विजय शंकर वर्मा
ब्लैक होल एक बार फिर सुर्खियों में हैं। उत्तरी अमेरिका में खगोल शास्त्रियों के खोज दल द्वारा किए जा रहे प्रयोग बताते हैं कि हमारी आकाश गंगा के केन्द्र में एक ब्लैक होल है जो सिगार के आकार जैसा है और इसमें से पदार्थ के फव्वारे छूटते हैं। हो सकता है। यह अनपेक्षित अवलोकन ब्लैक होल संबंधी हमारी धारणा में कुछ बदलाव लाए।
कृष्ण विवर हाल में सुर्खियों में रहे हैं। आकाश गंगा* के केन्द्र से निकलने वाली रेडियो तरंगों का निरीक्षण करने के एक प्रयोग से अनपेक्षित निष्कर्ष प्राप्त हो रहे हैं। ये निरीक्षण रेडियो दूरबीनों के एक ताने - बाने द्वारा किए जा रहे हैं। इस तंत्र का नाम है "वेरी लॉन्ग बेसलाइन एरे"
*मिल्की वे गेलेक्सी' जिसमें हमारा सौर मण्डल स्थित है। आकाश में सब तारे जो हमें बिना किन्हीं उपकरणों के दिखाई देते हैं वे हमारी आकाश गंगा के हिस्से हैं। एकदम काली अंधियारी रात में कभी-कभी आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैली एक हल्की सफेद-सी बदलीनुमा पट्टी दिखाई देती है। वह है हमारी आकाशगंगा का तल, यानी उस समय हम आकाश गंगा के केन्द्र की ओर देख रहे होते हैं।
हमारी आकाश गंगा का केन्द्रः इंफ्रा रेड एस्ट्रोनॉमिकल सेटेलाइट (उपग्रह) की मदद से हमारी आकाश गंगा के केन्द्रीय हिस्से की एक तस्वीर गर्म धूल, गैस और बादलों से सटे इस केन्द्रीय भाग को दृश्य टेलिस्कोप से देख पाना असंभव है। यहां से हमारा सौर्य मंडल 25 से 30 हजार प्रकाशवर्ष की दूरी पर स्थित है। आकाश गंगा के इसी केन्द्रीय हिस्से में मौजूद ब्लैक होल से संबंधित अनपेक्षित अवलोकनों से ब्लैक होल के स्वरूप के बारे में नए सवाल उठ खड़े हुए हैं।
और यह जाल उत्तरी अमरीका की पूरी चौड़ाई में फैला हुआ है। उपरोक्त प्रयोग ताइवान, चीन और अमरीका के खगोल शास्त्रियों को एक मिला जुला दल कर रहा है। इस प्रयोग के परिणाम यह बताते लगते हैं कि वह स्याह-सुराख, जिसके बारे में सोचा जाता है कि वह आकाशगंगा के केन्द्र में है, दरअसल सिगार की तरह लंबा नलाकार आकार का है। यह परिणाम हैरत अंगेज़ है क्योंकि यह अवलोकन स्याह-सुराख को लेकर फिलहाल प्रचलित सिद्धांतों से मेल नहीं खाता। परंतु इस मामले की तह में जाने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर स्याह-सुराख क्या है।
आखिर स्याह-सुराख है क्या?
वैसे ब्लैक होल लफ्ज़ सबसे पहले जॉन व्हीलर ने 1969 में गढ़ा था। परंतु यह अवधारणा तकरीबन 200 साल पुरानी है। ऐसा माना जाता है। कि कृष्ण विवर (यानी ब्लैक होल) ‘स्याह' तारे हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना ज़्यादा है कि इनमें से कुछ भी बाहर नहीं निकल सकता, इनकी अपनी रोशनी तक नहीं। हालांकि हम इन्हें देख नहीं सकते किन्तु आसपास के तारों पर इनके गुरुत्वाकर्षण के असर को महसूस किया जा सकता है।
कृष्ण विवर के बारे में सबसे पहली अटकल जॉन मिशेल ने लगाई थी। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शिक्षक मिशेल ने 1783 में ‘फिलॉसॉफिकल ट्रान्जैक्शन्स ऑफ रॉयल सोयायटी ऑफ लण्डन' नामक शोध पत्रिका में इस संबंध में एक शोध पत्र प्रकाशित किया था। यह बात न्यूटन द्वारा ‘सार्वभौमिक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत' प्रतिपादित करने और रोमर द्वारा प्रकाश के वेग को बहुत अधिक मगर निश्चित सिद्ध किए जाने के लगभग 100 साल बाद की है। आइए, यह देखने का प्रयास करें कि मिशेल ने किन तर्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि कृष्ण विवर का अस्तित्व होना ही चाहिए।
जब हम एक गेंद को ऊपर उछालते हैं, तो वह कुछ देर तक ऊपर जाने के बाद वापस धरती पर गिर जाती है। यदि हम इसे और तेज़ गति से उछालें तो यह थोड़ी और ऊपर तक जाकर गिरेगी। यदि गेंद की शुरुआती गति को बढ़ाते चले जाएं तो एक स्थिति ऐसी आएगी जब इस गेंद में इतनी गतिज ऊर्जा होगी कि वह पृथ्वी के गुरुत्व क्षेत्र में उसकी स्थितिज ऊर्जा से ज़्यादा हो जाएगी। तब गेंद लगातार ऊपर उठती जाएगी और पृथ्वी से पलायन कर जाएगी। जिस वेग पर ऐसा होता है, उसे ‘पलायन वेग' कहते हैं। पृथ्वी के संदर्भ में यह वेग लगभग 11 कि.मी. प्रति सेकण्ड होता है।
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम का एक निष्कर्ष यह है कि यदि गुरुत्वाकर्षण पिण्ड की संहति स्थिर रखी जाए, तो पलायन वेग उसकी त्रिज्या के वर्गमूल के व्युत्मक्रमानुपाती होती है (अर्थात त्रिज्या जितनी कम होती जाएगी, पलायन वेग उसके वर्गमूल के अनुपात में बढ़ता जाएगा)। यानी कि यदि पृथ्वी को सिकोड़ा जाए और उसकी त्रिज्या यदि एक चौथाई रह जाए, तो पलायन वेग दुगना हो जाएगा।
अब इस बात को किसी तारे पर लागू करते हैं। मान लीजिए किसी वजह से कोई तारा घना होता जा रहा है। एक ऐसी स्थिति आएगी जब उस तारे की सतह पर पलायन वेग का मान प्रकाश की गति से भी ज्यादा हो जाएगा। यदि हमें यह मानें कि प्रकाश कणों से मिलकर बना है - मिशेल के ज़माने में प्रकाश की प्रकृति के लिए प्रचलित दो सिद्धांतों में से यह एक सिद्धांत था - तो ऐसा तारा अदृश्य हो जाएगा क्योंकि इस पर से कोई प्रकाश पलायन न कर सकेगा। मिशेल ने ऐसे ही ‘स्याह' तारे की कल्पना की थी। यदि हम इसके साथ यह भी गौर करें कि आइन्स्टाइन के विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत' के मुताबिक कोई भी पदार्थ-पिण्ड प्रकाश से तेज़ नहीं चल सकता, तो हम यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य हो जाएंगे कि इस तारे से प्रकाश तो क्या, कोई भी चीज़ बाहर नहीं आ सकती। तब यह आज की भाषा में ब्लैक होल या कृष्ण विवर या स्याह-सुराख कहलाएगा।
किसी गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रकाश के व्यवहार को लेकर ऊपर जो कुछ कहा गया वह काफी अनगढ़-सा था। जब प्रकाश के कण सितारे से दूर जाते हैं तो गेंद के समान उनकी गति कम नहीं होती जाती क्योंकि प्रकाश के कणों का वेग स्थिर है। परंतु यदि हम न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियमों की जगह आइन्स्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत' का उपयोग करें तब भी स्याह-सुराख के बनने की मंभावना बरकरार रहती है। सामान्य सापेक्षता सिद्धांत' प्रकाश पर गुरुत्वाकर्षण के असर की व्याख्या कहीं ज्यादा सुसंगत ढंग से करता है। इस सिद्धांत का एक निष्कर्ष यह है कि कोई भी विशाल पिण्ड, अपनी संहति के बलबूते पर, अपने आसपास के स्थान-काल (स्पेस-टाइम) की वक्रता को बदल देता है। लिहाजा इस पिण्ड के निकट प्रकाश सरल रेखाओं में नहीं चल सकता बल्कि वक्र मार्गों पर चलने को बाध्य हो जाता है। जितना विशाल पिण्ड होगा, उसके आसपास स्पेस टाइम में उतनी ही ज्यादा वक्रता उत्पन्न होगी। संहति बढ़ती जाए, तो एक स्थिति ऐसी आएगी जब यह वक्रता इतनी ज्यादा हो जाएगी कि उस पिण्ड की सतह से निकलने वाला प्रकाश वापस मुड़ने को बाध्य हो जाएगा। तब प्रकाश इस पिण्ड से पलायन नहीं कर पाएगा - बाहर नहीं आ पाएगा।
एक बार यह दर्शा देने के बाद कि स्याह-सुराख का अस्तित्व संभव है, फौरन यह सवाल उठता है कि ये बनते कैसे हैं? तारे क्यों घने से घने होते चले जाते हैं?
हाईड्रोजन से शुरुआत करके ...
इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें तारों के जीवन चक्र पर गौर करना होगा। तारों की कुल आयु अरबों वर्ष हो सकती है। इनकी शुरुआत गैसों के एक बादल के रूप में होती है, जो सबसे सरल तत्व हाइड्रोजन का बना होता है। वितरण में कुछ शुरुआती विषमता के कारण यह बादल गैस कणों के परस्पर गुरुत्वाकर्षण की वजह से संकुचित होने लगता है। संकुचन बढ़ने के साथ गैसों के कणों के बीच परस्पर टक्कर ज्यादा बार और ज्यादा गति से होने लगती है। इसके नतीजतन गैस गर्म होने लगती है। लाखों वर्षों की अवधि में गैस का तापमान लाखों डिग्री तक पहुंच जाता है। इतने अधिक तापमान पर हाइड्रोजन के कण परस्पर टकराने के बाद वापस दूर हटने की बजाय नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) की वजह से आपस में जुड़कर हीलियम बना लेते हैं। यही प्रक्रिया हाइड्रोजन बम में भी होती है। इस प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा गैस को बाहर की ओर धकेलती है। यह ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण बल को संतुलित कर देती है तथा इस संतुलन की वजह से तारे
जादुई दायराः यदि किसी रॉकेट को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलना हो तो उसका पलायन वेग 11 किलोमीटर/सेकेंड होना चाहिए। इसी तरह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने के लिए पलायन वेग 620 किलोमीटर/सेकेंड चाहिए। और एक न्यूट्रॉन स्टार के पाश से बाहर निकलने के लिए पलायन वेग दो लाख किलोमीटर सेकेंड जरूरी होगा।
जॉन मिशेल ने गणना करके बताया कि किसी बेहद भारी तारे में से निकलने के लिए पलायन वेग 3 लाख किलोमीटर/सेकेंड से ज़्यादा होगा। और ऐसी स्थिति में वह तारा दिखाई ही नहीं देगा क्योंकि खुद प्रकाश भी इस पलायन वेग को नहीं पा सकता।
1915 में जर्मन खगोलविद श्वार्ज़चाइल्ड ने इस जादुई दायरे को तय करने की कोशिश की जिसके अंदर पहुंचने वाला प्रकाश फिर कभी बाहर नहीं निकल सकता।
यहां यह दिखाने की कोशिश की गई है कि ब्लैक होल से काफी दूरी से गुजरने वाली प्रकाश किरणें सीधी निकल जाती हैं, पास से गुज़र रही प्रकाश किरणों का पर्थ वक्राकार बन जाता है; और जादुई दायरे की सीमा में घुसी प्रकाश किरण वहीं फंसकर रह जाती है।
का और संकुचन रुक जाता है। इसमें में कुछ ऊर्जा विकिरण के रूप में बिखर जाती है। यही वह ऊर्जा है जो हमें सितारों की चमक के रूप में नजर आती है।
बहरहाल, लाखों वर्षों में हाइड्रोजन गैस चुक जाती है, हीलियम का उत्पादन धीमा पड़ जाता है और गैस पर बाहर की ओर लगने वाला दबाव कम हो जाता है। तारा तब फिर से संकुचित होने लगता है। इस संकुचन की वजह से तारे का तापमान और बढ़ जाता है तथा हीलियम का संलयन (Fusion) होकर कार्बन बनने लगता है। एक तरह से तारा एक बार फिर प्रज्ज्वलित हो उठता है। तारे में इस तरह का संकुचन और पुनः धधक उठना बारम्बार होता है तथा इस दरम्यान विभिन्न नाभिकीय संलयन क्रियाओं की बदौलत भारी, और भारी तत्व 'पकते' रहते हैं।
अंततः उपयोग के काबिल सारा ईंधन खप जाता है और तारा संकुचित होने लगता है। इस मुकाम पर, कोई बहुत विशाल तारा सुपरनोवा (अभिनव तारा) के रूप में फूट सकता है। यह विस्फोट बहुत छोटी-सी अवधि के लिए लाखों सूर्यों के बराबर रोशनी देता है। विस्फोट के दौरान हो सकता है कि तारे की संहति का एक बड़ा हिस्सा उससे जुदा हो जाए। इसके बाद तारे की भविष्य इस बात पर निर्भर होता है कि विस्फोट के बाद तारे के कोर (केन्द्र) में कितना पदार्थ बचा है।
सफेद बौना ताराः
यदि यह कोर हमारे सूरज की संहति से 1.4 गुना से कम है तो वह तारा एक सफेद बौने का रूप धारण करेगा। इस संहति (सूरज से 1.4 गुना) को ‘चंद्रशेखर सीमा' कहते हैं क्योंकि इसकी गणना सर्वप्रथम चंद्रशेखर ने की थी। सफेद बौने का आकार लगभग पृथ्वी के बराबर होगा किंतु घनत्व लाखों गुना ज्यादा होगा। सफेद बौने को और अधिक संकुचन ‘पॉली के निषेध सिद्धांत' के कारण नहीं हो पाता। यह सिद्धांत इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे मूलभूत कणों के क्वार्टम यांत्रिकीय विवरण का परिणाम है। यह सिद्धांत कहता है कि एक परमाणु के नाभिक के आसपास परिक्रमा कर रहे दो से ज़्यादा इलेक्ट्रॉन एक ही समय में एक ही इलाके में नहीं हो सकते। अतः परमाणु एक हद से ज्यादा करीब नहीं आ सकते। यानी किसी सफेद बौने तारे में यह सिद्धांत गुरुत्वाकर्षण बल को संतुलित करके उसे और संकुचित नहीं होने देता।
न्यूट्रान ताराः
यदि तारे की संहति चंद्रशेखर सीमा से ज़्यादा हो, तो गुरुत्वाकर्षण बल इलेक्ट्रॉनों के बीच ‘निषेध सिद्धांत' के कारण उत्पन्न विकर्षण बल से अधिक
सुपरनोवा से सफेद बौनाः चित्र में स्पष्ट है कि 500 प्रकाश वर्ष दूर इस स्थान पर कभी एक ज़बरदस्त सुपरनोवा विस्फोट हुआ था जिसकी वजह से मूल तारे का ज्यादातर हिस्सा आकाश में बिखर गया। चित्र में दिख रहा यह पदार्थ आज भी 30 कि. मी./सेकेंड की रफ्तार से चारों ओर बिखर कर रहा है। इस सुपरनोवा विस्फोट की वजह से मूल तारा एक अत्यंत गर्म सफेद बौना बनकर रह गया है और उसमें से निकल रही अवरक्त किरणों की वजह से हम इस गैस के बादल को देख पा रहे हैं।
हो जाता है और तारा गुरुत्व बल के प्रभाव से सिकुड़ता चला जाता है। यदि उस समय तारे की संहति हमारे सूरज से 2-3 गुना (लैण्डाऊ सीमा) से कम हो, तो अब नाभिक में उपस्थित कणों (न्यूट्रॉन वे प्रोटॉन) के बीच ‘निषेध सिद्धांत जनित विकर्षण बल' गुरुत्व बल को संतुलित कर देता है। ऐसे तारे को न्यूट्रॉन तारा कहते हैं। इसका व्यास मात्र लगभग 100 कि. मी. होता है तथा यह सफेद बौने तारे से करीब हज़ार गुना ज्यादा घना होता है।
स्याह-सुराखः
यदि तारे की संहति 'लैण्डाऊ सीमा' से ज्यादा हो, तो गुरुत्व बल नाभिकीय कणों के बीच लगने वाले विकर्षण बल से भी ज्यादा हो जाता है। ऐसी स्थिति में तारा सिकुड़ते-सिकुड़ते ‘कृष्ण विवर' या ‘स्याह-सुराख' में तब्दील हो जाता है। हमने ऊपर कहा था कि त्रिज्या एक सीमा से कम हो जाए तो ऐसे तारे की सतह से कोई चीज़ पलायन नहीं कर सकती, यानी कि वह तारा अब दिखाई ही नहीं दे सकता और स्याह-सुराख बन जाता है। तब स्याह राख गुरुत्व बल के अधीन अनंत रूप से सिकुड़ता चला जाता है। इस क्रान्तिक त्रिज्या को ‘श्वार्जचाइल्ड त्रिज्या' कहते हैं तथा इससे धिरे क्षेत्र को ‘इवेन्ट हॉराइजन' कहते हैं। स्याह सुराख के इवेन्ट हॉराइजन' का महत्व यह है कि कई मर्तबा स्याह-सराख स्वयं सिकुड़कर 'इवेन्ट हॉराइजन' से भी छोटा हो जाता है, फिर भी ‘इवेन्ट हॉराइजन' से घिरे क्षेत्र में से कोई
दृश्य प्रकाश में: हबल टेलीस्कोप की मदद से लिया गया एक चित्र। इसमें गर्म गैस और धूल की एक विशालकाय चकती नज़र आ रही है। इस चकती के केन्द्रीय भाग में एक सफेद हिस्सा दिखाई दे रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस सफेद हिस्से में एक ब्लैक होल है जो आसपास के पदार्थ को चूस रहा है। यह ब्लैक होल NGC 4261 गैलेक्सी के केन्द्र में देखा गया है जो कन्या तारा मंडल में स्थित है।
चीज बाहर नहीं निकल सकती।
अदृश्य को देखना
यह सही है कि स्याह-सुराख अदृश्य होता है क्योंकि इसमें से कोई विकिरण बाहर नहीं आ सकता। परंतु स्याह सुराख की उपस्थिति का पता इस आधार पर लगाया जा सकता है कि यह अपने आसपास मौजूद पदार्थ को आकर्षित करता है। मसलन किसी स्याह-सुराख के आसपास मौजूद तारे किसी अदृश्य वस्तु के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते नज़र आएंगे और स्याह-सुराख की उपस्थिति जाहिर कर देंगे। इसी तरह, स्याह-सुराख के निकट कोई भी पदार्थ स्याह-सुराख की ओर त्वरण महसूस करेगा तथा चमकीला विकिरण उत्सर्जित करेगा। अतः ऐसी स्थिति में यह स्याह-सुराख उतना स्याह नहीं रहेगा और यह चमक उसकी मौजूदगी का पता दे देगी।
यहां प्रस्तुत संक्षिप्त ब्यौरे में हमने आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत' और क्वांटम यांत्रिकी की परस्पर अंतक्रिया की वजह से होने वाले परिणामों की चर्चा नहीं की है। इसलिए हमने स्याह-सुराख के ‘हॉकिन्ग विकिरण' की बात नहीं की। न ही हमने यह चर्चा उठाई कि तारे के घूर्णन का स्याह-सुराख के निर्माण पर क्या असर होता है, और न तारे के तापमान व एंट्रॉपी के संदर्भ में ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम की बात उठाई। इस तरह का विवेचन एक परिचयात्मक लेख के दायरे में नहीं आता। बहरहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्याह-सुराख की एक मुकम्मल तस्वीर तभी उभर सकती है जब आधुनिक भौतिकी के दो महान सिद्धांतों - सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत और क्वांटम यांत्रिकी का एकीकरण हो जाए। इसकी संभावना अभी भी भविष्य के गर्भ में है और भविष्य ही बताएगा कि भविष्य के गर्भ में क्या है।
अंत में उस सवाल पर लौटते हैं। जहां से शुरू किया था -- वह प्रयोग जो चारों ओर रोमांच पैदा कर रहा है। आकाशगंगा के केन्द्र में तारे एक रेडियो-स्रोत के इर्द-गिर्द तेजी से घूम रहे हैं; इस अवलोकन के आधार पर खगोलशास्त्री कुछ समय से सोचते रहे हैं कि वहां एक स्याह-सुराख है जिसकी संहति लगभग 26 लाख सूरज के बराबर है। तारों के बीच मौजूद धूल के कारण इस क्षेत्र को प्रकाशीय दूरबीन से नहीं देखा जा सकता। इसीलिए सारे मापन रेडियो-दूरबीन की मदद से किए जा रहे हैं। जो रेडियो तरंगें मिल रही हैं, उनके बारे में सोचा जा रहा है कि वे स्याह-सुराख के कारण इलेक्ट्रॉनों में उत्पन्न हो रहे त्वरण की वजह से उत्सर्जित हो रही हैं। त्वरण का परिणाम यह होता है कि इलेक्ट्रॉन उस क्षेत्र में मौजूद चुंबकीय क्षेत्र के इर्द गिर्द कुण्डलीनुमा पथ में घूमते हैं। मापन से पता चलता है कि उक्त स्याह-सुराख आकार में लंबा-सा है और संभवतः इसके केन्द्र में से पदार्थ के फव्वारे छूटते हैं। यही सारे रोमांच का विषय है, क्योंकि मापन से प्राप्त जानकारी स्याह-सुराख से संबंधित किसी भी मौजूदा सिद्धांत से मेल नहीं खाती। लिहाजा यह प्रयोग ऐसे सिद्धांतों के बारे में पुनर्विचार का तकाज़ा करता है।
विजय शंकर वर्मा: दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हैं।
मूल लेख अंग्रेज़ी में। अनुवादः सुशील जोशी; अनुवादक स्रोत फीचर सेवा एवं होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम में जुड़े हैं। विज्ञान लेखन भी करते हैं।