बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद के खिलाफ था यह इसलिए मान लिया जाता है कि ब्राह्मणों से त्रस्त दलित जातियों और ब्राह्मणों से स्पर्धा करने वाले क्षत्रिय या व्यापारी वर्गों ने बौद्धमत को भारी मात्रा में समर्थन दिया होगा। यह भी मान लिया जाता है कि ब्राह्मण इस नई विचारधारा से दूर रहे। क्या वास्तव में बुद्ध के अनुयायियों में दलित सर्वाधिक थे? क्या ब्राह्मणों से उन्हें कोई समर्थन नहीं मिला? चलिए बौद्ध ग्रंथों से उजागर होने वाले कुछ आश्चर्यजनक तथ्यों का सामना करें। उस समय के समाज में वैचारिक परिवर्तन के नए आयाम समझें।

प्रारंभिक बौद्धों की सामाजिक पृष्ठभूमि
बौद्धधर्म का समाज के कुछ खास वर्गों के साथ कैसा संबंध था, इस विषय पर विभिन्न मत प्रचलित हैं, जो ठोस मौलिक सामग्री के अभाव में ज़्यादातर आम धारणाएं मात्र नज़र आती हैं। इनमें से कुछ सामान्य धारणाएं या तो बौद्ध मूल ग्रंथों के सतही सर्वेक्षण के आधार पर बना ली गईं, जिनमें वर्णित कुछ नाम पाठकों की नज़र में चढ़ गए। या कुछ धारणाएं इसलिए बनी क्योंकि लोगों ने ग्रंथों का काले-क्रमानुसार स्तरीकरण करके बात समझने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, और सारे बौद्ध साहित्य को एक समरूप इकाई मान लिया।

इसी संदर्भ में रिस डेविड्स और बी. जी. गोखले के विश्लेषण उन साक्ष्यों पर आधारित हैं जो अपेक्षाकृत बहुत बाद में, पांचवी सदी ईस्वी यानी बुद्ध के 900 साल बाद, लिखे गए ‘भाष्य' में मिलते हैं। अतः उनमें कुछ गंभीर दोष आ गए हैं। भाष्य में लोगों के वर्गीकरण पर अनेक कारणों से भरोसा नहीं किया जा सकता। जिस काल में ‘भाष्य' लिखे गए उस समय तक बौद्ध धर्म के प्रारंभिक पाली ग्रंथों में दिए गए कई वर्गों का अर्थ बदल चुका था। जैसे प्रारंभिक पाली ग्रंथों में उल्लेखित अनेक ‘गहपति' (गृहपति), भाष्ये और जातक के लिखे जाने तक सेट्ठि (श्रेष्ठि) में परिवर्तित हो गए

पिछले पृष्ठ पर दी गई बुद्ध की मूर्ति ईस्वी सन् 200 में बनाई गई है। मूर्तिकला की इस शैली को गांधार शैली कहते हैं। भारत पर यूनानी आक्रमण के बाद भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में गांधार कला शैली विकसित हुई। मूर्तिकला की इस शैली पर यूनानी असर पड़ा है। बुद्ध के घुंघराले बाल, उनके कपड़ों पर पड़ी सिलवटें और सादा आभामंडल आदि इस शैली की खास बातें थीं

थे। ऐसी ही कई अन्य विसंगतियां भी समझ में आई हैं।

जांच-पड़ताल का तरीका
इस लेख में हम प्रारंभिक पाली धर्मग्रंथों में आए उन सारे नामों का विश्लेषण करेंगे जिनकी सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि का परिचय मिलता है। हम बौद्धों को दो श्रेणियों में विभाजित करेंगे - एक वे जो संघ में शामिल हो चुके थे - भिक्खु (भिक्षु ) और दूसरे वे जो संघ के बाहर रहते हुए उसका समर्थन करते थे। अधिका धिक यथार्थ को बनाए रखने की दृष्टि से इस विश्लेषण में हम केवल उन्हीं नामों पर विचार करेंगे जिनकी सामाजिक पृष्ठभूमि का परिचय स्रोत ग्रंथों से मिलता है। इसका मतलब यह है कि इसमें ऐसे अनेक नामों को छोड़ दिया गया है जिनकी जानकारी विभिन्न भाष्यों में तो मिलती है परंतु वे मूलग्रंथों में स्पष्ट रूप से नहीं पाए जाते।

नामों को उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुसार श्रेणीबद्ध करने के लिए हमने बौद्ध मूल ग्रंथों में पाए जाने वाले सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांतों को अपनाया है। इन बौद्ध मूलग्रंथों में जिन श्रेणियों को सामान्यतः ‘उच्चकुल' बतलाया गया है, उनमें ऐसे समूह आते हैं - खतिय, ब्राह्मण, गहपति और एक चौथा विविध व्यक्ति समूह (जिसमें हमने सेठियों को भी रखा है)।

ऊपर बताई गई चार श्रेणियों के अलावा दो अन्य सामाजिक समूह और हैं। एक में 'नीचकुल' के लोग आते हैं और दूसरे में परिब्बाजक (परिव्राजक)। सारे नीचकुलों को यहां एक ही समूह में रखा गया है ताकि सुविधा भी रहे। और मूल ग्रंथों में उनका इसी रूप में बहुधा उल्लेख किया गया है।

चूंकि 'नीचकुल', 'हीनकम्म' और ‘हीनसिप्प' परस्पर संबंधित हैं अतः निम्न व्यवसायिक श्रेणियों को नीच कुलों में रखा गया है। इसी प्रकार ‘परिब्बाजक' को एक अलग श्रेणी में रखा गया है क्योंकि सन्यासी हो जाने के कारण उनका सामाजिक आधार लुप्त हो जाता है।

1. जो संघ में शामिल हुए (भिक्खु)

ब्राह्मणः अगले पेज पर दी गई तालिका के आंकड़ों को और अधिक स्पष्ट करना आवश्यक है। यहां पर संघ के ब्राह्मण घटक में वे छह ब्राह्मण भी शामिल हैं। जो बुद्ध से मिलने और संघ में प्रवेश ग्रहण करने के पहले ‘परिब्बाजक' हो

तालिकाः 1

ब्राह्मण
खत्तिय
उच्चकुलीन
गहपति
नीचकुल
परिब्याजक

39
28
21
1
8
8

कुल

105

चुके थे।

दो और को ब्राह्मण गुरुओं के शिष्य बताया गया है। अतः संघ में शामिल होने वाले 39 ब्राह्मण में से आठ पहले ही धार्मिक उददेश्यों की प्राप्ति के प्रयासों से संबद्ध थे।

सारिपुत्त, मोग्गल्लान और महाकस्सप जैसे बुद्ध के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण शिष्य इसी समूह में आते हैं, शेष 31 ब्राह्मण जिन्होंने संघ में प्रवेश लिया वे गृहस्थ थे।

खत्तिय (क्षत्रिय ): संघ के खत्तिय घटक में गण-संघों के 22 प्रतिनिधि थे। 5 सदस्य राजकुलों या राजपरिवारों के थे और एक भिक्खु (भिक्षु ) ऐसा था जिसके बारे में इसके सिवाय कोई ब्यौरा नहीं मिलता कि वह खत्तिय था।

गण संघों के 22 भिक्खुओं में 16 शाक्य थे (उनमें से 9 बुद्ध के परिवार के थे), एक ‘लिच्छवि', दो ‘वज्जि', दो ‘मल्ल' और एक ‘कोलि' था। राजपरिवारों से आने वाले भिक्खु राज्यों में ही रहने वाले थे और उनमें से दो मगध के थे

गहपतिः संघ की एक विशेष उल्लेखनीय बात यह थी कि उसमें ‘गहपतियों की संख्या बहुत ही कम थी। केवल एक ही ‘गहपति' उसका सदस्य था। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी गहपति या गहपतिपुत्त ने संघ में प्रवेश नहीं लिया। संघ में उनका एक मात्र प्रतिनिधि एक भिक्खुनी थी जो पहले एक गहपति की पत्नी रह चुकी थी।

उच्चकुलः इसके विपरीत उच्चकुलों के 22 भिक्खुओं में से 14 ‘सेठिकुलों में से थे। उच्चकुल के दो प्रतिनिधि थे - समृद्धशाली ‘गोपकदम्पति'. धानिया और उसकी पत्नी। दो कुलीन पुत्र पुत्री थे - एक प्रांतीय राज्यपाल का पुत्र और दूसरी एक गणिकाइनके अलावा एक मंत्री का बेटा था और दो कुलीन परिवारों से थे

नीचकुलः संघ का नीचकुल घटक बहुत छोटा था और उसकी स्थिति विषमता

*बौद्धग्रंथों में गहपति शब्द समृद्ध कृषकों के लिए उपयोग किया जाता है जिनके पास अपनी जमीन, नौकर-चाकर और दास होते थे। अनाज के भरपूर भंडार थे और वे लगान देने के कारण राज्य के आधार बन गए थे। अतः गपति और सामान्य गृहस्थों में फर्क करना होगा।

पूर्ण थी। उसमें दो ‘नहापिता' (नाई), एक ‘कुंभकार' (कुम्हार), एक 'केवट्ट' (मछुआरा), एक गिद्ध प्रशिक्षक, एक ‘दासीपुत्त' (दासी का पुत्र), एक अभिनेता और एक हाथी प्रशिक्षक शामिल थे।

ब्राह्मण मूल के कुछ प्रमुख भिक्खु
संघ में सबसे बड़ा समूह होने के अलावा ‘ब्राह्मण' बुद्ध के निकटतम साथियों में काफी संख्या में उपस्थित थे। सारिपुत्त को बुद्ध का ‘धम्म सेनापति' और 'अग्गसावक' (प्रमुख शिष्य) कहा गया है। मोग्गल्लान की गिनती उनके बाद की जाती है। बुद्ध के बाद इन्हीं दोनों को सबसे अधिक मान्यता मिली थीबुद्ध अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए इन पर भरोसा करते थे।

संघ और बुद्ध से घनिष्ठ रूप से जुड़े तीसरे अत्यंत महत्वपूर्ण ब्राह्मण थे महाकस्सप। उन्हें बुद्ध के ऐसे प्रमुख शिष्य के रूप में दर्शाया गया है जो धर्म विधान का कठोरतापूर्वक पालन करते थे और उनकी स्वयं की आवश्यकताएं बहुत ही कम थीं। वे अनेक वर्षों तक वन में रहे और इस कारण वे बुद्ध के निकट नहीं थे। वे अनुशासन के सदैव हामी रहे। बुद्ध के निर्वाण ले लेने के पश्चात महा कस्सप का महत्व बहुत बढ़ गया और उनकी पहल का परिणाम यह हुआ कि राजगृह में प्रथम परिषद बुलाई गई जिसकी अध्यक्षता उन्होंने स्वयं की। उन्होंने यह समझ

महाकस्सप द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने का एक दृश्य। ईस्वी सन् 200 में, चूने के पत्थर पर उकेरा गया यह दृश्य अमरावती (आंध्रप्रदेश) में मिला है।

लिया था कि संघ के विघटित हो जाने की संभावना है और बुद्ध की अनु पस्थिति के कारण भिक्खुओं में अराजकता फैल सकती है।

बुद्ध की मृत्यु के पश्चात के निर्णायक दिनों में संघ को गुमनामी के अंधेरे में खो जाने से रोकने और उसे मजबूत बनाने में महाकस्सप की तत्काल निर्णय क्षमता, संगठन कौशल और नेतृत्व क्षमता को बहुत बड़ा हाथ था। ‘महापरिनिब्वान सुत्त' के अनुसार बुद्ध के शव ने तब तक जलने मे इंकार कर दिया था, जब तक महाकस्सप आकर उसे श्रद्धांजलि न दे दें। राजगृह की प्रथम परिषद में महाकस्सप के मार्गदर्शन में ‘विनय पिटक' एवं 'सुत्त पिटक का संग्रह किया गया।

खात्तय मूल के प्रमुख भिक्खु
बौद्ध आख्यान में स्वयं बुद्ध के अलावी सबसे अधिक सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व आनंद का है। वह बुद्ध के अन्य पांच रिश्तेदारों के साथ संग में शामिल हुआ था। इन रिश्तेदारों में आनंद बुद्ध के सबसे घनिष्ठ सहयोगी थे और उसके प्रति बुद्ध के हृदय में सबसे अधिक स्नेह था। आनंद अपने आपको बुद्ध का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी मानते थे। बुद्ध के जीवन के अंतिम दिनों में सारा समय आनंद उनके निजी सहायक रहे और श्रद्धालु अनुचर के समान सदैव उनके साथ रहे। आनंद ने ‘सुत्त पिटक' के रूप में बुद्ध की शिक्षाओं के संग्रह में जो विशिष्ट भूमिका निभाई थी उसका यही कारण था। प्रथम चार ‘निकायों' का प्रत्येक सुत्त इस वक्तव्य के साथ शुरू होता है - ‘एवम में सुतम' (मैंने ऐसा सुना)। आनंद सहृदय और मानवता से परिपूर्ण व्यक्ति था। बुद्ध के प्रति उसे गहरा प्रेम था। बौद्ध संघ में महिलाओं को शामिल करवाने में उसका महत्वपूर्ण योगदान था।

नीचकुलों से आए भिक्खु
बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में 'नीचकुलों का एकमात्र प्रतिनिधि उपालि ही था जो तीन कुलीन शाक्यों का नाई थी। ‘चुल्लवग्ग' में दिए गए वर्णन के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि उपाली उन शाक्यों को, जो संघ में शामिल होने जा रहे थे, केवल सीमा तक पहुंचाने गया था। सीमा पर उन्होंने अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को कपड़े में बांधकर उपाली को दे दिया और कहा कि अब तुम लौट जाओ। ये वस्तुएं तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त होंगी। शुरू में उपालि लौट पड़ा परंतु थोड़ी देर बाद उसे उस गठरी से बेचैनी होने लगीउसने अपने आपसे कहा कि ये शाक्य खूखार हैं। वे सोचेंगे कि मैंने ही इन नवयुवकों को सर्वनाश की दिशा में धकेल दिया है और वे मुझे मार डालेंगे। कपिलवस्तु वापस लौटने के बदले उसने शाक्यों के साथ संघ में प्रवेश ले लेने का निर्णय लिया। 

छह शाक्य राजकुमार और उनके साथ उपालि नाई को बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते दिखाता दृश्य। ईस्वी सन् 300 में नागार्जुनकोंडा में उकेरी इस कृति में दीक्षा से पूर्व सिर मुंडवाने का काम हो रहा है।

शाक्यों ने बुद्ध से पहले उपाली को दीक्षा देने का और संघ में उनके पहले स्थान देने का अनुरोध किया ताकि उनके अत्यधिक अभिमान में कुछ कमी आ सके। संघ में प्रवेश ले लेने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि ‘विनय' को आत्मसात करके उपालि ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया।

उसे विनय स्वयं बुद्ध ने ही सिखाया और वह ‘विनया धारानम' के रूप में जाना जाने लगा। ‘अंगुत्तर निकाय' में दर्शाए गए प्रमुख शिष्यों में उसे ऐसे शिष्य के रूप में बताया गया है जिसे सारे अनुशासन संबंधी नियम कंठाग्र थे। बुद्ध के जीवन काल में भी उपालि को कभी-कभी विवादों के संबंध में अपना निर्णय देने के लिए बुलाया गया था। रोजगृह की परिषद में उपालि ने अनुशासन के नियमों को ‘विनय पिटक के रूप में सूत्रबद्ध करने में महाकस्सप को सहायता देकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अन्य प्रमुख भिक्खु
अन्य शिष्य जिन्हें ' का घनिष्ठ सहयोगी बताया गया है, इनमें महा कोति , महाचुण्ड, महाच्चन और पुण्ण मंतानिपुत्त ब्राह्मण थे।महाचुण्ड, सारिपुत्त के छोटे भाई थे। महाकप्पिन, राहुल और देवदत्त खत्तिय थे। राहुल बुद्ध के पुत्र थे और देवदत्त उनके चचेरे भाई थे।

2. उपासक (गृहस्थ समर्थक)

हम उपासक शब्द का उपयोग अत्यधिक व्यापक अर्थों में कर रहे हैं। जिसमें वे सारे लोग शामिल हैं जिन्होंने प्रत्यक्षतः संघ में प्रवेश तो नहीं लिया था किंतु जो बुद्ध के विचारों से सहानुभूति रखते थे। उन्होंने बुद्ध, धम्म और संघ ये ‘तिरत्न' (त्रिरत्न) स्वीकार किए थे। इसमें वे अनेक व्यक्ति भी शामिल हैं जिन्हें केवल संघ का समर्थन करने वाला बताया गया है। समर्थन कई रूपों में हो सकता है जैसे भूमिदान करना, विहार बनवाना, भिक्खुओं के लिए चोलों, औषधियों या अन्य वस्तुओं का दान करना आदि। किंतु प्रायः इसका अर्थ भिक्षुओं को भोजन कराना रहा है। यह कोई महत्वहीन कार्य नहीं था बल्कि इसे सामान्यजन का प्राथमिक कार्य माना जा सकता है जो भिक्खुओं की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखते थे। इसके बिना भिक्खु ‘निब्बान' (निर्वाण) के अपने लक्ष्य की पूर्ति का कार्य करने में असमर्थ रहते। बौद्ध भिक्षुओं और सामान्यजनों के बीच सर्वाधिक महत्वपूर्ण रिश्ता था भिक्खुओं को भोजन करवाना; और इसके बदले भिक्खु सामान्यजनों को धम्म की शिक्षा देते थे

मूलग्रंथों में उल्लेखित 175 नाम ऐसे हैं जिन्हें समर्थक या अनुयायी माना गया है। हमने अपनी सूची में इन्हें ही शामिल किया है। यहां भी हम देखते हैं कि ब्राह्मण सबसे अधिक हैं, उनके बाद गहपति आते हैं। यहां

तालिका : 2 

ब्राह्मण
गहपति
खत्तिय
उच्चकुल
नीचकुल
परिब्बाजक

76
33
22
26
11
7

 कुल   175

भी ‘नीचकुल' के लोग कम संख्या में ही है।

उपासकों में ब्राह्मण
76 ब्राह्मण समर्थकों में से 8 काफी धनी बताए जाते हैं। इनके पास ब्रह्मदेय जमीनें थीं। पाली साहित्य में उनके द्वारा बुद्ध के मतों को स्वीकार करने को काफी महत्व दिया गया है। चूंकि वे महत्वपूर्ण ब्राह्मण थे, उनका आम लोगों पर काफी प्रभाव था। इन सबके अपने शिष्यगण भी थे। बौद्धमत को स्वीकार करने से यह संभावना थी कि अपने शिष्यों के बीच उनका कद कम हो जाएगा। ऐसा ही एक ब्राह्मण शोणदंड, चम्पा का समृद्ध भूस्वामी ब्राह्मण था। जब बुद्ध चम्पा के पास ठहरे हुए थे तो कई ब्राह्मण गहपतियों ने उनसे मिलने का निश्चय किया। शोणदंड ने भी यही तय किया, लेकिन उससे मिलने आए कुछ ब्राह्मणों ने उसे ऐसा करने से मना किया। उनका कहना था कि ऐसा करने से महान शोणदंड की ख्याति कम हो जाएगी और समण (श्रमण) गौतम की ख्याति में वृद्धि होगी। फिर भी वह बुद्ध से मिलने गया। रास्ते में उसे इस बात की चिंता हुई कि कहीं बुद्ध से संवाद में उसकी बेइज्जती न हो जाए। उसे डर था कि अगर ऐसा हुआ तो वह जमा लोग उसके बारे में आदर से बात नहीं करेंगे, उसकी ख्याति घट जाएगी और उसके साथ आय भी। ‘आखिर हम अपनी ख्याति के अनुरूप ही भोग सकते हैं।' सौभाग्यवश बुद्ध के साथ उसका संवाद सुखद रहा।

शोणदंड ने बुद्ध को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया लेकिन उसने बुद्ध से गुजारिश की कि उसे भरी सभा में उठकर उन्हें नमस्कार करने से छूट मिले। उसने कहा - “अगर मैं भरी सभा में अपने आसन से उठकर प्रणाम करूंगा तो सभी इसे स्वीकार नहीं करेगी। जिसकी ख्याति में गिरावट आए उसकी आय भी कम हो जाएगी। अगर मैं सभा में बैठा हूँ और मैं अपने हाथों को उठाकर आपको प्रणाम करूं तो आप उसे मेरा आसन से उठने के समान मान लीजिए।”

कई ब्राह्मण समूह बुद्ध के पास आते थे और उनके समक्ष कोई प्रश्न या समस्या रखते थे। प्रश्न का उचित उत्तर मिलने पर वे बुद्ध के शिष्य बन जाते थे। ऐसे कई समूहों का जिक्र मिलता है।

बुद्ध के महत्वपूर्ण गहपति समर्थक
यद्यपि अनेक प्रभावशाली ब्राह्मणों को बुद्ध का उपासक होते दर्शाया गया है परंतु प्रारंभिक पाली ग्रंथों में उनके निरंतर महत्व को शायद ही बताया गया है। शोणदण्ड, पोक्करासादि अथवा कूटदंत ने जब उपासक होने की घोषणा की तब बुद्ध और उनके साथ के

बौद्ध धर्म के समर्थन को व्यापक बनाने में रिश्तेदारी संबंधों का महत्व

ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध संघ और सामान्य बौद्धजन दोनों ही के विकास में रिश्तेदारी का विशेष महत्व रहा है। मूल ग्रंथों में ही रिश्तेदारी संबंधों की संगतता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। उनमें से कुछ पर हम संक्षेप में यहां विचार करेंगे।

बुद्ध के बारह प्रमुख शिष्यों के अंतरंग मंडल में से तीबुद्ध के खास रिश्तेदार - आनंद, राहुल और अनुरुद्ध थे। इनमें से राहुल बुद्ध का पुत्र था। राहुल का उक्त मंडल के सदस्य होने का इसके सिवाय कोई और कारण नहीं हो सकता कि उसके रिश्तेदारी संबंध को महत्व दिया गया था। मंडल के अन्य सदस्यों की तरह उसमें कोई विशेष योग्यता थी ऐसा कहीं नहीं कहा गया है।

आनंद और अनुरुद्ध ने संघ में जो प्रमुख भूमिका निभाई उसके संबंध में हम पहले ही बता चुके हैं। बुद्ध के अंतरंग बारह शिष्यों में बुद्ध के इन तीन रिश्तेदारों के अलावा तीन ऐसे भी थे जो एक-दूसरे के रिश्तेदार थे। वे थे - सारिपुत्त, रेवत और महाचुंड, जो तीनों भाई थे।

सदस्यों को संघ में प्रविष्ट होने के लिए आकर्षित करने और सामान्यजन में बौद्ध धर्म प्रसार करने में रिश्तेदारी संबंधों का महत्व था। बौद्ध समाज में पारिवारिक संबंधों की महत्ता को बुद्ध ने तब स्वयं स्वीकृति दे दी जब उन्होंने रिश्तेदारी के आधार पर अनेकों नियमों में ढील देने की हामी भर दी थी।

परिब्याजकों के लिए अनिवार्य चार मास के प्रशिक्षण काल के नियम को ‘जटिलों' के मामले में खत्म कर देने के अलावा उन्होंने शाक्यों के लिए भी यह नियम समाप्त कर दिया था। इसे अपवाद को प्रदत्त करते समय बुद्ध ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि उन्होंने पारिवारिक संबंधों के आधार पर ऐसा किया था। उन्होंने कहा “हे भिक्खुओं! यह अपवादात्मक विशेष सुविधा मैंने अपने कुटुम्बीजनों के लिए स्वीकार की है।'' पारिवारिक संबंधों के आधार पर नियमों को शिथिल बना देना शायद उस काल का सर्वसम्मत मानक था क्योंकि उसकी कोई आलोचना की गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। पारिवारिक संबंधों का यह पहलू एक अन्य क्षेत्र में भी निर्णायक महत्व का सिद्ध हुआ। वह था संघ में स्त्रियों को प्रवेश देने का प्रश्न। प्रारंभ में यह अनुरोध 'महापजापति गोतमी' की ओर से आया था, जो बुद्ध की काकी और उनकी धायमां थी, किंतु बुद्ध ने उसे अस्वीकार कर दिया। आनंद ने बुद्ध को मनाने के लिए बुद्ध और महापजापति के बीच के पारिवारिक संबंध का उपयोग किया। तब बुद्ध ने इस अनुरोध को मान लिया और महापजापतिं दीक्षा ग्रहण करने वाली पहली भिक्खुनी बन गई। वरिष्ठतम सदस्य होने के कारण वह भिक्खुनी संघ की मुखिया भी थी, और बुद्ध व भिक्खुनी संघ के बीच मध्यस्थ का कार्य करती थीं।

भिक्खुओं को भोजन कराने के अलावा उन्होंने संघ को और किसी प्रकार की सहायता दी हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। हालांकि प्रायः उनके पास काफी भूमि रहती थी किंतु उन्होंने संघ को कोई भूमि दान में नहीं दी। न ही उनके द्वारा संघ के लिए कोई विहार बनाए जाने का उल्लेख मिलता है। यहां तक कि चोगों (भिक्खुओं के वस्त्र) का दान भी उन्होंने शायद ही कभी किया हो।

इसके विपरीत गहपति संघ का लगातार समर्थन करते पाए जाते हैं। प्रारंभिक धर्मग्रंथों में उपासकों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण समुदाय के रूप में उनका उल्लेख मिलता है और उनके द्वारा बुद्ध की शिक्षाओं को स्वीकार किए जाने को अत्याधिक महत्व दिया गया है। गहपति अनाथपिण्डिक की बुद्ध से पहली मुलाकात कदाचित उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी बुद्ध की राजा बिंबिसार या अजातशत्रु से पहली मुलाकात। बुद्ध के जीवन के संदर्भ में उसका लगातार जिक्र आता है। उसने एक राजकुमार से जेतवन अत्यधिक कीमत पर खरीदकर संघ को दान में दिया। अनाथपिण्डिक के अलावा कई और गहपति भी थे जिनका उपासकों में महत्वपूर्ण स्थान था। चित्त, मेण्डक, संघन आदि। बुद्ध की सबसे प्रसिद्ध उपासिका थी विशाखा मिगारमाता जो गहपति समूह की थी। पाली साहित्य में उसका बार-बार जिक्र आता है।

बुद्ध की पुत्र राहुल अपने पिता से अपनी विरासत मांगते हुए। विरासत में बुद्ध ने उसको अपना उपदेश दिया और संघ में शामिल किया। अमरावती, आंध्रप्रदेश में दूसरी शताब्दी ईस्वी में उकेरा गया एक दृश्य।

उसे लगातार संघ को (खासकर भिक्खुणिओं को) कपड़े और भोजन देते हुए बताया गया है। उसने बुद्ध से आठ वरदान मांगे थे - संघ के भिक्खुओं को वर्षाकाल में कपड़े देना; श्रावस्ती आने वाले भिक्खुओं को भोजन कराना; श्रावस्ती से बाहर जाने वालों को भोजन कराना; बीमारों को भोजन कराना; बीमारों का उपचार करने वालों को भोजन कराना; बीमारों को दवाई देना; जरूरतमंदों को सतत चावल और कंजी देना; भिक्खुणियों को नहाने के वस्त्र देना।

सामान्य रूप में बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में गहपति अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

अन्य महत्वपूर्ण समर्थक
बुद्ध के प्रमुख उपासकों में मगध के राजा बिंबिसार, अजातशत्रु और कोसल के प्रसेनजित थे। पाली ग्रंथों में बुद्ध और इनके रिश्तों को काफी महत्व दिया गया है। बिंबिसार ने संघ को वेणुवन दान में दिया जो संघ की पहली अचल संपत्ति थी। राजकुलों से संबंधित अन्य उपासकों में जीवक और जेट प्रमुख थे। जीवक राजपरिवार और संघ के भिक्खुओं का इलाज करता था। खत्तिय गणसंघ की कुछ प्रमुख हस्तियां भी बुद्ध के महत्वपूर्ण शिष्य रहे।

राजपुरुषों के अलावा कुछ सेठियों का ज़िक्र यहां जरूरी है। राजगृह के

बुद्ध के परिनिर्वाण के समय गहरे दुख में डूबा हुआ आनंद। श्रीलंका में एक पहाड़ी पर उकेरी गई यह प्रतिमा 12वीं सदी में बनाई गई थी।

एक प्रमुख सेठि ने बुद्ध की अनुमति से भिक्खुओं के रहने के लिए एक दिन में 60 विहारों का निर्माण किया। उसने सब भिक्खुओं को भोजन में बुलाकर, उन साठ विहारों को ‘चातुदिस संघ (चारों दिशाओं के संघों) तथा वर्तमान और भविष्य के संघों' को दान में दिया। इन्हीं शब्दों का प्रयोग बाद में विहार दान संबंधी अभिलेखों में सदियों तक चलता रहा।

‘नीच कुल' के एक मात्र उपासक पावा की ‘कम्मर पुत्त' (कुम्हार पुत्र) चंड था। चुंड के घर ही बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन लिया था जिससे उन्हें बीमारी हो गई और अंत में मृत्यु हो गई।

बुद्ध स्पष्टतः जानते थे कि भोजन सामग्री का कुछ भाग ऐसा था जिसके परिणाम बुरे होंगे। उन्होंने चुंड को उसे अन्य भिक्खुओं को परोसने से मना कर दिया था।

उन्हें यह भी आशंका हो गथी कि इससे चुंड को निंदा का भी सामना करना पड़ेगा। इसलिए अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से कह दिया था कि चुंड को इसका दोष नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि इसके विपरीत उन्होंने कहा कि तथागत को अंतिम भोजन कराकर चुंड ने वही सम्मानीय स्थिति पा ली थी जो उनके ज्ञान के तत्काल बाद पहला भोजन कराने वाले व्यक्ति की थी। दोनों ही स्थितियां विशेष पुण्य दिलाने वाले कर्म की थी।

संघ के भीतर और संघ के बाहर बौद्धों में पाए जाने वाले ब्राह्मण घटक के संबंध में कुछ स्पष्टीकरण देना आवश्यक है।

3. प्रारंभिक बौद्धों के सामाजिक घटकों का विश्लेषण

यह प्राय: माना जाता है कि बौद्ध धर्म ब्राह्मणों के विरुद्ध था और जैसा पहले बताया गया है, इस धारणा का कुछ आधार भी है।

किंतु ब्राह्मणों का इतनी बड़ी संख्या में इसमें शामिल होने का क्या कारण था? कारण यह हो सकता है कि मूलतः बौद्धधर्म एक मोक्ष धर्म था जिसमें ‘निब्बान' के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संसार का परित्याग कर जीवन बिताना आवश्यक है। अधिकांश व्यक्तियों के लिए यह किसी तरह आसान नहीं था।

ब्राह्मणों ने बड़ी संख्या में इसलिए इसे स्वीकार किया क्योंकि वह ऐसा धार्मिक समुदाय था जिसका कम-से कम सैद्धांतिक दृष्टि से प्रमुख कार्य मोक्ष की प्राप्ति ही था। बुद्ध ने प्रायः इस विषय पर चर्चा की है और उन्होंने ब्राह्मणों का विरोध इसी कारण से किया था कि उन्होंने धार्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति का मूल मार्ग भुलाकरे, उसके बदले सांसारिक जीवन अपना लिया था।

इतिहासकार लिल्ली ने यह सुझाव दिया है कि बौद्ध आंदोलन उच्चतर ब्राह्मणवाद का निम्न ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह था और वह तर्क देता है कि बुद्ध ने गृहस्थी करने वाले निम्नतर ब्राह्मणवाद में और गृहस्थी से विमुख रहने वाले श्रेष्ठतर ब्राह्मणवाद में कितना अंतर है यह स्पष्ट बतलाया। ब्राह्मण साधु परंपरा के विरोधी थे किंतु यह भी स्पष्ट है कि बहुत से ब्राह्मणों ने उस परंपरा को स्वीकार कर लिया था और वे परिब्बाजक बन गए थे। इन ब्राह्मणों ने बौद्धधर्म में, तत्कालीन ब्राह्मणवाद में पाए जाने वाले संसारोन्मुखी नैतिक मूल्यों का विकल्प देखा होगा। बुद्ध के सारिपुत्त, मोग्गल्लान और महाकस्सप जैसे सबसे प्रमुख शिष्य ब्राह्मण थे जो बुद्ध से मिलने के पहले ही परिब्बाजक बन गए थे।

बहुत से अन्य ब्राह्मण जो संसार का परित्याग करने में सक्षम नहीं थे वे उनकी शिक्षाओं को स्वीकार करके सामान्य अनुयायी बन गए। बौद्ध मूलग्रंथों में ऐसे ब्राह्मणों का प्रायः उल्लेख मिलता है जो यज्ञ कर्म की महत्ता और उसके वास्तविक अर्थ के संबंध में प्रश्न उठाते हैं। प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा इन विषयों पर बुद्ध के विचारों को स्वीकार कर लिए जाने पर कदाचित उन ब्राह्मणों में भी, जो बौद्धधर्म के दायरे से बाहर थे, वाद-विवाद पैदा हो गया होगा; और पर्याप्त समय बीत जाने पर स्वयं ब्राह्मणीय व्यवस्था के रूपांतरण में सहायता मिली होगी।

इसके विपरीत बौद्ध आंदोलन में बड़ी संख्या में ब्राह्मणों के शामिल होने का विरुद्ध दिशा में भी प्रभाव पड़ाबुद्ध की शिक्षाओं की स्वीकृति चाहे जितनी प्रामाणिक रही हो, ब्राह्मणों के साथ उनके पूर्ववर्ती परिवेश की बहुत-सी धारणाएं और विश्वास भी थे। उदाहरण स्वरूप ब्राह्मण बंधु यामेलु और टेकुला ने बुद्ध से अनुरोध किया था कि उन्हें संस्कृत में 'धम्म' की शिक्षा देने की अनुमति दी जाए। जब तक बुद्ध जीवित रहे संघ में उनके व्यक्तित्व के चमत्कारी प्रभाव और चुनौती विहीन नेतृत्व के कारण इन प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी। किन्तु बाद में बौद्ध धर्म के विकास को इस ब्राह्मण घटक ने अनेक प्रकार से प्रभावित किया।

संघ में दूसरा सबसे बड़ा घटक खत्तियों का था और इसके संबंध में भी कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है। इतिहासकार ओल्डनबर्ग और वेबर का मत है कि ब्राह्मणों की बढ़ी हुई सामाजिक प्रधानता और उनकी प्रमुखता के दावों की प्रतिक्रिया स्वरूप खत्तियों ने बौद्ध धर्म को जन्म दिया। पर सोचने की बात यह है कि खत्तियों के हाथ में सारी राजनैतिक शक्ति थी, अतः उन्हें इस बैरागी परंपरा और संसार-त्यागी आदर्शों के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए था। किंतु वे तो काफी संख्या में बौद्ध धर्म में शामिल हो गए। यह तर्क दिया जा सकता है कि चूंकि बुद्ध एक खत्तिय थे अतः स्वाभाविक रूप से उन्होंने अपने स्वयं के सामाजिक वर्ग के सदस्यों को इस नए आंदोलन में आकर्षित किया होगा। हो सकता है ऐसा हुआ हो, किंतु अधिक महत्वपूर्ण कारण समाज का वह स्वरूप है जिसमें बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ।

यह महत्वपूर्ण बात है कि संघ में जो खत्तिय आए, उनमें से अधिकांश गणसंघों से आए। संघ के कुल अठाईस खत्तियों में उनकी संख्या बाईस थी। मेक्स वेबर ने यह तर्क दिया है कि मोक्ष सदृश अवधारणाओं से सारे शासक वर्ग अपने आपको दूर ही रखते हैं - केवल ऐसे समय को छोड़कर जबकि उनकी राजनैतिक शक्ति पर संकट आया हुआ हो। सामान्यतः शासक की धार्मिक प्रवृत्तियां क्षीण ही रहती हैं। वेबर के मतानुसार विशेष सुविधा प्राप्त सामाजिक समुदायों को एक सशक्त मोक्षोन्मुखी धर्म चलाने में सामान्यतः तभी सफलता मिल सकती है जब विसैन्यीकरण की स्थिति निर्मित हो गई हो और उनकी राजनैतिक गतिविधियां समाप्तप्रायः हो गई हों। इसके परिणाम स्वरूप मोक्षोन्मुखी धर्म प्रायः तब प्रगट होते हैं जब शासन करने वाला वर्ग अपनी राजनैतिक शक्ति खो बैठता है। ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में गणसंघों में यही स्थिति निर्मित हो गई थी।

बुद्ध के जीवन काल में कोसल और मगध के राजतंत्री राज्य गणसंघों को कुचल रहे थे। शाक्यों के राज्य को कोसल ने जीत लिया था और शक्तिशाली वज्जि गणसंघ को भी अजातशत्रु के आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा था। स्वाभिमानी और स्वतंत्र शाक्य और वे सभी जिन्हें अपने खत्तिय होने का अभिमान था, राजनैतिक शक्ति अपने हाथों में रखने में असमर्थ होते जा रहे थे। उन्होंने अपनी उदात्त चेतना में इस तथ्य को महसूस कर लिया था - सारी वस्तुएं अस्थायी और परिवर्तनशील हैं। यही वह शिक्षा थी जो बुद्ध देते थे। तब कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने बुद्ध के आह्वान को स्वीकार कर लिया। इतिहासकार कौशाम्बी ने भी गणसंधों के ढह जाने पर टिप्पणी की है -

"जो अपने योग्यतमे सदस्यों को भी संतुष्ट नहीं रख सके। कुछ व्यक्ति अपने पास-पड़ोस के राज्यों में राजकीय सेवाओं में भरती हो गए तथा अन्यों ने भगवा बाना ओढ़ लिया।"

गहपति भिक्खु क्यों नहीं बने?
इस लेख को समाप्त करने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि गहपति आखिर भिक्खुओं में क्यों शामिल नहीं हुए। यह एक तथ्य है कि गहपति उपासकों के अत्यंत महत्वपूर्ण घटक थे, इसलिए उनकी भिक्खुओं में अनुपस्थिति असाधारण बात है। कोई भी तर्कसंगत विचार यह आशा करेगा कि संघ की संरचना देखने से, उस समाज पर प्रकाश पड़े जो संघ के बाहर था। केवल गहपति मात्र एक अपवाद हैं। जब हम यह देखते हैं कि अनेक सेठि पुत्तों ने संघ में प्रवेश लिया था तब यह बात और प्रमुखता से उभरकर सामने आती है।

यह तर्क देना संभव है कि कतिपय सामाजिक श्रेणियों ने इतना तनाव महसूस नहीं किया जितना संसार के परित्याग के लिए आवश्यक है। साथ ही यह भी कि कुछ सामाजिक वर्गों में, जैसे भूमि स्वामी वर्ग, ऐसा तनाव आसानी से निर्मित नहीं होता। यह भी हो सकता है कि जिस आर्थिक और सामाजिक प्रणाली में गहपति रह रहे थे उसमें वैराग्य के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पैदा नहीं हो सेकीं।

हमें यह स्मरण रखना आवश्यक है कि वह ऐसा काल था जिसमें कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ने निरंतर बढ़ती हुई नगरीय जनसंख्या को समर्थन दिया था। गहपति इस अर्थव्यवस्था का मूल आधार और प्रमुख करदाता थे। ऐसी श्रेणी के सामाजिक जगत से विमुख हो जाने से अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रणाली पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता।

उत्पादन और प्रजनन ये दो क्षेत्र ऐसे थे जिनसे भिक्खुओं ने अपने आपको दृढ़तापूर्वक अलग रखा था। जबकि इसके विपरीत गहपति इन दोनों से विशेष रूप से जुड़े हुए थे। और इस प्रकार यद्यपि संघ में उनके प्रवेश के लिए कोई रोक नहीं थी, फिर भी उन्होंने उसके बाहर रहना ही उपयुक्त समझा। लेकिन बौद्ध आंदोलन के लिए गृहस्थों का समर्थन अत्यन्त ज़रूरी था। इस तरह समर्थन देने वालों में गहपति सबसे महत्वपूर्ण बन गए।


उमा चक्रवर्ती - दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास को अध्यापन। तत्पश्चात ऐच्छिक सेवा निवृति ली। अनुबाद : रमेश चंद्र बरगले। पेशे से एडवोकेट। पूर्व विधायक। होशंगाबाद में रहते हैं।