लेखक: कैरन हैडॉक
अनुवाद: भरत त्रिपाठी [Hindi PDF, 133 kB]
शिक्षण कितना नियोजित हो?
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया कितनी नियोजित हो और कितनी स्वयं-स्फूर्त? सीखने की प्रक्रिया में कठिनाइयों एवं चुनौतियों का कितना महत्व है? कागज़ से खिलौने बनाने में भी सीखने-सिखाने के कितने विविध अवसर उपलब्ध हो सकते हैं? एक प्रदर्शनी में कागज़ के कुछेक खिलौने बनाने के अनुभव के दौरान ऐसे सब सवालों को टटोलता है यह लेख।
मेंने सोचा कि होमी भाभा विज्ञान शिक्षा केन्द्र (एचबीसीएसई) में लगी ‘विज्ञान का इतिहास’ प्रदर्शनी में आने वाले बच्चों और लोगों को क्यों न ऐसा मौका दिया जाए कि वे सिर्फ चित्र देखने और पोस्टरों पर लिखी जानकारियाँ पढ़ने से कुछ ज़्यादा कर सकें। तो मैंने उनके लिए ऐसी गतिविधि के बारे में सोचने की कोशिश की जिसे वे एक-दो साधारण चीज़ों की मदद के साथ कर सकें - ऐसी कोई गतिविधि जिसे पोस्टर पर समझाया जा सके और जिसके लिए न तो किसी शिक्षक की ज़रूरत हो और न ही किसी को निरीक्षण करना पड़े। ऐसी जो सबसे साधारण चीज़ मेरे दिमाग में आई, वह थी एक कागज़ का टुकड़ा। तो मैंने किसी ऐसे खिलौने को ढूँढ़ने का निर्णय किया जिसे कागज़ को मोड़कर बनाया जा सकता हो (और जिसमें कैंची तक की ज़रूरत न पड़े)।
दुर्भाग्यवश मैं इस गतिविधि की पहले से कोई योजना बनाने के लिए समय नहीं निकाल पाई, और विज्ञान दिवस के उत्सव के लिए बच्चों का ताँता लगना शु डिग्री हो चुका था! इसलिए मैंने अरविंद गुप्ता की एक किताब (अहा! ऐक्टिविटीज़) से मदद लेने के बारे में सोचा।
इस किताब में मुझे कुछ कार्टून और विज्ञान शिक्षा से सम्बन्धित एक गाने के बोल मिले जिन्हें मैंने एक पोस्टर स्टैंड पर लगा दिया। वह गाना ध्यान आकर्षित करने वाला था क्योंकि उसमें विज्ञान को एक सामाजिक समस्या (सैन्यवाद) से जोड़ा गया था, और वह भारतीय सन्दर्भ में ही था, इसलिए मुझे लगा कि उसे लेना प्रासंगिक होगा।
खिलौना बनाना - बिना कागज़ काटे
मेरे पास ए4 आकार के कागज़ थे, और मैं उन्हें वर्गाकार टुकड़ों में काटने में समय बर्बाद नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने इस किताब में से एक ऐसा खिलौना ढूँढ़ा जो ए4 आकार के कागज़ को मोड़ने से बनता है। यह एक डिब्बा था, जो जाना-पहचाना मालूम हुआ। जी हाँ, यह एक विज्ञान-खिलौना है - एक प्रयोग कि किस तरह एक द्विआयामी कागज़ के टुकड़े को एक त्रिआयामी उपयोगी डिब्बे में परिवर्तित किया जा सकता है! मुझे लगा कि यह तो मैंने पहले भी बनाया है और इसे बनाना आसान है। इस खिलौने को बनाने से सम्बन्धित निर्देशों की मैंने फोटोकॉपी की, उन्हें पोस्टर स्टैंड पर चिपकाया, और पोस्टर के नीचे मौजूद टेबल पर ढेर सारे कागज़ रख दिए।
फिर मैं कुछ देर के लिए वहाँ से हट गई। वहाँ से हटना आसान नहीं था - मुझे लग रहा था कि मुझे डिब्बों को बनाने में बच्चों की मदद करना चाहिए।
जब आधे घण्टे बाद उस पोस्टर के सामने से गुज़री तो मैंने देखा कि कई बच्चे और लोग डिब्बा बनाने के निर्देशों को पढ़ रहे थे और कागज़ को मोड़ रहे थे। मैं अतीत में यह देख चुकी थी कि अधिकांश लोगों को ऐसी चीज़ें बनाना तब ज़्यादा आसान लगता है जब कोई उन्हें बनाकर दिखाए, बजाय कि तब जब उन्हें लिखित या चित्रित निर्देश दिए जाएँ। सीखने के इन दो तरीकों में होने वाली संज्ञानात्मक क्रियाएँ एक-दूसरे से बिलकुल अलग होती हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि मदद के लिए किसी जीते-जागते व्यक्ति का होना एक बहुत बड़ा फर्क है। लेकिन एक अन्य भेद भी है, और वह है: किसी द्विआयामी साँचे को एक त्रिआयामी वस्तु में बदल देना, तथा चित्रों की ाृंखला को किसी प्रक्रिया के काल-क्रम के रूप में समझना - इन दो प्रक्रियाओं के बीच का भेद। मैं देखना चाहती थी कि लोग बिना किसी ‘शिक्षक’ की मदद के पोस्टर पर लिखे निर्देशों का इस्तेमाल कर सकते हैं कि नहीं।
जब अगली बार मैं पोस्टर के पास गई तो पाया कि उस समय वहाँ कोई भी नहीं था, पर डिब्बे वाले निर्देशों के नीचे कई आधे मुड़े कागज़ रखे हुए थे। वहाँ कोई डिब्बा नहीं था। कागज़ का बना एक सादा हवाई जहाज़ ज़रूर रखा था, पर कोई डिब्बा नहीं था।
हवा से चलने वाली नाव
मैंने फिर से कागज़ का ऐसा खिलौना ढूँढ़ने की कोशिश की जिसे बच्चे बना सकें। मुझे उसी किताब में वर्गाकार कागज़ से बनी हुई हवा के ज़ोर से चलने वाली (एयर प्रोपेल्ड) नाव को बनाने के निर्देश मिले। यह ऐसी चीज़ थी जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। मैंने सोचा कि पहले मुझे खुद इसे बनाकर देखना चाहिए।
जब मैंने निर्देशों (चित्रों और शब्दों में दिए गए) का अनुसरण करने की कोशिश की तो मैं उलझ गई। उन निर्देशों में कोई-न-कोई बात तो स्पष्ट नहीं थी। मैंने इंटरनेट पर ‘एयर प्रोपेल्ड बोट’ या कई दूसरे संकेत-शब्दों की मदद से बेहतर निर्देशों को तलाशने की कोशिश की, पर वे मुझे नहीं मिले। तो मैंने उन्हीं निर्देशों को फिर से पढ़ा जो मेरे पास थे। आखिरकार मैं समझ गई, और मैंने सपाट तल और खड़े पाल वाली एक अच्छी ‘नाव’ बना ली। उसे मैंने पंखे के नीचे ज़मीन पर रखा और पाया कि उसने वाकई यहाँ-वहाँ मँडराना शुरू कर दिया है।
यह एक अच्छा विज्ञान-खिलौना था। इसे बनाना आसान था, पर बनाने के निर्देश त्रुटिपूर्ण थे और उनका अनुसरण करना बेहद कठिन था। खैर, मैंने सोचा कि इस कार्य को एक चुनौती ही रहने दिया जाए। देखें कि इन त्रुटिपूर्ण निर्देशों को देने से क्या होता है।
मेरे पढ़ाने का तरीका भी बिलकुल ऐसा ही है। कक्षा में प्रवेश करने से पहले आम तौर पर मेरे दिमाग में कुछ अन्दाज़ा होता है कि मुझे क्या पढ़ाना है - ऐसा कुछ जो मैं विद्यार्थियों को बताना चाहती हूँ - ऐसा कुछ जो मुझे लगता है कि उन्हें मुझसे सीखना चाहिए। पर फिर वह क्षण आता है जब मैं खुद को उन तमाम उत्सुक बच्चों के समक्ष खड़ा पाती हूँ जिनके दिमाग में लाखों चीज़ें घूम रही होती हैं और मेरा दिमाग भी भागने लगता है और अचानक, जो वाक्य मैं कहने जा रही होती हूँ, वह परिवर्तित हो जाता है: विद्यार्थियों को कुछ बताने की बजाय मैं उनसे कुछ पूछने की कोशिश कर रही होती हूँ। और मुझे हमेशा ही झटका लगता है - कोई-न-कोई विद्यार्थी बहुत अच्छा उत्तर सुझाता है! मुझे नहीं लगता कि मैंने कभी भी ऐसी किसी कक्षा को पढ़ाया है जहाँ मुझे यह जानकर अचरज न हुआ हो कि विद्यार्थी मेरे अनुमान से ज़्यादा सक्षम और ज़्यादा दिलचस्प हैं। तो एक बार फिर, एकदम आखिरी क्षण पर मैंने तय किया कि देखा जाए कि कोई बच्चा हवा के ज़ोर से चलने वाली इस नाव को बना सकता है या नहीं!
एक नई कोशिश
मैंने कागज़ के कुछ वर्गाकार टुकड़े काटे, त्रुटिपूर्ण निर्देशों का एक प्रिंट निकाला और उसे डिब्बे बनाने वाले निर्देशों के पास चस्पा कर दिया। मैंने देखा कि पहले रखे गए सारे कागज़ गायब हो चुके थे। किसी ने वे सारे कागज़ हटा दिए थे और मुड़े हुए सारे कागज़ों का ढेर बनाकर पोस्टर स्टैंड के पीछे ठूँस दिया था। ऐसा लगा कि कोई भी डिब्बा बनाने में सफल नहीं हुआ था - या शायद जो सफल हुए वे अपने डिब्बे घर ले गए थे। मैंने आधे मुड़े कागज़ों को फिर से एक नोटिस के साथ डिब्बे वाले निर्देशों के नीचे रख दिया: “कागज़ की बरबादी न करें! पुराने कागज़ को दोबारा इस्तेमाल करें।” मैंने सोचा कि मुझे इतने बढ़िया नए कागज़ की बजाय पुराने अखबारों के टुकड़े इस्तेमाल करना चाहिए थे।
कुछ देर बाद मैं वापस आई और देखा कि वहाँ बच्चों की काफी भीड़ थी और वे डिब्बा और नाव बनाने की कोशिश कर रहे थे। पर उनमें से कोई भी सफल नहीं हुआ। फिर मैंने खुद डिब्बा बनाने का निर्णय लिया, और पाया कि इसमें भी निर्देश त्रुटिपूर्ण थे। पर मैंने डिब्बा बना लिया।
बहुत सारे बच्चे मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए और उनके द्वारा किए गए प्रयास को सुधारने और उसे पूरा करने का मुझसे आग्रह करने लगे। इसकी बजाय मैंने उनसे ही कहा कि वे चित्रों को देखते हुए निर्देशों का अनुसरण करने की कोशिश करें। मुझे यह बात बड़ी दिलचस्प लगी कि कुछ बच्चों को कागज़ के मुड़े हुए टुकड़ों के चित्र, और मुड़े हुए असली कागज़ के बीच तालमेल बैठाने में बहुत ज़्यादा दिक्कत आ रही थी। उदाहरण के लिए जब मैंने उनका कागज़ उस चित्र के बगल में पकड़ कर रखा जिस पर अगले मोड़ का स्थान दर्शाने के लिए टूटी लाइन बनी हुई थी, तब भी उन्हें यह बताने में परेशानी हो रही थी कि उनके कागज़ पर वह लाइन कहाँ होगी। मैंने सोचा कि अगर उनसे कागज़ पर वह टूटी लाइन बनाने को कहा होता तो पता नहीं उनमें से कितने उसे सही-सही बना पाते।
आखिर कोशिश हुई कामयाब
आखिरकार, कुछ बच्चे डिब्बे बनाने में सफल हो गए। तो मैंने उनसे दूसरे बच्चों की मदद करने को कहा। एक लड़के ने तुरन्त ही परेशानी में फँसे अपने एक सहपाठी से अपना आधा मुड़ा कागज़ उसे देने को कहा ताकि वह अपने दोस्त की ‘मदद’ कर सके। उसकी इस ‘मदद’ का मतलब था दोस्त का डिब्बा खुद ही बना देना। मैंने उससे कहा कि वह खुद डिब्बे को हाथ न लगाए बल्कि अपने दोस्त को बोल-बोलकर बताए कि आगे क्या करना है। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था - पर शायद भाषाई कौशलों को सीखने का एक अच्छा मौका भी था!
‘अहा! ऐक्टिविटीज़’ पुस्तक में हवा के ज़ोर से चलने वाली (एयर प्रोपेल्ड) नाव को बनाने के लिए दिए गए निर्देश।
कुछ बच्चे अपने द्वारा बनाए गए डिब्बों को घर ले जाने की योजना बना रहे थे, तो मैंने उनसे पूछा कि वे इन डिब्बों में क्या रखेंगे। वे पेंसिल और पेन से लेकर मूँगफलियों और खाने-पीने की अन्य चीज़ों के बारे में सोच विचार करने लगे। पर दिक्कत यह थी कि डिब्बे बहुत मज़बूत नहीं थे क्योंकि वे बस पतले कागज़ के बने हुए थे। तो हमने यह चर्चा की कि तब क्या होगा अगर उसमें रखी जाने वाली चीज़ें भारी या गीली या फिर तेल वाली होंगी। उनके लिए सीखने का एक और मौका!
फिर मैंने नाव बनाने वाले बच्चों के समूह की ओर रुख किया। एक लड़के ने कहा कि उसने नाव बना ली थी, पर उसके हाथ में इसका ‘सबूत’ नहीं था! एक अन्य लड़के ने बिलकुल सही-सही बनी नाव सामने लाकर दिखाई, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि यह वही नाव है जो मैंने शुरुआत में बनाई थी और वहाँ छोड़ दी थी। कुछ बच्चों ने मुझसे मदद करने को कहा। मदद करने की बजाय मैंने उनसे कहा कि “इसे बनाना है तो काफी कठिन, लेकिन जो बच्चा सबसे पहले यह बनाकर दिखाएगा उसे मैं कुछ इनाम दूँगी।”
मुझे यकीन था कि जब मैं ही नाव बनाने में विफल होते-होते बची थी, तो इनमें से तो शायद ही कोई सफल हो सकेगा, इसलिए मैं कुछ ज़्यादा ही बड़े इनाम का ऐलान करने को तैयार थी। पर बच्चों ने बड़े इनाम की मेरी इस घोषणा पर ऐसा ताज्जुब दिखाया कि मैंने बदलकर पाँच रुपए के सिक्के को इनाम बनाने का निर्णय लिया जो मेरी जेब में पड़ा हुआ था। और कुछ मिनिटों बाद एक बच्चे को सफलता मिल गई। मुझे यकीन है कि 5 रुपए का इनाम इस सफलता के लिए ज़रूरी नहीं था।
किताब के निर्देशों में संशोधन
इस मौके पर एक और शिक्षिका वहाँ आ पहुँचीं और मैंने उन्हें बताया कि किताब में दिए गए निर्देश किस तरह से त्रुटिपूर्ण हैं, पर उसके बावजूद कुछ बच्चे उन खिलौनों को ठीक से बना ले रहे थे। उन शिक्षिका ने सुझाया कि हम बच्चों के लिए कुछ ऐसे खिलौने जोड़ दें जिनका अनुसरण करना आसान हो। मैं राज़ी हो गई, और हमने एचबीसीएसई द्वारा प्रकाशित ‘स्मॉल साइंस’ किताबों में दिए गए विज्ञान के दो और खिलौनों - पवनचक्की जिसका सन्तुलन पेंसिल के सिरे पर होता है, और एक नए प्रकार की नाव जो बच्चों ने शायद पहले कभी न देखी हो - को बच्चों से बनवाने के लिए उनके कुछ दोषमुक्त निर्देशों को पोस्टर स्टैंड पर चिपका दिया।
बहुत सारे बच्चों ने जल्दी से पवनचक्की बना दी। एक लड़के की पवनचक्की निर्देशों वाले चित्र में बनी पवनचक्की से अलग दिख रही थी। सामने बैठी लड़की की पवनचक्की एकदम चित्र वाली पवनचक्की जैसी थी। मैंने बच्चों से कहा कि वे पता लगाएँ कि दोनों पवनचक्कियों के बीच क्या अन्तर है, और उनमें से कौन-सी पवनचक्की किताब वाली पवनचक्की जैसी है, और निर्देशों में ऐसा कौन-सा चरण था जो अलग ढंग से किया गया जिससे दूसरे ढंग की पवनचक्की बनी - बच्चों के लिए सीखने का एक और मौका।
अन्तर समझने के लिए परीक्षण
फिर मैंने आसपास इकट्ठा हुए बच्चों से पूछा कि उन दोनों पवनचक्कियों में से कौन-सी ज़्यादा तेज़ी से घूमेगी। यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि कुछ बच्चों ने उन पवनचक्कियों को हाथ में लेकर और चलाकर देखने के बाद अपने उत्तर दिए, जबकि अन्य बच्चों ने बस सीधे-सीधे उत्तर दे दिया, “वह वाली” और कुछ का जवाब था, “मुझे नहीं पता”। मैंने उनसे अपने उत्तर को सही ‘साबित’ करने को कहा। जहाँ कुछ बच्चों को कोई अनुमान नहीं था कि अपने उत्तर को किस तरह ‘साबित’ किया जाए (या उन्हें यह समझ नहीं आया होगा कि मैं क्या पूछ रही थी), कुछ अन्य बच्चों ने अलग-अलग तरह के परीक्षण करने की कोशिश की। कुछ को अनपेक्षित परिणाम मिले। कुछ को यह समझ में आया कि पवनचक्कियों की गति को मापना या उसका आकलन करना आसान नहीं है। उनके लिए सीखने का एक और मौका।
एक लड़की मेरे पास आई और एक नया कागज़ का टुकड़ा माँगने लगी। मैंने उससे फेंक दिए गए मुड़े कागज़ों में से कोई टुकड़ा लेने को कहा। “कागज़ क्यों बरबाद करना?” मैंने उससे कहा, और फिर हमने कागज़ और पेड़ों पर बातचीत की। सीखने का एक और मौका? या सिर्फ एक नैतिक भाषण?
इस बीच कुछ दूसरे बच्चे पंखे के नीचे हवा से चलने वाली अपनी नावों के साथ खेल रहे थे। वे एक-दूसरे को यह अनुमान लगाने की चुनौतियाँ दे रहे थे कि उनकी नावें किस तरफ मुड़ेंगीं। इससे उन्हें अपनी नावों की पालों में छोटे-मोटे सुधार करने का मौका मिला ताकि उनकी नावें यहाँ-वहाँ मुड़ सकें। उनके लिए सीखने का एक और मौका।
हो सकता है आप मेरी आलोचना करें कि मैंने बेहतर ढंग से चीज़ों की योजना नहीं बनाई और मैंने पूरी तरह से जाँची-परखी किसी ऐसी गतिविधि को नहीं चुना जिसके ‘सफल’ होने का मुझे भरोसा होता। आप यह भी सोच सकते हैं कि मैं अपने आलस्य को तर्कों से ढाँकने की कोशिश कर रही हूँ। पर ज़रा सोचिए कि बारीकी के साथ योजना बनाने और पहले से जाँच-परख कर लेने की बजाय क्या इस ढंग से इस काम को करने का यह अनुभव ज़्यादा दिलचस्प साबित नहीं हुआ? क्या बच्चे इस बात से वाकिफ नहीं हो रहे थे कि दरअसल विज्ञान है क्या और उसके क्या-क्या पहलू होते हैं - सवाल पूछना, जवाब ढूँढ़ने की कोशिश करना, परीक्षण करना, अनुमान लगाना, गलती कर-करके सीखना, संवाद करना, चीज़ों का अवलोकन करना, इत्यादि?
कैरन हैडॉक: पिछले पच्चीस सालों से भारत में शिक्षाविद्, चित्रकार और शिक्षक के रूप में काम कर रही हैं। बहुत-सी चित्रकथाओं, पाठ्यपुस्तकों और अन्य पठन सामग्रियों का सृजन किया है और उनमें चित्र बनाए हैं। वर्तमान में होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन, मुम्बई में कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता की पढ़ाई। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। गाज़ियाबाद में निवास।