवासियों के सामाजिक/सांस्कृतिक जीवन को औपनिवेशिक मालिकों तथा ज़मींदारों की बुरी आत्माओं के प्रभाव से मुक्त कराने की ज़रूरत को प्रदर्शित करता है। उनका उपन्यास मवेलिमन्रम् एक आदिवासी समूह की लोकगाथाओं का विखण्डन करता है। यह एक सामन्त द्वारा दूसरे सामन्त को एक आदिवासी युवा की बिक्री पर अदालती निर्णय की बात करता हुआ बताता है कि कैसे आदिवासियों का सभी सम्भव तरीकों से औपनिवेशीकरण किया गया है।
इन दिनों (2002) में ‘कनव्’ में 17 वर्ष की आयु तक सभी आयुवर्गों के लगभग 40 बच्चे हैं। हम कह सकते हैं कि यहाँ किसी भी सामान्य दिन की शुरुआत शास्त्रीय रागों के गायन से होती है और उसकी समाप्ति ‘टुड़ी’ (एक आदिवासी ढोल) के वादन पर नृत्य से। शायद लोक और शास्त्रीय का यह मिश्रण ‘कनव्’ को अलग बनाता है।
हर रात सोने से पहले बच्चे दिन भर की गतिविधियों का मूल्यांकन करते हैं। इनमें निम्न चीज़ें शामिल होती हैं:
1. तलवार सहित विभिन्न हथियारों के साथ कलरी (वह ज़मीन जहाँ केरल की परम्परागत युद्धकला का प्रदर्शन किया जाता है) में प्रदर्शन।
2. रसोई में काम जहाँ उस दिन के लिए कांजी या कसावा पकाया जाता है।
3. गायों के साथ जंगल जाना या गौशाला की सफाई करना।
4. खेतों में धान की खेती करना।
5. नाटक मंचन।
6. कहानियों को पुन: सुनाना।
7. कागज़ पर रंगों का खेल करना।
8. तितलियों को देखना।
9. सिलाई मशीन पर काम करना।
10.बहुत सवेरे जीप को धकेलना (स्टार्ट करने के लिए)।
11.पौधों की देखभाल करना।
12.अपने से छोटों की देखभाल करना आदि।
कनव् तब शुरु हुआ जब लेखक व नाटककार के.जे. बेबी और उनकी नाट्य मण्डली स्कूली व्यवस्था से निराश हो गए। बड़े छात्र नाट्य मण्डली में शामिल लोगों के बच्चे हैं। वे अपने माता-पिता को निरन्तर नाटकों और संगीत में डूबे देखते हैं। स्वयं मैं भी सामाजिक और स्कूली जीवन में प्रतियोगिता की प्रकृति से निराश रहा हूँ।
नट्टुगधिका नाटक का एक संवाद स्कूली शिक्षा के बारे में है। ‘गाधीकाकरन’ (सूत्रधार) आदिवासी मुखिया से कहता है, “देखो! वहाँ सड़क पर देखो। उसकी स्कूली पढ़ाई पूरी हो गई है। वह अपने ऊपर उन नकली चरित्रों को, इतिहास के उन झूठे संस्करणों को लादने की कोशिश कर रहा है। उसे पहले ही मालूम हो चुका है कि उसकी सारी मुसीबतें उसकी जनजाति और उसके लोगों के अस्तित्व के कारण हैं। यदि वह इन चीज़ों में रमा रहा तो निश्चित रूप से अपने लोगों को बेकार, गद्दार और अस्तित्व के अयोग्य घोषित कर देने के ऐतिहासिक प्रस्तुतिकरणों को अपने भीतर समाहित कर लेगा। आओ! उसे वहाँ से बाहर निकालें। उसे अपने घर में लाएँ, ताकि उसे महसूस हो कि मुसीबतों से दूर भाग जाने से वे खत्म नहीं हो जातीं।”
विकल्प का सपना देखते हुए बेबी ने गौर किया कि आदिवासियों में अब भी सामूहिक जीवन बचा हुआ है। आधुनिक स्कूली शिक्षा और समाज ने मनुष्यों के बीच से बिरादराना तत्वों को नष्ट कर दिया है। उन्होंने महसूस किया कि बच्चों के जीवन में प्रवेश करने का शायद सबसे अच्छा तरीका ‘थुड़ी’ और ‘कुझल’ (बाँसुरी जैसा एक वाद्य यंत्र) हो सकते हैं इसलिए बिलकुल शुरुआत से ही यहाँ संगीत तथा अन्य कला रूपों को बहुत महत्व दिया गया।
कम्यून में रहने वाले एक युगल ‘कलरी गुरुक्कल’ (केरल की परम्परागत युद्ध कला) और ‘मोहिनीअट्टम्’ (केरल की एक नृत्य कला) के शिक्षक हैं। उन्होंने वरिष्ठ छात्रों को लगभग छह साल तक शिक्षा दी है। कलरी में कुछ छात्रों ने आयुर्वेदिक मालिश की तकनीकें भी सीख ली हैं। ‘कनव्’ ने संगीत, नृत्य, युद्ध कलाएँ, पेंटिंग आदि सीखने को बहुत महत्व दिया है। समूह के प्रत्येक बच्चे ने एक वाद्य यंत्र की महारत हासिल कर ली है। अधिकांश बच्चे मिट्टी के बर्तन बनाने का काम भी कर लेते हैं। ‘कनव्’ के वरिष्ठ छात्रों का समूह बाहर की संस्थाओं में टेराकोटा और मूर्तिशिल्प का प्रशिक्षण लेने भी जा चुका है। उनमें से कुछ ने वाहनों की मरम्मत आदि का काम भी सीखा है। ‘कनव्’ परिसर के बाहर रहने पर भी वे यहाँ सीखी गतिविधियों का अभ्यास करते रहते हैं।
ये कौशल समूह की आमदनी का मुख्य स्रोत बन गए हैं। छात्र राज्य भर में आयोजित होने वाले धार्मिक त्यौहारों, स्कूल या कॉलेज के परिसर में होने वाले उत्सवों तथा राज्य के विभिन्न कला व खेल क्लबों की जयन्ती में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार कम्यून काफी सीमा तक अपने आंशिक भरण-पोषण में सक्षम होता है। मंचीय प्रदर्शनों के अलावा, वे अपनी आवश्यकता का 70 प्रतिशत खाद्यान्न जैविक खेती से प्राप्त करते हैं। अन्य ऐच्छिक योगदानों व सेवाओं से भी उनको सहायता मिल जाती है।
इस संस्था को देखने के अनेक तरीके हैं। बहुत से लोगों की नज़र में इसने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को अंगीकार कर लिया है। कुछ अन्य इसे मुख्यधारा शिक्षा व्यवस्था आलोचक घरेलू शिक्षा व्यवस्था के हिस्से की तरह देखते हैं। संस्था के तौर पर उन्होंने शिक्षा दर्शन को विमुक्तिकारी सिद्धान्त की तरह स्वीकार किया है। यहाँ वास्तव में महसूस होता है कि ये बच्चे व्यापक सामाजिक जीवन के प्रति संवेदनशील एक समग्र व्यक्तित्व के विकास की ओर बढ़ रहे हैं।
सीखना कहाँ होता है?
परिसर में किसी विशेष कक्षा की तलाश करना मुश्किल काम है क्योंकि बच्चे हर जगह से सीखते हुए प्रतीत होते हैं -- धान का खेत, मिट्टी के बर्तन बनाने वाला शेड, पुस्तकालय, रसोईघर, गौशाला, कलरी हॉल आदि। सीखने का स्थान उनके आस-पड़ोस तक विस्तारित है -- उदाहरण के लिए झरना जहाँ वे तैरना सीखते हैं तथा यह समझते हैं कि कैसे एक छोटी टरबाइन 40 वॉट का बल्ब जला सकती है और बाँस के पुल कैसे बनाए जा सकते हैं। जंगल उनको सजीव धरती उनका अपना इतिहास, वन्य जीवन आदि का असाधारण ज्ञान देता है। सीखने का स्थान दूर के स्थानों तक भी फैला होता है, जैसे इडक्कल जो केरल में गुफा जीवन का प्राचीनतम प्रमाण है जहाँ प्राचीन काल में रहने वाले जैन मुनियों ने ज्यामितीय आकृतियाँ उकेरने में मदद की थी। सीखने में जैन मन्दिर के अवशेषों का अध्ययन भी शामिल है जो हमें क्षेत्र में कृषि की प्रगति के बारे में बताते हैं। मावूर आन्दोलन उनको औद्योगीकरण के नुकसान बताता है। राज्य की राजधानी तिरुवनन्तपुरम्, जहाँ आदिवासियों ने उनसे छीन ली गई ज़मीन वापस दिए जाने की मांग रखी थी, उन्हें राज्य की शक्ति और अधिकार पहचानने का तरीका सिखाती है।
साझा की गई प्रत्येक गतिविधि में दर्शन को समाहित करने से सीखने में मदद मिलती है। यहाँ पाठ्यक्रम तथा पाठ्येत्तर ज्ञान में विभाजन नहीं किया जाता है। जीवन कौशल भी सीखने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। फिर भी, हममें से जो लोग अब भी स्कूल को पढ़ने, लिखने और तार्किकता की क्षमता प्रदान करने वाले स्थान की तरह देखते हैं, उनके लिए ‘कनव्’ में सीखने की प्रक्रिया का संक्षिप्त विवरण सहायक होगा।
पढ़ना, लिखना आदि छोटे समूहों में सिखाया जाता है। इसे सीखने में बच्चे दिन के चार घण्टे लगाते हैं। अपने भाषा कौशल के आधार पर बच्चे समूह बनाते हैं और बड़े बच्चे उनकी कक्षाएँ लेते हैं। बड़े बच्चे छोटों को अक्षर, गीत, लोककथाएँ आदि सीखने में निर्देशित करते हैं। ‘कनव्’ में अधिकांश बच्चे वे हैं जिन्होंने मुख्यधारा शिक्षा को बीच में ही छोड़ दिया है। उनमें से अधिकांश आदिवासी परिवारों के हैं जिनकी मातृभाषा को मुख्यधारा स्कूलों द्वारा अनदेखा किया गया है। यहाँ पढ़ने और लिखने में मलयालम भाषा का प्रयोग होता है। पर दिन के समय या सीखने की प्रक्रिया में वे समूह के भीतर साथ रहने से विकसित हुई ‘नई भाषा’ में बात करते हैं। यहाँ आदिवासियों के अपने अतीत और ज्ञान के बारे में जागरूकता को बहुत महत्व दिया जाता है।
सीखने की विधियाँ
साथी समूह: एक घटना बता सकती है कि यहाँ साथी समूह में सीखना कैसे होता है। यह घटना तालाब के पास, उस तक जाती सीढ़ियों पर घटी। तालाब में कुमुद के बहुत से फूल थे। वास्तव में, केरल में भी बहुत कम लोग ही कुमुद और कमल में अन्तर कर पाएँगे। इससे भी कम लोग उनके प्रजनन का वास्तविक तरीका जानते होंगे। चार बच्चों का एक समूह तालाब के पास स्थित पुस्तकालय की सफाई करने आया। एक छोटा बच्चा फूलों को गिनने लगा -- अचानक उसने गौर किया कि वे दो रंगों के थे, गुलाबी और नीले। एक बड़े बच्चे ने बताया कि कुछ साल पहले तक इनके बीच सफेद फूल भी थे। उसने कहा, “वास्तव में, सफेद फूल केवल तभी दिखाई देते हैं जब पानी का स्तर और नीचे चला जाता है। सफेद कुमुदों का बचे रहना मुश्किल होता है।” छात्र ने स्वाभाविक रूप से पूछा कि “सफेद वाले कैसे उगते हैं?” बड़े बच्चे ने समझाया, “हम बस पत्तियाँ गिरा देते हैं। जब पत्तियाँ सड़ जाती हैं तो उनसे अंकुर निकल आते हैं।”
एक अन्य छोटे बच्चे ने लगभग सड़ चुकी एक पत्ती के बीच से निकले छोटे अंकुर की ओर इशारा किया। फिर उन्होंने याद किया कि पिछले साल उन्होंने कुमुद के बीज खाए थे। बड़े बच्चे ने समझाया कि “जब तक हर साल निराई न की जाए, पौधों का उगना मुश्किल होता है।”
लोक रीतियाँ: मिथक, कहानियाँ और लोककथाएँ पाठ्यक्रम में शामिल हैं। बच्चे उन पर गर्व करते हैं। उनके लोकगीत न केवल उनके आदिवासी अतीत से हैं बल्कि कबीर भजनों और पहाड़ी धुनों को भी उनके संग्रह में स्थान मिला है। एक लोककथा ‘पक्कोम कोट्टा’ (पक्कोम में बना किला) के बारे में है। यह कहानी उनके पूर्वजों के पक्कोम कोट्टा से भाग निकलने पर है जहाँ उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार होता था। वे अपने सामन्ती मालिकों के चंगुल से भाग निकले और जंगल में इधर-उधर घूमने लगे। उनका विश्वास था कि वहाँ उनके देवी-देवता उनकी रक्षा करेंगे। पर सामन्त ने अपने देवताओं को उनके देवताओं के विरुद्ध भेज दिया और वे डर गए। इस प्रकार पूर्वजों को फिर पकड़ कर गुलाम बना लिया गया, यहाँ तक कि सामन्ती मालिकों ने उनके देवताओं के अस्तित्व को भी खतरे में डाल दिया।
‘पानिया’ जनजाति के किसी भी बच्चे से ‘थुुड़ी’ में महारत की आशा होती है, जबकि दूसरे आदिवासी समुदाय कुझल बजाने में माहिर होते हैं। पर यदि आप बड़ों से पूछें कि उन्हें ये वाद्य यंत्र बजाना किसने सिखाया तो वे बस शून्य में ताकते रह जाएँगे, या बस इतना कहेंगे कि उन्होंने अपने से बड़ों को इन्हें बजाते देखा था। ऐसे कई दिन होंगे जब आप बच्चों को अपने लिए बाँस के टुकड़ों से बाँसुरी या बाँस से थुड़ी बना कर अभ्यास करते देख सकते हैं।
लोककथाओं और मिथकों को हमेशा वर्णित तथ्यों या सत्य की तरह स्वीकार नहीं किया जाता है। ऐसे अवसर भी होते हैं जब बच्चे उनके असत्य को जान लेते हैं। परिसर में एक चट्टान (कोझीपारा) के बारे में एक लोकप्रिय किंवदन्ती बहुत प्रचलित थी। ऐसा माना जाता था कि आधी रात में इसके पास जाने वाले किसी आदमी को मुर्गे के बांग देने की आवाज़ सुनाई देगी। जैसा कि एक फिल्म में दिखाया गया है, यह सिद्ध करने के लिए बच्चे पूरी रात उसके पास रहे कि ऐसा कुछ नहीं होता है।
शास्त्रीय तरीका: केरल में शताब्दियों से अस्तित्व में रहने वाली ‘कलरीपयट्टु’ एक खास युद्ध कला है। सामन्ती युग में शासक युद्ध विजेताओं को नौकर रखते थे जो अक्सर अपने मालिकों के सम्मान के लिए अपनी जान गवाँ देते थे। आत्मरक्षा के साथ-साथ यह कला छात्रों को बिना हथियारों का प्रयोग किए दुश्मन से जीतना सिखाती है। युद्ध कला के अलावा, विकृत अंगों के उपचार के कई रूपों को भी अपने भीतर समाहित करती है।
कनव् में छात्र कला के इन दोनों रूपों में प्रशिक्षण लेते हैं। यह बहुत कठोर है। दूसरी युद्ध कलाओं के उलट, अनेक वर्ष प्रशिक्षण के बाद ही कोई इसमें महारत प्राप्त कर सकता है। ‘कनव्’ में वर्तमान गुरु बताते हैं कि इस कला में पारंगत होने के लिए उनके एक छात्र को लगभग 12 साल प्रशिक्षण लेना पड़ा। चूँकि इस युद्ध कला का जन्म सामन्ती युग में हुआ था, इसलिए इसकी प्रशिक्षण व्यवस्था में भी शास्त्रीय पुट है। अभ्यास करते हुए छात्र को क्रम याद रखना पड़ता है। योद्धा से अपने शरीर और हथियारों को एक खास क्रम में चलाने की आशा की जाती है। पारम्परिक तौर पर इस युद्ध कला का अभ्यास करने वाले जाति समूहों की अब इसे बनाए रखने में कोई रुचि नहीं है, पर आधुनिक गुरु इस कला से अच्छी तरह परिचित हैं। वे जानते हैं वास्तव में इसने जाति बाधाएँ तोड़ दी हैं और अब इसकी शिक्षा एकलव्य के वंशजों की बाद वाली पीढ़ियों को दी जा रही है। बच्चे अन्य शास्त्रीय कलाओं को भी सीखते हैं। मोहिनीअट्टम एक नृत्य कला है। याद रखने के लिए, कलरीपयट्टु की तरह इसकी भी अपनी खास शब्दावली है।
गुरु-शिष्य सम्बन्ध: एक चीज़ यहाँ की शिक्षा को आमूल रूप से पुन: परिभाषित करती है और वह है ‘कनव्’ में जारी गुरु-शिष्य सम्बन्ध। बहुत-से वरिष्ठ बच्चे याद करते हैं कि जब वे ‘कनव्’ आए थे तो गुरु ने उनकी कैसे देखभाल की थी। गुरु अधिकांश गतिविधियों में पहल करते हैं। प्राचीन गुरुओं के उलट जिनको शिष्यों द्वारा सब कुछ उपलब्ध कराया जाता था, कनव् में गुरुओं के साथ लगभग समान स्तर पर व्यवहार किया जाता है। स्वाभाविक है कि बच्चों से गुरुओं के व्यवहार से सीखने की आशा की जाती है।
कई प्रकार से गुरु कठोर काम कराने वाला हो सकता है। वह प्रत्येक बच्चे से सक्रिय होेने तथा दिन की सारी गतिविधियों में जोश से भाग लेने की आशा करता है। निम्न विवरण इसे विस्तार से बता सकता है।
मैक्सिम गोर्की की किताब माँ पढ़ना अपने आप में एक अनुभव था। सबसे बड़े बच्चों ने इस पठन सत्र में भाग लिया। पुस्तक की शुरुआत फैक्ट्री के पास कॉलोनी में रहने वाले मज़दूरों की एकरस ज़िन्दगी के वर्णन से होती है: “मज़दूर बस्ती के ऊपर, रोज़ तेल से भरी घिनौनी हवा में फैक्ट्री की सीटी काँपती हुई चीखती है। इसके आदेश पर स्वामिभक्त, चिड़चिड़े लोग नींद से मांसपेशियों को ताज़गी मिलने से पहले ही उठ जाते हैं और अपने छोटे-छोटे स्लेटी घरों से भयभीत तिलचट्टों की तरह तेज़ी से निकल भागते हैं। वे ठण्डी, अँधेरी और कच्ची गली में से चलते हुए जाते हैं और फैक्ट्री के ऊँचे पत्थर के कोटरों में समा जाते हैं, जो अपनी दर्ज़नों तेल भरी आँखों से सड़क को प्रकाशित करती हुई, ठण्डी आत्मतुष्टता में उनकी प्रतीक्षा कर रही होती है।”
यह वर्णन, विस्तार से बताता है कि कॉलोनी वासियों की दिनचर्या फैक्ट्री की सीटी से कैसे नियंत्रित होती है। गुरु चाहते थे कि बच्चे इस बात पर विचार करें कि कैसे उनका अपना समाज इसके लिए एक उपमा बनता जा रहा है। बच्चों से आशा थी कि तीन शामों को गोर्की के अनेक लिखित अंशों के शब्दों का पुन: प्रयोग करते हुए वे वर्णन करें कि कैसे कनव् या उससे बाहर चीज़ें उसी दिशा में चल रही हैं।
आधुनिक ज्ञान: फिल्म निर्माण
जब मैं परिसर में घूम रहा था तब अधिकांश छात्र चार दिनों से चल रही फिल्म शूटिंग को जिज्ञासा से देख रहे थे। चार छोटे छात्रों का एक समूह कॉफी के बगीचे में कैमरे के सामने से गुज़रने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक उनमें से एक ने कैमरामैन, दूसरे ने डायरेक्टर और तीसरे ने लाइट बॉय की भूमिका निभाने का फैसला कर लिया। आवाज़ आई - ‘साइलेंस’! ‘कैमरा’! ‘रोलिंग’! ‘एक्शन’! ‘कट’! ये छात्र इन अँग्रेज़ी शब्दों को नहीं पहचानते थे, पर उनके लिए यह इन सभी चीज़ों की शुरुआत थी।
मलयालम फिल्मों को देखते समय केरल के आदिवासियों में ‘काल्पनिक’ आश्चर्यजनक चीज़ों के प्रति एक सम्मोहन देखा गया है। जब फिल्मों की चर्चा होती है तो बच्चों में बहुत उत्तेजना होती है। ‘कनव्’ में फिल्में भी पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। बच्चों ने बहुत गौर से ‘सेवेन समुराई’ और ‘बाइसिकल थीफ’ जैसी उत्कृष्ट फिल्में देखी हैं।
इन्हीं दिनों ‘कनव्’ भी डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माताओं के लिए एक विषय बन गया। मेरे वहाँ जाने से पहले कनव् के बारे में तीन डॉक्यूमेंट्री फिल्में बन चुकी थीं। ‘कनव्’ में शिक्षा प्रक्रिया का वर्णन करती विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक फिल्म, परिसर में एक दिन का वर्णन करती ‘थर्ड आई कम्युनिकेशन’ की एक फिल्म तथा वर्ष 2001 में सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली ‘कनव्मलायिलेक्कू’। इन सभी अन्त:क्रियाओं से बच्चों को फिल्मों से कुछ परिचय का मौका मिला। यह पाया गया कि किसी भी अन्य आधुनिक कला की तुलना में फिल्में सामूहिक रूप से सीखने का अधिक अवसर प्रदानकरती हैं।
अन्त में बच्चों ने गुरु के निर्देशन में एक फीचर फिल्म बनाने का प्रयास किया। यह अपने किस्म की पहली फीचर फिल्म है जिसमें आदिवासी जीवन का आधुनिकता के साथ द्वन्द्व दिखाने के लिए काफी हद तक आदिवासी बोली का प्रयोग किया गया है। इस फिल्म में आधुनिक आदिवासी जीवन को प्रभावित करने वाले प्रत्येक विषय को शामिल किया गया है। इनमें छीनी गई ज़मीनें प्राप्त करने, अफगानिस्तान युद्ध, आदिवासी समाज में अनेक अविवाहित माताओं की दुखद पीड़ा, किशोर शराब विक्रेताओं, तथा उनके देवताओं को किनारे कर उनका धर्मान्तरण का प्रयास कराने वाले हिन्दू मठाधीशों, सभी को अपनी ‘गुड़ा’ (एक प्रकार की झोपड़ी) में मासिक धर्म संस्कार से गुज़रने वाली एक लड़की की नज़र से देखा गया है। वर्ष 2003 में केरल राज्य फिल्म पुरस्कारों में इस फिल्म का विशेष उल्लेख हुआ था।
अतिथि और मुलाकातें: अक्सर अतिथि यहाँ सीखने और सहभागिता के लिए आते हैं, पर कई बार वे भी अनेक अवसर प्रदान करते हैं। सभी अतिथियों को ‘मामा/मौसी’ कह कर सम्बोधित किया जाता है। अपनी पहली यात्रा के दौरान (‘कनव्’ में ठहरने के एक साल पहले) मैं तय नहीं कर पा रहा था कि अपने काम और जिस राज्य में मैं काम करता हूँ, उनका परिचय कैसे दूँगा। जिस हॉल में बच्चे अधिकांश गतिविधियाँ करते थे वहाँ बहुत सी अलग-अलग पेंटिंगें लगी थीं तथा बच्चों के कथन लिखे थे। उनके बीच मेधा पाटकर का चित्र था। जल्द ही मैं समझ गया कि बच्चे नर्मदा घाटी की घटनाओं के बारे में जानते हैं। उन्होंने ‘विकास’ के नाम पर आदिवासी समूहों की ज़मीनें छीनी जाने के बारे में सुना था।
वे अपने समाज और संस्कृति को प्रभावित करने वाले मुद्दों को भी अच्छी तरह जानते हैं। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आदिवासी गोत्र सभा द्वारा छीनी गई ज़मीनें वापस करने के लिए किए गए संघर्ष में हिस्सा लिया था। बच्चों ने राज्य की राजधानी में एक महीने चले संघर्ष में भाग लिया। इस संघर्ष को वे अपना मानते हैं। जंगल में उनका अपना जीवन एक प्रकार का सहजीवन है। पर, देश के कानून के कारण अब जंगल उनसे दूर हो गया है। ज़मीनों के वर्तमान मालिक न तो जंगल का सम्मान करते हैं और न ही वहाँ रहने वाले जीव-जन्तुओं का। विभिन्न वामपन्थी और मध्यमार्गी राजनीतिक संगठनों ने हमेशा उनको ज़मीन देने का वादा किया है। पर संख्या के हिसाब से आदिवासी कभी वोट बैंक बनने की स्थिति में नहीं रहे और इसलिए राजनीतिक वादे कभी पूरे नहीं किए गए।
कुछ साल पहले ‘कनव्’ के छात्रों ने स्वयं मावूर जा कर उन स्थितियों को देखा जिनमें फैक्ट्री मज़दूर रहते हैं। वहाँ उन्होंने आधुनिक प्रौद्योगिकी की हिंसा के बारे में जाना। चलियर नदी के किनारे स्थित मावूर रेयान फैक्ट्री वहाँ रहने वालों के लिए एक खतरा बन गई थी। फैक्ट्री भारी मात्रा में जंगल के उत्पादों, खासकर बाँस का इस्तेमाल करती थी जो हाथियों का मनपसन्द भोजन है।
बहुत से अतिथियों के लिए परिसर सीखी गई चीज़ों के ‘विस्मरण’ का अवसर भी देता है। मैं इसके एक उदाहरण के बारे में बताता हूँ। अतिथियों का एक समूह देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्य संस्थान से था। दोनों समूहों के बीच लम्बी चर्चा के बाद कनव् के छात्रों ने सामाजिक कार्य के छात्रों से पूछा, “डिग्री मिलने के बाद आप क्या करेंगे? आप कहाँ काम करेंगे?” सामाजिक कार्य के छात्रों ने विकास में पेशेवर सहायता की अपनी मुख्य चिन्ता सामने रखी। पर उनमें से सभी ने अपने लिए पेशेवर कैरियर बनाने की आवश्यकता स्वीकार की। किसी ने भी समुदायों के साथ काम करने की इच्छा प्रकट नहीं की।
‘कनव्’ में मेरा प्रवास शोधकर्ता के रूप में नहीं था। पर उसने मुझे विभिन्न शिक्षा दर्शनों पर विचार करने का अवसर दिया। कार्यक्रम के आलोचकों से मैं दो तरीकों से संवाद करना चाहूँगा। कार्यक्रम की पहली आलोचना परिसर में आने वाले मध्यवर्गीय अतिथियों, अक्सर शिक्षकों या किसी-न-किसी रूप में शिक्षा से जुड़े लोगों की थी। इस समूह के साथ अक्सर मुझे उनके मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों/बेचैनियों के विरुद्ध कनव् द्वारा की गई पहल-कदमियों की रक्षा करनी पड़ती थी। इस चर्चा की प्रकृति निम्न किस्म की थी।
कभी-कभी लगता है कि कनव् के सपने कठोर और चुनौतीपूर्ण हैं। इसका एक कारण यह है कि सामूहिक मॉडल मुख्यधारा समाज की संस्कृति के लिए विजातीय हो गया है। सफलता और असफलता का फैसला करने या ऊँच-नीच पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था, व्यक्तियों से प्रतियोगिता की माँग करती है तथा उसे बढ़ावा देती है। प्रतियोगी और व्यक्तिवादी आदर्शों की यह सर्वग्रासी उपस्थिति कनव् जैसे संस्थान की सफलता को अपनी मूल्य व्यवस्था के माध्यम से ही देखेगी। मुख्यधारा के लिए व्यक्तियों का विशेष ज्ञान या कौशल अधिक मूल्यवान है। कौशलों का सोपानक्रम, जीवन कौशल की बजाय पाठ्य पुस्तकीय ज्ञान के पक्ष में झुका होता है।
पाठ्य पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करने का विरोध करना भी समान रूप से परेशान करने वाली बात है। कनव् में बहुत अच्छा पुस्तकालय है। पर उनके दर्शन में ज्ञान प्राप्त करने की तुलना में ज्ञान का सृजन अधिक महत्वपूर्ण है। (वे विश्वविद्यालयों की औपचारिक डिग्रियों वाले) शिक्षित बेरोज़गारों की बहुत अधिक संख्या को इस विश्वास के विरुद्ध आंशिक चुनौती के तौर पर पेश हैं कि औपचारिक शिक्षा मूल्यवान चीज़ है।
कनव् में अपने अनुभव की तुलना मैंने स्वयं अपनी स्कूली शिक्षा के साथ की। इससे मुझे यह सोचने का मौका मिला कि क्या सर्वांगीण शिक्षा सम्भव भी है या नहीं। ऐसी व्यवस्थाओं में बच्चे से अनेक प्रकार के कौशलों में महारत की आशा की जाती है। बच्चे की क्षमता का मूल्यांकन मंच पर, पाठ्य पुस्तक के माध्यम से, खेल के मैदान और कक्षा में, सभी जगह होता है। क्या प्रत्येक बच्चे से शास्त्रीय राग गाने और फुटबाल को लुढ़काते हुए आगे ले जाने में समान महारत की आशा की जा सकती है? क्या एक बच्चा पूरे समय पुस्तकें पढ़ने का फैसला कर सकता है? क्या बच्चा सर्वांगीण शिक्षा के पक्ष में शिक्षाशास्त्रियों के दृष्टिकोणों का प्रतिरोध कर सकता है? क्या पूरे समय पढ़ना या फुटबाल खेलना पसन्द करने वाला बच्चा इस आदत को अपने सामाजिक परिवेश से प्राप्त करता है? क्या समाज द्वारा यह एक गतिविधि के मुकाबले दूसरे को अधिक मूल्यवान बता कर थोपी जाती है? और फिर, क्या बाद में यह कहना उचित ठहराया जा सकता है कि बच्चे को विभिन्न अवसरों से वंचित रखा गया?
मेरे लिए स्कूली शिक्षा का दूसरा अनुभव ‘एकलव्य’ के साथ किए काम से उभरा, जहाँ मुख्यधारा शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया गया। यह अनुभव शिक्षक की भूमिका तथा पाठ्य सामग्री में पुन: कौशल जोड़ने की आवश्यकता के बारे में है। अक्सर, यह संस्थान के तौर पर स्कूल की बाधाओं/सीमाओं को सामने लाता है। इसमें बच्चों के साथ शिक्षकों का सीमित सम्पर्क तथा पाठ्य पुस्तकों, परीक्षाओं और समय-सारिणी के रूप में राज्य का हस्तक्षेप शामिल हैं। कुल मिलाकर शिक्षक की भूमिका को एक पेशेवर बातचीत करने वाली एक पेशेवर मशीन तथा स्कूल को शिक्षित समाज पैदा करने वाली फैक्ट्री की तरह देखा जाता है। पर क्या ये पेशेवर ‘कनव्’ वाले गुरु का स्थान ले सकेंगे?
एलेक्स एम. जॉर्ज: स्कूली पढ़ाई केरल में हुई। शिक्षा एवं कानून का समाज शास्त्र विषयों में विशेष रुचि। एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की पुस्तकों के पाठ्यक्रम निर्माण से सम्बद्ध रहे हैं। वर्तमान में स्वतंत्र शोधकार्य में संलग्न हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: के.बी.सिंह: अनुवाद, लेखन एवं सम्पादन के क्षेत्र में कार्यरत। लखनऊ में निवास।
एलेक्स ने यह लेख 2002 में कनव् में रहते हुए लिखा था।
पत्रिका ‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटीकल वीकली,’ जुलाई 2005 से साभार।