डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब हिटलर ने यह दावा किया कि तीन हफ्तों में इंग्लैंड की गर्दन एक मुर्गे की तरह मरोड़ दी जाएगी, तब विंस्टन चर्चिल ने उपेक्षापूर्ण जवाब दिया था: ‘some chicken, some neck’ (इंग्लैंड कोई मुर्गा नहीं है)। कुछ ही समय बाद इंग्लैंड व मित्र सेनाओं ने युद्ध जीत लिया।
लेकिन 1930 के दशक में चर्चिल ने मुर्गे सम्बंधी एक टिप्पणी और की थी जो आज के लिए भी काफी प्रासंगिक है: “आज से 50 साल बाद मुर्गे की टांग खाने के लिए हम पूरे चिकन को पालने के बेतुकेपन से बचेंगे क्योंकि तब हम इन अंगों को अलग से प्रयोगशाला में बना सकेंगे।”
जी हां, चर्चिल की भविष्यवाणी आने वाले सालों में सच हो सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में कोशिका और ऊतक इंजीनियरिंग की मदद से खाद्य-मांस विकसित कर रहे हैं। इस प्रकार हमारे बीच न केवल वीगन यानी अति-शाकाहारी (वे लोग जो दूध या अन्य डेयरी उत्पादों का भी उपयोग नहीं करते हैं), शाकाहारी और मांसाहारी लोग होंगे बल्कि परखनली में बनाए गए मांसभक्षी यानी “इन-विट्रोटेरियंस” लोग भी होंगे।
प्रयोगशाला में मांस क्यों विकसित किया जा रहा है? क्योंकि हमें पशुओं के चारे के लिए फसलें उगानी पड़ती हैं। इन फसलों को उगाने में उपलब्ध ज़मीन का 26 प्रतिशत और काफी मात्रा में पानी का भी इस्तेमाल होता है। इसके अलावा, मवेशी ग्लोबल वार्मिंग में 18 प्रतिशत का योगदान करते हैं।
चर्चिल की बात को दूसरे शब्दों में कहें, तो जानवर प्रोटीन के कार्यक्षम कारखाने नहीं हैं; मांस के रूप में हम जो भी खाते हैं वह प्रोटीन (मांसपेशियां) ही है। तो फिर क्यों न प्रयोगशाला में मात्र मांस विकसित करें जिससे जगह और पानी की बचत हो सके और ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सके?
यहीं स्टेम कोशिका का प्रवेश होता है। निकोल जोन्स ने नेचर के 9 दिसंबर 2010 के अंक में लिखा था कि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक अनश्वर (और इसलिए सस्ता) भंडार प्रदान करती हैं जिससे मांस की अंतहीन आपूर्ति की जा सकती है। लेकिन पालतू जानवरों से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं का उत्पादन करने का प्रयास सफल नहीं रहा है। इसलिए वैज्ञानिकों ने ‘वयस्क’ स्टेम कोशिकाओं की ओर ध्यान दिया। इन्हें मायोसेटेलाइट कोशिका कहते हैं और यही मांसपेशियों की वृद्धि और मरम्मत के लिए जिम्मेदार हैं।
प्रयोगशाला में मांस (जिसे इन-विट्रो मांस या आईवीएम भी कहा जाता है) बनाने के लिए पहले से ही तीन समूह इन कोशिकाओं के उपयोग में भिड़े हैं। इस सम्बंध में हॉलैंड में एक और अमेरिका में दो पेटेंट लिए जा चुके हैं। इनमें से एक डॉ. केदारनाथ चल्लाकेरे हैं जिनकी कंपनी मोक्षगुंडम बायोटेक्नोलॉजीज़ कैलिफोर्निया में स्थित है। (मोक्षगुंडम एक स्थान का नाम है जो पहली बार सर एम. विश्वेश्वरैया के कारण जाना गया था। विश्वेश्वरैया इसी स्थान से थे)।
यह होता कैसे है? उदाहरण के लिए सबसे पहले एक सूअर की बायोप्सी से मायोसेटेलाइट कोशिका को निकाला जाता है और एक उचित माध्यम का उपयोग कर प्रयोगशाला में पनपाया जाता है। फिर उन्हें एक ढांचे पर रोपकर रेशों का रूप दिया जाता है, जो एक साथ बांधने पर मांसपेशी का रूप ले लेते हैं। इसके बाद, कुछ ‘प्रयोग’ के माध्यम से मांसपेशियों में प्रोटीन उत्पादन को बढ़ाया जाता है। मांसपेशियों की इन पट्टियों को पीसकर उनमें स्वाद के लिए रसायन, विटामिन और आयरन मिलाकर सॉसेज मांस तैयार किया जाता है। इसे पकाकर खा सकते हैं।
अभी कई ऐसे तकनीकी मुद्दे हैं जिन्हें हल किया जाना है। इनमें सबसे पहला मुद्दा कोशिकाओं के स्रोत का है।
चूंकि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक आदर्श प्रारंभिक बिंदु हैं, इसलिए मुर्गे, टर्की, भेड़ और मवेशी (और यहां तक कि कई खाद्य मछली) से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के उत्पादन पर काम करना होगा। दूसरी बात है कि यदि वयस्क स्टेम कोशिकाएं ली जाएं (जिनका उपयोग अभी किया गया है) तो वे लगभग 30 बार के बाद आगे विभाजित नहीं होतीं।
उनके गुणसूत्र के डीएनए में सुरक्षात्मक सिरे (टीलोमेयर) प्रत्येक विभाजन में छोटे होते जाते हैं और आगे अधिक विभाजन के बाद गायब हो जाते हैं। कल्चर माध्यम में एंज़ाइम टीलोमरेज़ मिलाने से मदद मिल सकती है।
एक मुद्दा यह भी है कि आदर्श रूप से हम जंतु-मुक्त माध्यम का उपयोग करना चाहते हैं। कुछ समूहों ने इसके लिए मैटेक मशरूम का उपयोग किया है जबकि कुछ अन्य ने नीले हरे शैवाल को इस्तेमाल किया। ध्यान दें कि ये दोनों शुद्ध शाकाहारी माध्यम हैं। लेकिन इनमें धन और सामग्री जैसे बड़े मुद्दे शामिल हैं। कोशिका पालन के लिए प्रयुक्त माध्यम बहुत महंगा है, और लागत में 90 प्रतिशत हिस्सा इसी का है।
दूसरा, मांस के रेशों को मांसपेशी की पट्टियों में ढालने की प्रक्रिया है, जिसके लिए ऊर्जा की ज़रूरत होगी और बड़े पैमाने पर संभव बनाने की भी।
तीसरा मुद्दा है कि जैसे-जैसे मांसपेशियों की पट्टियां बड़ी होने लगती हैं, उनकी अंदरूनी कोशिकाएं मरने लगती हैं क्योंकि उन्हें पोषण नहीं मिल पाता। वास्तविक परिस्थिति में उन्हें ज़रूरी पोषण रक्त प्रवाह द्वारा प्रदान किया जाता है। इसलिए इन-विट्रो में ‘रक्त वाहिकाएं’ बनाने की ज़रूरत है।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एक अनुमान है कि प्रयोगशाला में मांस की पहली खेप तैयार करने के लिए प्रति टन 3,500 यूरो खर्च होगा। तुलना के लिए देखें कि सामान्यत: मांस उत्पादन का खर्च 1,800 यूरो प्रति टन होता है। हालांकि, यह भी याद रखें कि पहला सेल फोन बनाने के लिए लाखों यूरो खर्च किए गए थे लेकिन आज एक साधारण मॉडल 30 यूरो में खरीदा जा सकता है। एक बार विज्ञान ठीक तरह से काम कर गया, तो लागत कम होगी और तकनीक में प्रगति से उत्पादन में वृद्धि के साथ कीमतें भी नीचे आएंगी।
लेकिन फिर भी, क्या प्रयोगशाला में बने मांस को स्वीकार किया जाएगा? मुझे तो लगता है कि किया जाएगा। सबसे पहले, प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज़ अगेन्स्ट एनिमल्स (पेटा) जैसे समूह इसे स्वीकार कर रहे हैं और बढ़ावा दे रहे हैं। दूसरी बात है कि यह जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) भोजन नहीं है क्योंकि इसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग नहीं किया गया है। तीसरा, हालांकि आज इसमें कोई स्वाद नहीं है, आगे चलकर भोजन और पोषण वैज्ञानिक स्वाद बढ़ाने में सक्षम होंगे।
चौथा, क्या इन-विट्रो मांस ‘अनैतिक’ या ‘अप्राकृतिक’ है? ज़रूरी नहीं; इन-विट्रो कंसोर्टियम (एक संस्थान जो इन-विट्रो मांस के विचार को बढ़ावा देता है) के डॉ. जेसन मैथेनी पूछते हैं: “क्या 10,000 मुर्गियों को बाड़े में रखना जहां वे अपने ही मल में जीती हैं और उनमें तरह-तरह के रसायन भर देना नैतिक या प्राकृतिक है?” मैथेनी हाई स्कूल के दिनों से शाकाहारी नहीं बल्कि वीगन रहे हैं। जब पूछा कि क्या वे आईवीएम खाएंगे, तो उन्होंने कहा, “हां, ज़रूर। यह मांस के प्रति मेरी सभी चिंताओं का उत्तर देगा।” चर्चिल भी ज़रूर इसे खाते।
मुझे लगता है कि महात्मा गांधी (चर्चिल अधनंगा फकीर कहकर जिनकी खिल्ली उड़ाया करते थे) भी इस परखनली उत्पादित मांस को स्वीकृति देते, हालांकि शायद खुद नहीं खाते। आने वाले दिनों की बात करूं, तो सोचता हूं कि पशु अधिकार समर्थक सुश्री मेनका गांधी या सुश्री अमाला अक्किनेनी क्या कहेंगी। (स्रोत फीचर्स)