लेखक : आमोद कारखानिस
अनुवाद: प्रमोद मैथिल
15 जनवरी 2010 का ग्रहण भारत के अधिकांश हिस्सों में आंशिक ग्रहण के रूप में ही दिखाई देने वाला था। तमिलनाडु और केरल के कुछ हिस्सों में खास नज़ारा अपेक्षित था क्योंकि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों से ग्रहण कंकणाकृति (annular) के रूप में दिखने वाला था। ग्रहण के दिन क्या-क्या करके देख सकते हैं, इस सबके बारे में सोचते हुए उस दिन मैं स्कूली बच्चों के बीच पहुँचा। स्कूल में हमने बच्चों को पिन होल कैमरा बनाना सिखाया और उनसे पिन होल कैमरा बनाने को कहा। बच्चों में खासा उत्साह था। उन्होंने सारी सामग्री इकट्ठी की और अपना-अपना पिन होल कैमरा बनाया।
मेरा सामान्य अवलोकन था कि उन्हें कैमरा बनाने में कुछ विशेष दिक्कतें आईं। खासतौर पर छात्र, पिन होल का छेद कितना बड़ा होना चाहिए, यह तय नहीं कर पा रहे थे। कुछ विद्यार्थियों ने छेद थोड़ा बड़ा बना दिया था और इस वजह से प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं बन रहा था। वे इस बात को महसूस कर पा रहे थे कि छिद्र के आकार से प्रतिबिम्ब की स्पष्टता और तीव्रता प्रभावित हो रही है; परन्तु ‘ऐसा क्यों होता है’ को समझाने में काफी बातचीत की आवश्यकता पड़ी। इस समझाइश में कुछ रेखाचित्रों की मदद ली गई थी। उन्हें आप भी देखिए (चित्र-1 ‘अ’ ‘ब’ ‘स’)।
हमने उनकी समझ परखने के लिए दो और प्रयोग किए। पहले प्रयोग में एक सफेद कागज़ पर दो-तीन विविध आकार काटे जैसे - वृत्त, त्रिभुज, सितारा आदि (देखिए चित्र-2)।
बाहर धूप में कागज़ को ज़मीन से लगभग एक फुट ऊँचाई पर रखकर हमने उन छेदों से वैसे ही आकृति वाले चमकीले आकार देखे। और, यही तो अपेक्षित भी था। अब कागज़ को धीरे-धीरे ज़मीन से और ऊपर ले गए। बिम्ब की स्पष्टता कम होने लगी और फिर कागज़ पर्याप्त ऊँचाई पर ले जाने के बाद सभी वृत्ताकार हो गए। सारे बिम्ब वृत्ताकार थे जबकि कागज़ पर काटी गई आकृतियाँ अलग-अलग थीं। बच्चों से इसका कारण समझाने को कहा।
उन्हें सुझाया कि अभी जो पिन होल कैमरा बनाया था उसमें इसके उत्तर का सुराग है। परन्तु बच्चे इस सम्बन्ध को नहीं पकड़ पाए। तब मैंने उन्हें दूसरा सुराग दिया, “इस कागज़ पर बने छेद, चाहे वे किसी भी आकृति के हों, बहुत-बहुत दूर की वस्तुओं के लिए पिन होल की तरह व्यवहार करते हैं। अभी हम जो प्रयोग कर रहे हैं उनमें वह दूर की वस्तु क्या है?”
इस उलझन से बाहर निकलने के लिए हमने एक और प्रयोग किया। दर्पण के टुकड़े पर काला टेप चिपकाकर दर्पण पर तीन आकृतियाँ - वर्ग, त्रिभुज और आयत - बनाए।
अब दर्पण को इस तरह पकड़ा कि उससे सूर्य की किरणें परावर्तित होकर पास की दीवार पर पड़ें। सारे बच्चों ने दीवार पर बनने वाले वर्गाकार और त्रिभुजाकार प्रतिबिम्ब को देखा।
फिर मैंने दर्पण को इस तरह घुमाया कि परावर्तन के बाद उसका प्रतिबिम्ब दूर की दीवार पर पड़े। और मानो कोई जादू हो गया, सारे प्रतिबिम्ब अब वृत्ताकार थे।
अब तक कुछ शिक्षकों को ऐसा क्यों हो रहा है, इसकी वजह समझ में आ गई थी। वे इस बात को अन्य लोगों को समझाने की कोशिश में जुट गए थे। इस पर बहुत बातचीत हुई। बच्चों को अभी भी इस बात को लेकर सन्देह था कि जो प्रतिबिम्ब वे दीवार पर देख रहे थे (या पिछले प्रयोग में ज़मीन पर देखा था), वह सूर्य का प्रतिबिम्ब है।
यह मानने के पीछे मात्र एक ही सबूत दिख रहा था, वह यह कि छेद के आकार अलग-अलग होने के बावजूद प्रतिबिम्ब हमेशा वृत्ताकार ही था। इस समझ को और पुख्ता करने के लिए कि छेद की आकृति चाहे कुछ भी हो, प्रतिबिम्ब हमेशा वृत्ताकार ही बनेगा, हमने एक पेड़ की छाँव को देखा। पेड़ की पत्तियों के बीच से प्रकाश झिरकर आ रहा था और सभी जगह वह वृत्ताकार था।
एक बच्चे ने कहा, “काश! मैं सूर्य की आकृति बदलकर उसे वर्गाकार या कुछ और आकृति का कर दूँ ताकि फिर देख सकूँ कि ये वृत्ताकार आकृति सिर्फ सूर्य की वजह से है, जैसा आप कह रहे हैं।”
मैंने समझाया कि हम सूर्य की आकृति वर्गाकार तो नहीं कर सकते परन्तु कभी-कभी ऐसे अवसर ज़रूर आते हैं जब सूर्य की आकृति वृत्ताकार से कुछ बदल जाती है। फिर थोड़ी बातचीत 15 जनवरी को होने वाले सूर्य ग्रहण के बारे में भी हुई।
सूर्य ग्रहण के दौरान जब चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आ जाता है और सूरज की चकती के कुछ हिस्से को ढक लेता है, तो इस दौरान सूर्य पूरा वृत्ताकार नहीं रहता बल्कि कटा हुआ (truncated) दिखता है। ग्रहण के दौरान पिन होल से ये प्रतिबिम्ब कैसे दिखेंगे, यह उत्सुकता आखिरकार बच्चों में जगाकर ही मैं लौटा!
किस्मत से, बच्चों के साथ बातचीत के बाद जल्द ही वह मौका मिला जब मैं प्रकृति के पिन होल का नज़ारा देखने 15 जनवरी 2010 को तमिलनाडु जा पहुँचा। यहाँ से लम्बी अवधि के कंकणाकृति ग्रहण का जमकर मज़ा लिया और अपनी पीठ थपथपाई कि थोड़ी मशक्कत तो ज़रूर हुई परन्तु इस महान आकाशीय घटना का एक गवाह बन सका।
खैर, आपने भी ग्रहण के दौरान कुछ प्रयोग किए होंगे, आपके भी कुछ अवलोकन रहे होंगे। क्यों न उन्हें भी लिख भेजिए।
आमोद कारखानिस: पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर। लेखन एवं चित्रकारी का शौक। मुम्बई में रहते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: प्रमोद मैथिल: एकलव्य के भोपाल केन्द्र में कार्यरत। गणित एवं विज्ञान शिक्षण में रुचि।