डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा
कैंसर की कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं से प्रमुख रूप से इस बात में भिन्न होती हैं कि वे निरंतर विभाजित होती हैं। इस कारण उनकी संख्या में लगातार अनावश्यक वृद्धि होती जाती है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं इन्हें नष्ट करने की कोशिश तो करती हैं किंतु हर बार ही इनकी कोशिश सफल हो इसकी संभावना कम ही होती है। कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीन के द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को उत्तेजित किया जाता है ताकि वे भी तेज़ी से विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ाएं और कैंसर कोशिकाओं को मार सकें।
जेनेवा व फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय तथा जर्मनी के म्युनिक और बायरुथ विश्वविद्यालय के साथ एक स्टार्टअप कंपनी ए.एम. सिल्क के मित्रों की मंडली ने संयुक्त रूप से एक आश्चर्यजनक प्रयोग किया है। उन्होंने मकड़ी के जाले से बने सूक्ष्म कैप्सूल में वैक्सीन को भरकर प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। इससे ये कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होंगी और कैंसर कोशिकाओं की भारी संख्या को पराजित करने के लिए इनकी भी पर्याप्त संख्या उपलब्ध होने लगेगी। अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो इस प्रकार के कैप्सूल अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त हो सकेंगे।
हमारे शरीर में हर पल रोगाणु प्रवेश करते रहते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने की ज़िम्मेदारी प्रतिरक्षा तंत्र के दो तरीकों पर निर्भर करती है। एक तरीका सेल मेडिएटेड प्रतिरक्षा कहलाता है, जिसमें विशेष टी-कोशिकाएं रोगाणुओं को चुन-चुन कर मारती हैं। दूसरे प्रकार का तरीका ह्युमोरल प्रतिरक्षा कहलाता है। इसमें बी-कोशिकाएं उत्तेजित होकर प्लाज़्मा कोशिकाओं का उत्पादन करती हैं जो एंटीबॉडी बनाकर रोगाणुओं को नष्ट करती हैं।
कैंसर और टी.बी. जैसी कुछ संक्रमणकारी बीमारियों में टी-कोशिका को उत्तेजित करने की ज़रूरत होती है। टी-कोशिकाएं तभी कार्य करती हैं जब रोगाणुओं की पहचान बताने वाले प्रोटीन के अंश (पेप्टाइड्स) टी-कोशिका द्वारा पहचान लिए जाते हैं।
एक अकेली टी-कोशिका की बजाय अनेक प्रकार की टी-कोशिकाएं ट्यूमर कोशिका पर सम्मिलित रूप से आक्रमण करके मारती हैं। ये टी-कोशिकाएं हैं - CL, TC और NK कोशिकाएं। इस कार्य को अंजाम देने के लिए कुछ मित्र कोशिकाएं भी साथ देती हैं जैसे- मेक्रोफेज, मास्ट कोशिकाएं तथा डेंड्राइटिक कोशिकाएं।
वर्तमान में उपयोग में आने वाले अधिकांश वैक्सीन केवल बी-कोशिकाओं को उत्तेजित करते हैं। अब तक हम टी-कोशिकाओं की कार्यक्षमता का दोहन नहीं कर पाए हैं। टी एवं बी दोनों कोशिकाओं को उत्तेजित करने से वैक्सीन बेहद कारगर हो सकते हैं।
सूक्ष्म कैप्सूल बनाना
कैंसरकारी ट्यूमर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए उपयोग में लाए गए कैप्सूल मकड़ी के जाले में प्रयुक्त रेशम प्रोटीन से बनाए गए हैं। इस कार्य के लिए युरोपियन वैज्ञानिकों ने वहां पर पाई जाने वाली बेहद आम मकड़ी एरेनियस डायाडेमेटस का उपयोग किया है। पहिए के समान रोज़ नए जाले बनाने वाली इस मकड़ी की पीठ पर क्रॉस बने होने के कारण इसे क्रॉस मकड़ी भी कहते हैं। क्रॉस मकड़ी के जाले के धागे बेहद हल्के, प्रतिरोधी और अविषैले होते हैं तथा इन्हें कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है। वैज्ञानिकों नें क्रॉस मकड़ी के रेशम को प्रयोगशाला में बनाकर तथा पेप्टाइड में लपेटकर टी-कोशिकाओं के अंदर प्रविष्ट हो सकने वाला सूक्ष्म कैप्सूल बनाया है। मकड़ी के रेशम से बना यह कैप्सूल पेप्टाइड को सुरक्षित रखकर कोशिका के भीतर तक ले जाता है। यह वैक्सीनेशन विधि बेहद कारगर और उपयोगी साबित हुई है तथा शोध के परिणाम प्रभावशाली रहे हैं।
मकड़ियों के रेशम से बने वैक्सीन का क्या लाभ है यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। एक लाभ तो यह है कि इन्हें ठंडे वातावरण में रखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये बेहद खराब वातावरण में भी संरक्षित रहते हैं। इसलिए इनका एक्सपायरी टाइम भी बहुत लंबा होगा। सामान्य वैक्सीन को दूरस्थ स्थान तक ले जाते समय ठंडा रखना आवश्यक होता है क्योंकि गर्मी में ये बेअसर हो जाते हैं। किंतु सिंथेटिक रेशमी कैप्सूल में गर्मी सहन करने की इतनी क्षमता होती है कि ये कई घंटों तक 100 डिग्री सेल्सियस पर भी बगैर किसी नुकसान के कारगर सिद्ध होते हैं।
यद्यपि इस पूरी प्रक्रिया में कैप्सूल का सूक्ष्म आकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि रेशम के साथ पेप्टाइड जुड़कर अणु बड़ा हो जाता है, और उसे ही कोशिका में प्रवेश करना होता है। अगर बड़े पेप्टाइड को रेशम से जोड़कर पहुंचाना है तो कुछ उपाय निकालने होंगे। फिर भी सैद्धांतिक रूप से पूरी प्रक्रिया बेहद सरल और कारगर है। और इसे व्यावहारिक बनाने के प्रयत्न निरंतर चल रहे हैं।
मकड़ियां भी वैज्ञानिक अनुसंधान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। किंतु ये उपेक्षा की शिकार हुई हैं। इनके जाले के रेशम का महत्व अब पहचाना जा रहा है। मकड़ियों पर और अधिक शोध की महत्ता को समझा जाना चाहिए तथा वैज्ञानिक शोध में मकड़ियों को भी उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। क्या पता आपके आसपास रहने वाली कोई मकड़ी विज्ञान के चमत्कारों को आगे ले जाने में मील का पत्थर साबित हो। (स्रोत फीचर्स)