लेखक : रेनी एम. बोर्जेस
अनुवाद: शिवानी बजाज
“मधुमक्खियों के एक समूह में से एक बटा पाँच हिस्सा कदम्ब के फूल के पास गया, एक तिहाई हिस्सा केले के फूल के पास, और दोनों में जो अन्तर है, उसका तिगुना, हे मृगनयनी, कुतज के फूल के पास। शेष बच रही एक मक्खी जो चमेली और केवड़े की गन्ध से मोहित हो रही थी, भिनभिनाती हुई हवा में मण्डराती रही; तो मुझे बताओ, प्रिय, कितनी मक्खियाँ थीं?” भास्कराचार्य की पुस्तक ‘लीलावती’ से।
भास्कर के आँकड़ों के अनुसार, कुतज का फूल सबसे आकर्षक मालूम होता है (पन्द्रह में से छह मक्खियाँ इस फूल की तरफ जाती हैं)। भास्कर का यह सवाल यह भी इंगित करता है कि फूलों तक पहुँचने के लिए जिस संवेदक वृत्ति का इस्तेमाल मक्खियाँ कर रही हैं, वह है फूलों की गन्ध, हालाँकि यह सिर्फ उसी मधुमक्खी के व्यवहार से ज़ाहिर होता है जो दो फूलों की गन्ध पर मोहित होकर तय नहीं कर पाती और हवा में ‘मण्डराती रहती है।’ यह किसी घ्राणमापी प्रयोग का विवरण भी हो सकता था, जो कि बर्रों, चींटियों और मधुमक्खियों पर मेरी प्रयोगशाला में किया जा रहा हो, सिवाय इसके कि ऐसे में हमें जीवों की संख्या पहले से ही ज्ञात रहती और वहाँ जिस अज्ञात मात्रा का पता लीलावती को लगाना होता, वह होती कि विभिन्न तरह की गन्ध वाले फूलों के एक साथ होने से कीड़े किसको तरजीह देंगे। पौधों और जानवरों के बीच रासायनिक संचार पर जो काम आजकल मैं कर रही हूँ, वह भास्कर को गणित के कई पेचीदा सवालों के गठन के सन्दर्भों को जानने का अवसर प्रदान कर सकता है।
मुझे सहज बुद्धि पर दृढ़ विश्वास है। जब मैं छोटी थी तो मुझे सहज ज्ञान से ही यह समझ में आया कि जो विषय मेरा ध्यान केन्द्रित कर सकता था, वह था प्राकृतिक दुनिया। मैं जिस परिवार में पैदा हुई थी वहाँ चिकित्सा एक महत्वपूर्ण व्यवसाय था और मैं प्राकृतिक दुनिया से मंत्र-मुग्ध थी। छोटी उम्र से ही (सात वर्ष के आस-पास) मेरा यह आकर्षण परिवर्तित हुआ पशु चिकित्सक बनने की इच्छा में। मेरे परिवार ने पालतू कुत्ता रखने के मेरे आग्रह को पूरा किया, तथा मेरा कुत्ता और मैं एक साथ बड़े हुए। इससे मुझे जानवरों के व्यवहार के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला जो आगे मेरे पेशे में मददगार साबित हुआ।
मैं मानती हूँ कि मेरा बौद्धिक विकास सबसे ज़्यादा सेंट ज़ेवियर कॉलेज, मुम्बई के पहले दो सालों के दौरान हुआ। मैं एक ‘सृजन समूह’ की सदस्य बनी, जिसे भौतिकी विभाग के एक सदैव उत्साही शिक्षक जहाँगीर मिस्त्री ने बनाया था। अलग-अलग विषयों और अलग-अलग रुचियों वाले, सोलह विद्यार्थियों का हमारा छोटा-सा समूह तुरन्त जुड़ गया और आपसी सहयोग से विज्ञान के कई प्रोजेक्ट करने लगा, जिनकी अन्तत: एक प्रदर्शनी भी हुई। सीखने की प्रक्रिया में स्वतंत्रता, उत्साह और खुशी का वातावरण जो मैंने यहाँ अनुभव किया, उसे मैं अभी भी बनाए रखने की कोशिश करती हूँ। मैंने उसी कॉलेज से प्राणिशास्त्र और अणुजैविकी में स्नातक की डिग्री लेने का फैसला किया।
मेरे विकास में एक और अहम घटना थी मेरा बॉम्बे प्राकृतिक इतिहास सोसाइटी (बी.एन.एच.एस.) में शामिल होना। यह सोसाइटी प्राकृतिक विज्ञान में गम्भीर रूप से रुचि रखने वाले और कटिबद्ध पेशेवर के लिए बढ़िया आश्रय-स्थल थी।
बी.एससी. के दौरान मैं शाम का समय बी.एन.एच.एस. में हुमायूँ अब्दुलाली के साथ अण्डमान-निकोबार द्वीपसमूह के पक्षी-संग्रहों का अध्ययन करने में बिताती थी। यह सज्जन प्रकृति वैज्ञानिक लोगों को अपने चुभने वाले सवालों और कटु परिहास से डरा देते थे, लेकिन उनकी और मेरी खूब जमी; और मैंने वैज्ञानिक अनुशासन के बारे में इन सत्तर-वर्षीय सज्जन से बहुत कुछ सीखा। मुझे सालिम अली के बारे में पता चला, जो रिश्ते में अब्दुलाली के दूर के भाई थे। उनके सुझाव से और उनके निरीक्षण में मैंने पारिस्थिति विज्ञान और उद्विकास पर लोकप्रिय लेखों की एक लिखी। इस समय मैं मुम्बई के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में पशु शरीर विज्ञान में एम.एससी. कर रही थी। मैं हाज़िरजवाबी, उत्साह और परिपूर्णता के लिए सालिम अली के अटल प्रयास का आदर करती थी। उनकी नज़र में कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे बेहतर न किया जा सके।
इस समय तक मुझे ‘पता’ चल गया था कि मैं पारिस्थिति विज्ञान और उद्विकास को अपना पेशा बनाना चाहती थी। मुझे यह भी आभास हो गया था कि भारत में मैं यह नहीं कर पाऊँगी। मैंने मियामी विश्वविद्यालय, कोरल गेबल्स, फ्लोरिडा जाने का फैसला किया। वहाँ मुझे पीएच.डी. फैलोशिप मिली और उष्णकटिबन्धीय जैविकी के उनके बहुत ही सफल कार्यक्रम में काम करने का अवसर भी मिला। मियामी के अनुभव ने मुझे वैज्ञानिक स्वतंत्रता सिखाई क्योंकि स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को अपना प्रस्ताव खुद ही लिखना होता था और शोध के लिए पैसे का प्रबन्ध भी खुद ही करना पड़ता था।
यह मुझ पर खास तौर पर लागू होता था क्योंकि पीएच.डी के मेरे सुपरवाइज़र, टेड फ्लैमिंग, चमगादड़ और पौधों की पारस्परिक क्रियाओं पर काम कर रहे थे, और मेरी चमगादड़ों पर काम करने में खास रुचि नहीं थी। फिर भी, टेड ने मुझे पूरी छूट दी और क्योंकि अब मेरी रुचि वनस्पति और पशुओं के पारस्परिक सम्बन्धों पर कहीं ज़्यादा केन्द्रित थी, मैंने वनस्पति रसायन और रतूफा इंडिका (Ratufa Indica), इंडियन जाएंट स्कवीरल नामक बड़ी गिलहरी द्वारा खाने के चुनाव के सम्बन्ध का अध्ययन करने के लिए एक प्रस्ताव बनाया। लेकिन इस अध्ययन के लिए अभी भी मुझे पैसों का जुगाड़ करने की ज़रूरत थी। इसके लिए मैंने द यूनाइटेड स्टेट्स फिश एण्ड वाइल्ड लाइफ सर्विस के ऑफिस ऑफ इन्टरनेशनल अफेयर्स से सम्पर्क किया। मैं डेविड फर्ग्युसन के प्रति अभारी हूँ जिन्होंने इस ऑफिस के ज़रिए न सिर्फ मेरी पीएच.डी. की पढ़ाई को बल्कि मेरी पोस्ट-डॉक्टरेट के काम को भी सहयोग दिया। इस सहयोग की बदौलत अपनी डिग्री के लिए आँकड़े इकट्ठे करने के दो साल मैं भारत में भी बिता सकी - एक साल मागौद, उत्तर कनारा, कर्नाटक में और एक भीमशंकर, महाराष्ट्र में।
मेरे व्यक्तिगत विकास के लिए ये साल बहुत ही रचनात्मक रहे क्योंकि मैं इन जंगलों में अकेली रही, जंगलों में अपनी जीप खुद चलाई, अपने फील्ड-सहकर्मी नियुक्त किए और स्थाई दोस्तियाँ बनाईं - व्यक्तिगत भी और वैज्ञानिक भी। चूँकि ये बड़ी गिलहरियाँ केवल दूरस्थ इलाकों के घने जंगलों में ही पाई जाती हैं, इसके कारण इन दो सालों में मेरा, एक शहरी का, वास्तविक ग्रामीण भारत से पहला सम्पर्क सम्भव हो पाया। अपनी थीसिस लिखने के लिए मियामी लौटकर मुझे अन्तर्राष्ट्रीय माहौल भी बहुत ही ऊर्जावान लगा। मेरे सहपाठी पापुआ, पेरू, वेनेज़ुएला, कोस्टा रिका, घाना और यूरोप जैसे अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से आए थे या फिर वहाँ काम कर रहे थे। और मैंने भी खुशी-खुशी विश्व-बौद्धिक नागरिकता को अपना लिया।
मियामी से पीएच.डी. की डिग्री लेकर आई तो 5 साल के पोस्ट डॉक्टोरल अध्ययन के रूप में मैंने जाएंट स्कवीरल्स पर अपने काम को जारी रखा। इसके लिए मुझे वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, देहरादून के ज़रिए अनुदान मिला।
इसी समय मैंने उप निदेशक (शोध) की हैसियत से मुम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी में काम शु डिग्री किया, जहाँ हेमा सोमनाथन और सुभाष माली से मेरी मुलाकात हुई। ये दोनों ही मेरे पीएच.डी. के पहले दो छात्र बने। इन्होंने भी भीमाशंकर के मौसमी बादलों वाले वन (seasonal cloud forest) में पाई जाने वाली बड़ी गिलहरियों और प्लांट-पॉलीनेटर के परस्पर सम्बन्धों पर काम किया। यह काम अन्तर-संस्थानिक सहयोग से सम्भव हुआ।
इसी समय, सेन्टर फॉर इकोलॉजिकल स्टडीज़, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने फेकल्टी के लिए विज्ञापन जारी किया और भाग्यवश, मुझे चुन लिया गया। यहाँ मैंने एक नई दिशा, बेहतर वैज्ञानिक वातावरण और वो सब कुछ पाया, जो मैं चाह रही थी। सी.ई.एस. (सेन्टर फॉर इकोलॉजिकल साइंस) में आने के बाद, राघवेन्द्र गाडगकर से जो मेरी पहली मुलाकात हुई, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। गाडगकर, विभाग के अध्यक्ष थे। जब मैं उनके ऑफिस में उनसे कुछ झिझकते, कुछ संकोच करते हुए, मिली तो उन्होंने मुझसे कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों की बजाय अकादमिक स्वतंत्रता पर चर्चा की। इसका मुझे अत्यन्त सुखद आश्चर्य हुआ।
सी.ई.एस. में मैं एक ऐसी प्रयोग- शाला के विकास का सामर्थ्य जुटा सकी जो विकासवादी जीवविज्ञान के अन्तर्गत प्रजातियों की अन्योन्यक्रिया से सम्बन्धित सवालों पर काम करने के लिए समर्पित है। मेरे सहकर्मी, छात्र, शोध सहकर्मी, शोध सहायक बहुत ही बढ़िया हैं। यहाँ हर दिन नया उत्साह, वैज्ञानिक सौहार्द्र और नई वैज्ञानिक सहभागिताएँ मिलती हैं। हम सब ने मिलकर दुनिया की पहली निशाचर मधुमक्खी ढूँढी है जो तारों की रोशनी में भी रंग देख सकती है और परागण में भी मददगार है। हमने पेड़ों में रहने वाले केंचुओं का भी अध्ययन किया है जो एंट-प्लांट (ant-plant) में रहते हैं। हमने यह भी पता लगाया कि चींटियाँ जिन ततैयों को खाती हैं उनको गन्ध से ही पहचान लेती हैं, चींटे की नकल करने वाली नर-मकड़ी रेशमी जाले में मिलने वाले रसायनों के संकेत मात्र से पता लगा सकती है कि जाला कुँवारी मादा का है या नहीं। क्रैब-मकड़ी फूलों की नकल कर सकती है, पौधे ऐसी गन्ध छोड़ते हैं जो योग्य एवं सही मेहमानों को आकर्षित करे और अयोग्य को उनसे विकर्षित कर सके।
ऐसे शोधकार्य भास्कर द्वारा लीलावती को बताए गए मधुमक्खियों के फूलों की ओर आकर्षित होने के पैटर्न की भी व्याख्या कर सकते हैं।
रेनी एम. बोर्जेस: सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंस, आई.आई.एससी., बेंगलु डिग्री में एसोसिएट प्रोफेसर। 1989 में मियामी से पीएच.डी.। विज्ञान के क्षेत्र में सुन्दरलाल बघई गोल्ड मेडल से सम्मानित। वनस्पति और पशुओं की अन्योन्यक्रिया, जैव विकास, व्यवहारिक परिस्थिति विज्ञान और उद्विकासी जीव विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: शिवानी बजाज: भाषा विज्ञान में पढ़ाई। बच्चों की पुस्तकीय रुचि पर शोध कार्य कर रही हैं, साथ ही बच्चों का एक पुस्तकालय चलाती हैं। दिल्ली में निवास। यह लेख ‘लीलावतीज़ डॉटर्स’ पुस्तक से लिया गया है। इस पुस्तक का सम्पादन रोहिणी गोडबोले व राम रामास्वामी ने किया है। प्रकाशक: इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़।