लेखक: ऐड्रियन फोर्सिथ और कैन मियाटा [Hindi PDF, 219 kB]
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी
बड़े शहरों में रहने वालों का अन्य प्रजातियों से सीधा सम्बन्ध केवल कुत्तों तथा बिल्लियों से (और हमारी प्रवृत्ति उनको भी अपनी प्रजाति का मानने की होती है) या कभी-कभार कॉकरोचों तक ही सीमित होता है। आधुनिक शहरी जीवन ने हमें बिगड़े हुए पारिस्थितिक तंत्र के एक सुदूर छोर पर धकेल कर उसकी अन्तिम कड़ी बना दिया है। जो खाद्य ाृंखलाएँ हमें पालती हैं उन से बहुत दूर हट कर, हम पोषण के एक ऐसे पिरामिड के शिखर पर अपना जीवन बिताते हैं जिसका वास्तव में हम कभी भी हिस्सा नहीं बनते।
अन्य प्रजातियों से सीमित पारस्परिक सम्बन्ध होने से हम मजबूरी में एक तरह की पारिस्थितिक अदूरदर्शिता से ग्रस्त हो जाते हैं। सभी जीवों से अन्तरंग रूप से जुड़े होने की बात ने हमारे समाज में बहुत गहराई तक प्रवेश नहीं किया है, और जो लोग इसे बौद्धिक रूप से स्वीकार करते हैं, हो सकता है कि उन्हें भी इसका एहसास न हो कि ये सम्बन्ध किस हद तक जटिल होते हैं। कॉलेज की जीवविज्ञान की पाठ्यपुस्तकें अकसर विभिन्न प्रजातियों के पारस्परिक सम्बन्धों की गहराई में न जाकर, केवल परभक्षी-वृत्ति, जीवन स्पर्धा, तथा सहजीविता की सरलीकृत चर्चाएँ प्रस्तुत करने के अलावा और कुछ नहीं बतातीं। लेकिन अभी भी संसार में ऐसे स्थान और अवसर मौजूद हैं जहाँ एक उत्तरी अमेरिकी व्यक्ति एक खाद्य ाृंखला में दाखिल हो सकता है और दूसरी प्रजातियों से अपने सम्बन्ध को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर सकता है। हमारे मित्र जैरी कोयन को मध्य अमेरिका के जंगलों में अपने पहले भ्रमण के दौरान ऐसा ही एक अनुभव हुआ।
जैरी एक जीव विज्ञानी है। उस समय वह हार्वर्ड के तुलनात्मक प्राणी विज्ञान संग्रहालय में स्नातकोत्तर विद्यार्थी था। जैव-विकासवाद के तर्क, आनुवांशिकी के सिद्धान्त, आइवी लीग इकोलॉजी तथा जैवमिति के औज़ारों में पारंगत होते हुए भी, उसे इस बात का भी भान था कि जीवित प्राणियों के साथ उसका वास्तविक अनुभव फलों की मक्खियों (फ्रूट फ्लाइज़) तक ही सीमित था। तुलनात्मक प्राणी विज्ञान संग्रहालय में काम करने से बहुत मदद नहीं मिली थी। संग्रहालय अब वैसा नहीं रहा था जैसा वह उसके संस्थापक, प्रसिद्ध स्विस प्रकृति विज्ञानी लुई अगासिज़ के दिनों में था, जब उनके निरन्तर आह्वान ‘किताबों का नहीं, प्रकृति का अध्ययन करो’ का सभी के द्वारा पालन किया जाता था। उस ठसी हुई निर्जीव प्रयोगशाला में, जैरी का जीव-विज्ञानी सम्पर्क बस फलों की मक्खियों से था। और कैम्ब्रिज के कुत्तों और अपने सहपाठियों के अलावा, जो जानवर उसे दिखते थे वे काँच की अलमारियों में मढ़े स्टफ्ड स्तनपायी जानवर थे। हमारे द्वारा प्रयोगशाला से बाहर निकलने को उकसाते रहने के बाद उसने ट्रॉपिकल इकोलॉजी के एक मैदानी कोर्स में दाखिला ले लिया। शीघ्र ही वह उष्णकटिबन्धी प्रकृति की सम्पन्नता का स्वयं अनुभव करने का दृढ़ निश्चय करके जैट विमान से कोस्टा रिका रवाना हो गया।
कटिबन्धों से परिचय ने जैरी के लिए एक नया संसार खोल दिया। न केवल अपने प्रशिक्षण के बारे में उसके सन्देहों की पुष्टि हुई, बल्कि विज्ञान के बारे में उसका पूरा दृष्टिकोण ही बदल गया। उसके ही शब्दों में, अब वह - तथाकथित पारिस्थितिकी-वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित भोले तथा सरल सामान्यीकरणों पर भरोसा नहीं करने वाला था, और न ही जीवन के समृद्ध प्राकृतिक इतिहास की बारीकियों को नज़रअन्दाज़ करके चतुर परिकल्पनाओं की तलाश करने वाला था। लेकिन वह इन बौद्धिक रहस्योद्घाटनों से कुछ ज़्यादा ही लेकर वहाँ से लौटा।
लौटने के निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले जैरी का सिर खुजलाने लगा। यह कोई बड़ी बात नहीं थी। वह और उसके साथी विद्यार्थी तब तक अच्छी तरह जान गए थे कि त्वचा की फफूंद, चिगर (एक तरह का कटिबन्धी पिस्सू) तथा मच्छरों का काटना और त्वचा की अन्य तकलीफें - ये सब तो उष्णकटिबन्धी लोलैण्ड के इलाकों में काम करने वाले जीव विज्ञानियों की किस्मत में लिखा ही था। उनका क्षेत्रीय केन्द्र एक बड़े दलदल से लगा हुआ था, और रात्रि के भोजन के बाद जब वे व्याख्यानों को सुन रहे होते तो मच्छरों के झुण्ड उन पर हमला बोल देते थे। पहले तो जैरी को लगा कि उसकी खोपड़ी में हो रही खुजली किसी मच्छर के काटने के कारण होगी, और थी भी; मगर साधारण मच्छर-दंश के विपरीत वह खुजली शान्त नहीं हुई। कई दिनों तक मन ही मन कुढ़ने के बाद जैरी ने बाहरी मदद तलाश की। उसकी एक साथी विद्यार्थी, एक चिकित्सा कीट-विज्ञानी, उसके घाव की जाँच करने के लिए राज़ी हो गई। उसने जो बताया उससे बेचारे जैरी में भय की लहर दौड़ गई। उसकी खोपड़ी पर एक बारीक छेद में से एक कुलबुलाते कीड़े का श्वास-छिद्र नज़र आ रहा था। एक बॉटफ्लाई की वीभत्स इल्ली उसके सिर की त्वचा के भीतर पल रही थी और जैरी का मांस खा रही थी! प्रकृति से इतनी घनिष्ठता जैरी के लिए कुछ ज़्यादा ही हो गई थी और वह उस इल्ली को बाहर निकलवाने के लिए मदद माँगता हुआ इधर से उधर घूमता रहा।
बॉटफ्लाई के लार्वा
दुर्भाग्य से, बॉटफ्लाई की इल्ली को निकालना कोई आसान काम नहीं है। यह बॉटफ्लाई (डरमाटोबिया होमिनिस) अनगिनत पीढ़ियों से स्तनपायी जानवरों तथा पक्षियों की त्वचा में अनचाहे मेहमान की तरह रहती आई है। इसके लार्वा ने दो गुदा आँकड़े (एनल हुक्स) विकसित कर लिए हैं जिनसे वे अपने मांसल मेहमानखाने को मज़बूती से पकड़े रहते हैं। यदि आप लार्वा को धीरे-से खींचें तो ये आँकड़े और गहरे धँस जाते हैं और उसे आपके मांस से और कसके बाँध देते हैं। यदि आप ज़ोर से खींचेंगे तो कीड़ा अन्तत: फूट जाएगा, और अपने शरीर का कुछ हिस्सा मेज़बान के भीतर छोड़ देगा, जिसके परिणामस्वरूप मेज़बान को कहीं ज़्यादा खतरनाक संक्रमण (इन्फेक्शन) हो सकता है। बॉट मक्खी के लार्वा अपने बिल में एक ऐन्टीबायॉटिक छोड़ते हैं, जो उनके भोजन को प्रदूषित करने वाले जीवाणुओं तथा फफूंदियों को रोकने की तरकीब है। इसलिए शरीर के किसी गैर-संवेदनशील अंग में रह रहा एक अकेला बॉट लार्वा वयस्क मनुष्य के लिए कोई खास खतरा नहीं बनता, सिवाय थोड़ी शारीरिक बेचैनी और मानसिक तकलीफ के।
कभी-कभी कोई बॉट शरीर के किसी विशेष रूप से नाज़ुक और अन्तरंग मांसल अंग में अपना घर बना लेता है जो उसे बाहर निकालने के लिए बेचैन रहता है। कोस्टा रिका में स्थानीय लोग धँसे हुए लार्वा को मारने के लिए मटाटोरसालो (बॉट-मारक) नामक एक पौधे का उपयोग करते हैं। इस मिल्कवीड का सफेद तीखा रस लार्वा को मार देता है, पर उसके शव को निकालने का काम बचा रहता है। ऐसे में एक कीटाणुरहित नश्तर से दक्षतापूर्वक उसे काटकर निकालना ही उपयुक्त कार्यवाही होती है। लेकिन उष्णकटिबन्धी जंगलों में शल्य चिकित्सक बहुत कम हैं, और इन हालातों में बॉट मक्खी के अनेक अनिच्छुक मेज़बान ‘मांस के टुकड़े का इलाज’ चुनते हैं।
यह उपचार, जो कतई सम्पूर्ण नहीं है, बॉट लार्वा के जीव-विज्ञान का फायदा उठाता है। ये कीड़े हवा से साँस लेते हैं, और इसलिए उनके श्वास लेने वाले छिद्रों का हवा के साथ सम्पर्क बनाए रखना ज़रूरी है। यदि आप हवा लेने के लिए बनाए गए छिद्र के ऊपर एक नरम मांस के टुकड़े को पर्याप्त कस कर जमा दें तो लार्वा को आखिरकार अपना बिल छोड़ कर ताज़ी हवा की तलाश में उस मांस के टुकड़े में घुसना पड़ता है। जब ऐसा हो जाता है तो मांस के टुकड़े और लार्वा, दोनों को निकाल कर फेंक दिया जाता है। जैरी की कक्षा के एक विद्यार्थी ने, जो उसके नितम्ब में घुसी हुई बॉट इल्ली से पीड़ित था, सफलतापूर्वक यही किया था। लेकिन इसके कारगर होने के लिए जैरी के सिर के घने बालों, जिन पर वह गर्व और आनन्द महसूस करता था, को मुण्डवाना पड़ता, और फिर उष्णकटिबन्धी गर्मी में खोपड़ी पर एक कच्चे मांस के टुकड़े को बाँधे हुए मेहनत करना पड़ती, और यह खयाल उसे बिलकुल गवारा नहीं था। जैरी ने फिलहाल ऐसे ही जीने और बॉट को भी जीने देने, और बाद में हार्वर्ड लौटकर पेशेवर सहायता लेने का निर्णय लिया।
घृणा के आवेगपूर्ण प्रारम्भिक दौर के बाद, जैरी ने अपने मेहमान को स्वीकार करना सीख लिया। अधिकांश समय वह अपेक्षाकृत कष्टरहित था। केवल जब लार्वा कुलबुलाता तब वह दर्द की तीखी लहरें पैदा करता था। जैरी के तैरने से लार्वा बिलबिला जाता था, जो शायद उसकी हवा की आपूर्ति कुछ समय के लिए अवरुद्ध हो जाने की प्रतिक्रिया में होता था, और यह जैरी को अपनी खोपड़ी में तीव्र प्रहारों जैसा महसूस होता था। पर ये असुविधाएँ इतनी भी नहीं थीं कि वह इस सब के अचरज के प्रति अन्धा हो जाता। वह बॉट ‘स्वयं जैरी के शरीर का पदार्थ’ ग्रहण कर रहा था और उसे बॉट मक्खी के नए मांस में बदल रहा था। एक प्राणी का दूसरे प्राणी में यह जादुई रूपान्तरण ऐसा चमत्कार था जो आसानी से देखा तो जा सकता है, लेकिन उसका अनुभव करना कठिन है। किसी विशाल मांसाहारी शिकारी के जबड़ों में फँस कर अचानक मौत हो जाए या कोई कीट आपको काट ले तो आपको यह विचार करने का अवसर नहीं मिलता कि इस परजीविता में कितना ज़बर्दस्त रूपान्तरण हो रहा है। लेकिन यहाँ जैरी अपना मात्र कुछ मि.ग्रा. मांस खर्च करके आराम से इस प्रक्रिया का अनुभव और चिन्तन, दोनों कर सकता था। वह अब एक खाद्य शृंखला के छोर पर न होकर उसके भीतर था। जैरी को अपना बॉट कीड़ा भाने लगा और वह बॉट जैरी को खा-खाकर मोटा होता गया।
जब जैरी लौट कर न्यू इंग्लैंड आया, तब तक उसके बॉट ने उसके सिर पर हंस के अण्डे के बराबर सूजन पैदा कर दी थी। अब वह ज़्यादा तकलीफ दे रहा था, और इसलिए जैरी ने तत्काल हार्वर्ड हैल्थ सर्विसेज़ के क्लीनिक में चिकित्सकीय सलाह ली। हालाँकि उसे जल्दी ही चिकित्सकों तथा नर्सों की भीड़ ने घेर लिया, उनमें से किसी ने भी पहले कभी बॉट मक्खी को नहीं देखा था, और वे जैरी को एक मरीज़ की बजाय एक चिकित्सकीय अजूबे की तरह ज़्यादा देख रहे थे। खीझ कर, उसने चिकित्सकीय समाधान के खयालों को त्याग दिया और प्रकृति को अपना काम करने देने का फैसला किया। तकलीफ के बावजूद, बॉट थोड़ा मज़ा भी देता था। जैरी अपने परिचितों को अपने मेहमान के बारे में बताकर जब नाटकीय ढंग से अपने बालों को हटाकर अपनी सूजन दिखाता तो उनके चेहरों पर दहशत भरे भाव उभर आते जिसे देखकर जैरी को बहुत मज़ा आता।
एक शाम फैनवे पार्क में दर्शकों के लिए बनी बेंचों पर बैठे हुए रैड सॉक्स को यांकीज़ (अमेरिका की दो प्रसिद्ध पेशेवर बेसबॉल टीमें) से हारते हुए देखने के दौरान, जैरी को अपने साथ घटी इस घटना के अन्त की शुरुआत का अनुभव हुआ। उसकी खोपड़ी पर अण्डे जैसे उभार में से बॉट मक्खी के लार्वा का चौथाई इंच हिस्सा बाहर झाँकने लगा था। शाम होते-होते उसका और हिस्सा बाहर आता गया और आखिरकार एक इंच लम्बा काँटेदार लार्वा मुक्त होकर बाहर गिर पड़ा। जैरी ने एक जार में जीवाणुरहित रेत भरकर बनने वाले प्यूपा के लिए एक नर्सरी-सी तैयार की, लेकिन काफी सावधानी के बावजूद, लार्वा प्यूपा जैसी खोल में बन्द होने के पहले ही सूख कर मर गया।
जैरी की इल्ली की कहानी जैरी के पदार्पण के बहुत पहले आरम्भ हो गई थी। वह एक अण्डे से, या ज़्यादा सही कहें तो एक अण्डे को किसी उपयुक्त मेज़बान के भीतर प्रविष्ट करवाने की युक्ति से शु डिग्री हुई थी। चिड़ियों, बन्दरों, और मनुष्यों जैसे कुशल प्राणियों को अपनी परजीविता का शिकार बनाने के लिए बॉट मक्खियों को चोरों की तरह छिपकर काम करना चाहिए। लेकिन वयस्क बॉट मक्खियाँ बड़ी, दिन में उड़ने वाली जीव होती हैं जो आसानी से दिखाई और सुनाई देती हैं और जिनसे आसानी से बचा जा सकता है। बॉट मक्खियों की जो प्रजातियाँ चूहे जैसे कुतरने वाले जानवरों को अपनी परजीविता का शिकार बनाती हैं वे अपने अण्डों को ऐसे जानवरों के बिलों के किनारों पर लगे पौधों के मूलरोमों (root hairs) पर चिपका देती हैं। जब ऐसा कुतरने वाला जानवर पास से गुज़रता है तो उसके शरीर की गर्मी से वे अण्डे फूट जाते हैं, और लार्वा रेंगकर उन जानवरों के बालों पर चढ़ जाते हैं और फिर उनके मांस में पहुँच जाते हैं।
बॉट मक्खी की रणनीति
डरमाटोबिया अण्डों को सही जगह पहुँचाने की समस्या को एक उल्लेखनीय अनुकूलन के द्वारा हल करती हैं। अण्डों से लदी कोई मादा मक्खी एक मादा मच्छर को पकड़ लेती है, अपने अण्डे उस मच्छर पर चिपका देती है और फिर उसे छोड़ देती है। अपेक्षाकृत छोटा, ज़्यादा चतुराई से वार करने और रात को उड़ने वाला मच्छर मनुष्य या किसी अन्य कुशल और सचेत जानवर से अपनी खुराक लेने के लिए बहुत उपयुक्त होता है। जब मच्छर अपना भोजन कर रहा होता है, तो मेज़बान के शरीर की गर्मी पाकर बॉट मक्खी के अण्डे फूटना शु डिग्री हो जाते हैं, और उससे निकला सूक्ष्म लार्वा अपनी सवारी पर से गिर कर उस मनुष्य या जानवर मेहमान के मांस में धँस जाता है। अण्डों को दूसरे के शरीर में खुद न स्थापित करके, उन्हें दूसरे के द्वारा स्थापित करवाने के इस तरीके से ज़्यादा छल-भरी रणनीति की कल्पना करना कठिन है - यह ऐसा अनुकूलन है जिसका विकासवादी जीव-विज्ञानी कभी अनुमान नहीं लगा सकते थे।
विकास की प्रक्रिया के जिन मध्यवर्ती चरणों की परिणति इस तरह से अण्डे रखने के व्यवहार में हुई, वे हैरान करने वाले हैं। वाकई में, यह उन परिष्कृत अनुकूलनों की ‘परिपूर्णता’ का एक अच्छा उदाहरण है जिन्होंने डारविन को ओरिजिन ऑॅफ स्पीशिज़ में परेशान किया था। यदि हम यह मान लें कि बॉट मक्खी के पूर्वज अपने अण्डों को सीधे मेज़बान पर, या घास या पत्तियों पर भी, जमा करते थे, तो उससे मच्छर के ऊपर अण्डे स्थापित करने की स्थिति आने तक के बीच के चरणों के बारे में सोचना कठिन है। किसी भी छोटी-मोटी मक्खी को पकड़ लेना काफी नहीं है, क्योंकि वह व्यर्थ हो जाएगा। बॉट मक्खी को उपयुक्त और अनुपयुक्त वाहक-कीटों (वैक्टर्स) के बीच भेद करने में समर्थ होना ज़रूरी है, और यह भेद बारीकी से होना चाहिए क्योंकि डरमाटोबिया आम तौर पर सोरोफोरा प्रजाति के मच्छरों को अण्डों के वाहक के रूप में इस्तेमाल करती हैं। हो सकता है कि पहचानने का चिन्ह सरल हो, पर फिर भी इसके विकास के मध्यवर्ती चरण स्वत:स्पष्ट नहीं हैं।
आपके मन में सवाल उठ सकता है कि इस प्रकार का अण्डा-स्थापन लोलैण्ड उष्णकटिबन्धों तक ही सीमित क्यों है, और यह उत्तरी सम-शीतोष्ण (टैम्परेट) क्षेत्र में विकसित क्यों नहीं हुआ या वहाँ क्यों नहीं फैला। बोरियल (उत्तरी) तथा आल्पाइन (यूरोप के पर्वतीय) प्राकृतवास के मच्छरों के खाऊपन की होड़ नहीं हो सकती। खून के प्यासे मच्छरों तथा काटने वाली मक्खियों के बादलों जैसे झुण्डों की हमारी सबसे सजीव यादें उष्णकटिबन्धों की नहीं हैं (हालाँकि हमने मैनग्रोव के दलदलों में मच्छरों के बादलों में अनेक नारकीय शामें भी बिताई हैं), बल्कि चारागाहों वाले न्यू इंग्लैंड के वन और सुरम्य रॉकी माउन्टेन के घास के मैदानों की हैं। शायद पूरा मामला इस बात पर टिका है कि सम्बन्धित स्तनपायी शिकार का हस्त-संचालन कितना कुशल है। उत्तरी इलाकों में, बन्दर, किंकाजू, तथा कोटीमुंडी हस्त-कुशल जानवर नहीं पाए जाते। मनुष्यों और रैकूनों को छोड़कर, उत्तरी अमेरिका के अधिकांश ज़्यादा बड़े स्तनपायी जानवर काफी फूहड़ होते हैं, कम-से-कम हाथों के संचालन की दृष्टि से। मूस (विशाल अमेरिकी हिरण), छोटे हिरण, भालू, कायोटी (एक तरह का छोटा भेड़िया), और इसी किस्म के अन्य जानवर अपने भोजन को हाथ-पैर से नहीं सम्भालते तथा अधिकांश समय अपने चारों पैर ज़मीन पर रखते हैं।
सम-शीतोष्ण क्षेत्र के मच्छर किसी के पास ज़ोर-से भिनभिनाते हुए आते हैं और उनका शरीर पर बैठना तथा काटना आसानी से पकड़ में आ जाता है। लेकिन ज़रा वर्षा वन की एक सामान्य मादा मच्छर के बारे में सोचिए। यदि आप हिल-डुल रहे हैं, तो वह शायद ही कभी आपके ऊपर बैठेगी, उसकी आवाज़ तो आपको रात के सन्नाटे में तभी सुनाई पड़ती है जब बातचीत बन्द हो चुकी होती है और आप नींद के आगोश में जा रहे होते हैं। उसका बैठना बड़े धीरे-से, यहाँ तक कि थोड़ा झिझकते हुए, होता है, और यदि आप हिलते हैं तो वह उड़ जाती है और मौके का इन्तज़ार करती है। जब वह काटती है, तो वह भी नज़ाकत से होता है, एक नाज़ुक-सा स्पर्श जो शायद ही कभी महसूस होता है। वह सावधान रहती है; वह अपना काम चोरी-छिपे करती है।
निश्चित ही शीतोष्ण इलाके और उष्णकटिबन्ध, दोनों ही अनेक प्रकार के मच्छरों के घर हैं, और मच्छरों की कुछ प्रजातियाँ उपरोक्त सामान्यीकरण में सही नहीं बैठतीं। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उष्णकटिबन्धी मच्छरों की चोरी-छिपे काम करने की सामान्य प्रवृत्ति का सम्बन्ध कुछ हद तक इस बात से है कि वे अपने स्तनपायी मेज़बानों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर विकसित हुए हैं। और चोरी-छिपे काम करने की यह प्रवृत्ति एक सम्भव व्याख्या प्रदान करती है कि क्यों डरमाटोबिया होमिनिस एक उष्णकटिबन्धी प्राणी है। उत्तर के सम-शीतोष्ण क्षेत्र में अधिकांश गर्म खून वाले प्राणी चौपाए हैं, वहाँ बॉट मक्खी को प्रजनन-सम्बन्धी जटिल अनुकूलन की ज़रूरत नहीं है। थोड़ी-सी लगन हो तो वह, पूँछ के थपेड़ों से बच कर, अण्डे रखने के लिए अन्तत: अपने लक्ष्य पर पहुँच सकती है। यह काम करने के लिए किसी मच्छर को तलाशने से उसे कोई लाभ नहीं होगा, और इसलिए उत्तरी अमेरिका में बॉट मक्खियाँ तथा वार्बल मक्खियाँ सीधे अपने मेज़बानों के ऊपर अण्डे रख देती हैं।
बॉट मक्खी जीवनचक्र: बॉट मक्खी अपने अण्डे स्वयं इन्सान या किसी अन्य जीव की त्वचा पर छोड़ देती है। लेकिन उष्णकटिबन्धीय इलाकों में बॉट मक्खी अण्डों को सही जगह पहुँचाने के लिए मादा मच्छर का एग-कैरियर की तरह उपयोग करती है। लार्वा तयशुदा मियाद के बाद त्वचा छोड़कर प्यूपा और फिर वयस्क बॉट मक्खी बनता है।
अण्डे स्थापित करने की कार्यविधि की दृष्टि से डरमाटोबिया होमिनिस तथा उसके मेज़बान का पारस्परिक सम्बन्ध जटिल होता है, लेकिन जैरी और उसके बॉट कीड़े के बीच का पारिस्थितिक सम्बन्ध काफी सीधा-सरल था। उसमें बॉट ने पाया और जैरी ने खोया। यह परजीविता थी, और यह प्रजातियों के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों के पाठ्यपुस्तकीय वर्गीकरण में आसानी से फिट हो जाती है। आगे दिया गया चार्ट इस प्रकार के वर्गीकरणों का सामान्य उदाहरण है, जहाँ एक प्रजाति के दूसरी पर पड़ने वाले प्रभाव को अलग-अलग चिन्हों - धनात्मक (अ), ऋणात्मक (-), या उदासीन (0) -- से दर्शाया गया है:
प्रजाति-ए | प्रजाति-बी | |
परजीविता या परभक्षिता (पैरासाइटिज़्म या प्रीडेशन) | + | - |
बिना किसी क्षति के एक से दूसरे को लाभ मिलना (कॉमन्सलिज़्म) | + | 0 |
पारस्परिक आदान-प्रदान (म्यूचलिज़्म) | + | + |
परजीविता तथा परभक्षिता, दोनों ही बहुत स्पष्ट हैं; इनमें परजीवी या परभक्षी हासिल करता है और ज़ाहिर है कि मेज़बान या शिकार खोता है। उतनी ही स्पष्ट वे परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें दोनों प्रजातियाँ लाभ में रहती हैं, जैसे कि पारस्परिक आदान-प्रदान में होता है। इसका एक अच्छा उदाहरण पेड़ों तथा मायकोराइज़ा फफूंद का सम्बन्ध है (इसमें पेड़ों की जड़ों में लगी फफूंद और पेड़, दोनों लाभान्वित होते हैं)। कॉमन्सेलिस्टिक क्रियाकलाप, जिनमें एक प्रजाति को फायदा होता है पर दूसरी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, शायद कम स्पष्ट होते हैं, हालाँकि किसी पेड़ के तने पर उग रही काई (एलगी) इसका एक उदाहरण हो सकती है। लेकिन इस सरल विवरण की कमियाँ हैं, जैसा कि प्रकृति की अधिकांश चीज़ों में होता है। चीज़ें हमेशा उतनी सरल नहीं होतीं, खास तौर पर उष्णकटिबन्धों में जहाँ प्रजातियों की विराट संख्या के परिणामस्वरूप जटिल पारस्परिक अन्तर्क्रियाएँ हो सकती हैं। वहाँ परजीविता, पारस्परिकता और कॉमेन्सलिज़्म में भेद करने वाली रेखाएँ एक भूल-भुलैया की तरह होती हैं, और तब इन सम्बन्धों की प्रकृति वाकई में बहुत अस्पष्ट हो जाती है।
उष्णकटिबन्धी पारिस्थितिक अन्तर्क्रियाओं की जटिलता, तथा परजीविता और पारस्परिकता के बीच क्रमिक अन्तरण का एक उम्दा उदाहरण भी बॉट मक्खियों में देखा जा सकता है। अन्तर्क्रिया के इस ताने-बाने में एक और परजीवी प्रमुख भूमिका निभाता है, हालाँकि वह वास्तव में मेज़बान के शरीर में प्रवेश नहीं करता।
(...जारी)
ऐड्रियन फोर्सिथ: पिछले तीस सालों से ट्रॉपिक्स में शोध और कन्ज़र्वेशन करते आ रहे हैं। उत्तर अमेरिका के प्रकृति और विज्ञान के बेहतरीन लेखकों में से एक हैं।
कैन मियाटा: स्मिथ्सोनियन इंस्टिट्यूशन में पोस्ट-डॉक्टोरल फैलोशिप करने के बाद उन्होंने नेचर कन्ज़र्वेन्सी के साथ काम किया। 32 साल की अल्प आयु में उनका निधन हो गया।
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी: विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की है। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब गाज़ियाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से अनुवाद कार्य कर रहे हैं।
यह लेख ‘ट्रॉपिकल नेचर - लाइफ एंड डैथ इन द रेन फॉरेस्ट्स ऑफ सैंट्रल एंड साउथ अमेरिका’ किताब से लिया गया है जो साइमन एंड शूस्टर द्वारा 1987 में छापी गई थी।