लेखक: मोहन देशपांडे
अनुवाद: माधव केलकर [Hindi PDF, 327 kB]
किशोरावस्था की दहलीज़ पर खड़े किशोरों को लैंगिकता की शिक्षा देना चाहिए या नहीं, इस वक्त हमारे देश में यह एक प्रमुख सवाल बना हुआ है। हालाँकि, कई लोग अब यह मानने लगे हैं कि लैंगिकता स्कूली पाठ्यक्रम का एक विषय होना चाहिए, पर इससे भी बड़ा सवाल है कि आखिर यह किस तरह या किस रूप में किशोरों तक पहुँचनी चाहिए।
बात को अपने देश तक ही सीमित रखा जाए तो यह तकरीबन 22 करोड़ लोगों की शिक्षा का सवाल है। सिर्फ स्कूल जाने वाले ही नहीं बल्कि स्कूल न जाने वाले लड़के-लड़कियों को भी यौन शिक्षा की नितान्त ज़रूरत है।
मोहन देशपांडे ने अपने दो दशकों के अनुभवों के आधार पर लैंगिकता संवाद शिविरों का खाका तैयार किया है जिस पर उनकी कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं। इन शिविरों की खास बात है कि ये सभी किशोरों के लिए खुले हैं, साथ ही, यहाँ प्रजनन अंगों की जानकारी के अलावा लैंगिकता सम्बन्धी संवाद पर विशेष ज़ोर दिया जाता है। ‘आभा समूह’ किस तरह लैंगिकता संवाद करता है, उसकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत की गई है।
आभा (आरोग्य भान) के दो-तीन कार्यकर्ता मिलकर कार्यशाला का संचालन करते हैं। कार्यशाला आम तौर पर ढाई-तीन दिन तक चलती है। कार्यशाला की शुरुआत में सबका स्वागत करते हुए ही यह बता दिया जाता है कि भाषण-लेक्चर वगैरह नहीं दिए जाएँगे, यहाँ हमें आपस में बातचीत करनी है। लैंगिकता संवाद के बारे में थोड़ी जानकारी भी दी जाती है। खास बात है कि शु डिग्री से अन्त तक कार्यशाला के सभी सत्रों के दौरान किशोर-किशोरियाँ साथ-साथ ही रहते हैं।
कार्यशाला का विधिवत उद्घाटन किया जाता है लेकिन दीप जलाना, फूल-माला, नारियल फोड़ना जैसे आडम्बरों के बिना। सबको एक जगह इकट्ठा करके यह कहा जाता है कि आपको मिलकर एक जीते-जागते इन्सान की आकृति बनानी है - जो हिलता है, डोलता है, बोलता है, गाता है। यह सुनकर थोड़ी देर तक तो सन्नाटा छाया रहता है लेकिन उसके बाद दो-चार लड़के-लड़कियाँ आगे आकर मोर्चा सँभालते हैं। धीरे-धीरे विविध आकृतियाँ दिखाई देने लगती हैं - कभी फूल, कभी स्वास्तिक, तो कभी कुछ और। आकृतियों को बनाने में हाथों और पैरों का भी इस्तेमाल होता है। कभी-कभी आकृतियाँ बनाते हुए लड़कियाँ बीच में और उन्हें घेरकर गोला बनाए हुए लड़के होते हैं, तो कभी लड़कों व लड़कियों की एक-एक कतार होती है। धीरे-धीरे यह समूह गोल-गोल घूमने और थिरकने लगता है। इसी समय हमारा ढोलक भी लय पकड़ने लगता है। इस तरह वर्कशॉप का मिल-जुलकर उद्घाटन किया जाता है। ऐसी शुरुआत से ही लड़के-लड़कियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो जाती है।
इसके बाद गीत गाए जाते हैं। इसके लिए आवाज़ साधने की कुछ गतिविधियाँ होती हैं। कुछ लड़कों का ज़ोर से चिल्लाने का मन होता है। इसके लिए ज़ोर से चिल्लाने का एक आयोजन भी करते हैं। जो आवाज़ तीव्र थी वो किस तरह सुरीली-सधी हो सकती है इसके भी उदाहरण पेश किए जाते हैं। कुल मिलाकर कार्यशाला के दौरान हम कई सारे गीत गाते हैं। और ऐसे में हर बार कुछ नए गीतों का सृजन भी हो जाता है।
अब आपस में औपचारिक परिचय का दौर होता है। अपना परिचय देते हुए अपने नाम के साथ, अपनी माँ का नाम बताना होता है। हमारा आग्रह होता है कि अपना सरनेम यानी उपनाम या पिता का नाम मत बताइए। इस तरह के परिचय पर थोड़ी चर्चा भी होती है। कई लड़के-लड़कियों को यह नवाचार बेहद पसन्द आता है क्योंकि आम तौर पर हमें अपनी माँ का नाम बताने के मौके काफी कम ही मिलते हैं, साथ ही उपनाम का सम्बन्ध प्राय: जाति से ही होता है।
माँ के शरीर से रिश्ता
हम एक पहेली के रूप में पूछते हैं कि आपके शरीर पर अपनी माँ के साथ रिश्ते का एक स्थाई निशान आज भी मौजूद है, वो क्या है? कुछ जवाब आने शुरू होते हैं। नाभि ही वह चिन्ह है, अन्तत: यह सबको पता चल जाता है।
आम तौर पर किशोर-किशोरियों को इन्सानी शरीर के बारे में बहुत कुछ तो मालूम ही होता है लेकिन फिर भी चित्रों और गीतों के मार्फत शरीर के विविध अंगों और अंग-तंत्रों के बारे में हम बातें करते हैं। लड़के-लड़कियों के कुछ समूह बनाकर उन्हें एक बड़े कागज़ पर इन्सानी शरीर के विविध अंगों का रंगीन रेखाचित्र बनाने के लिए कहा जाता है। कई समूह शरीर के विविध अंगों के साथ गर्भाशय भी दिखाते हैं। गर्भाशय को लेकर थोड़ा संवाद होता है। मसलन, यह हम सबका पहला घर है। यहाँ हम सब नौ महीने तक रहे हैं, उसके बाद हमारी पैदाइश हुई। इस संवाद के दौरान हम कुछ मराठी गीत भी गाते हैं।
मेरी पैदाइश
शरीर का ऐसा संगीतमय परिचय होने के बाद सभी को कागज़ देकर कहा जाता है कि वे अपनी-अपनी पैदाइश का चित्र बनाएँ। इस चित्र में अपनी पैदाइश से मुतअल्लिक कई बातें दिखाई जा सकती हैं; मसलन, तुम कहाँ पैदा हुए, घर में या अस्पताल में, पैदाइश के समय आसपास क्या था, कौन-कौन लोग थे, माँ कहाँ थी, तुम कहाँ थे, किस तरह आए, वक्त क्या हुआ था, आदि। हमारा ज़ोर इस बात पर होता है कि जो भी बताना है लिखकर नहीं, चित्र में ही दिखाना है। चूँकि इस तरह का चित्र लोगों ने शायद पहले कभी नहीं बनाया होता इसलिए पहले थोड़ी मुश्किल होती है लेकिन थोड़ी देर बाद काफी विविधता पूर्ण चित्र सामने आने लगते हैं। हरेक चित्र अपने-आप में एकदम फर्क होता है। जैसे माँ, बच्चा, बच्चे की नाल, दादी-नानी, दाई, डॉक्टर, झूला, चाँद-तारे, सूरज, घर-अस्पताल के बाहर पेड़, मिठाई बाँटते पिता, माथा पकड़कर बैठे पिता, बीड़ी पीते पिता, आँगन में नाचती हुई बहन आदि।
पैदाइश की जगह को लेकर भी विविधता है - किसी की बाँध पर, खेत पर, पेड़ के नीचे, बैलगाड़ी पर, जीप पर। बच्चों की पैदाइश में इतनी विविधता होती है, यह पहली बार मैंने इन चित्रों को देखकर ही जाना था। चित्रों को देखते समय इन पर कुछ चर्चा भी की जाती है। मैं पूछता हूँ, “पैदाइश के समय अमूमन हमारा आकार कितना था?” इस सवाल का जवाब लगभग सभी को मालूम होता है। फिर मैं अगला सवाल पूछता हूँ, “माँ के पेट में जब तुम पहले दिन आए, उस समय तुम्हारा आकार कितना था?” इस सवाल पर किशोर-किशोरियाँ उलझ जाते हैं। फिर उनसे कहा जाता है कि अन्दाज़ लगाकर जवाब दो। क्या बेर के फल के जितना, छुआरे के बराबर, मूँगफली जितना, अण्डे के आकार का...? कुछ जवाब आने के बाद उन्हें बताया जाता है कि जब आप माँ के पेट में आए थे तब पहले दिन आपका आकार खसखस के दाने के बराबर था। फिर उनके नौ महीने के सफर के बारे में काफी सारे चित्र-फोटो दिखाए जाते हैं। सभी लड़के-लड़कियाँ विस्मय से इन्हें देखते और समझते हैं।
यदि हम इतने महीने माँ के पेट यानी गर्भाशय में रहने वाले हैं, खाने-पीने वाले हैं, सोने वाले हैं तो यकीनी तौर पर माँ ने पहले से ही कुछ तैयारी करके रखी होगी। इस तरह की बात कहकर हम माँ की माहवारी, उसकी शुरुआत कैसे होती है जैसी बातों से चर्चा को शुरू करते हैं। इस बातचीत के दौरान लड़के-लड़कियों को शर्मिन्दा होने या निगाहें नीची करने की ज़रूरत नहीं होती (क्योंकि यह सारी चर्चा माँ के गर्भाशय तथा अपनी पैदाइश के लिए तैयारी के बारे में हो रही है)। माहवारी के दिनों में माँ को अलग बैठना पड़ता होगा, बन्दिशें निभानी पड़ती होंगी, यह सब माँ को कैसा लगता होगा - इस पर चर्चा की जाती है। एक दफा, चर्चा के दौरान एक लड़की ने बताया कि हमारे यहाँ यह सब अभी भी चल रहा है। यह उचित है या नहीं, इस पर भी चर्चा हुई। इस दौरान इतिहास और पुराणों की कहानियों पर भी नज़र डाली गई।
माँ के शरीर की तैयारी की बात करने के बाद पिता के शरीर की तैयारी की बात की जाती है। अब तक की चर्चा माता-पिता पर होने की वजह से लड़के-लड़कियों को किसी तरह का घिनापन वगैरह महसूस नहीं होता। बातचीत के प्रवाह में अण्डाणु और शुक्राणुओं का मिलन किस तरह होता है, यह भी बताया जाता है। इसे बताते हुए मैं यह भी बताता हूँ कि जब मुझे पता चला कि मेरे माता-पिता ने ऐसा कुछ किया था तो मुझे थोड़ा अजीब-सा महसूस हुआ था। लेकिन मैं तुरन्त यह भी बता देता हूँ कि इसमें अजीब लगने जैसा कुछ भी नहीं है। इसमें कुछ भी गन्दा, घृणित, अपवित्र या बुरा नहीं है। हम सभी की पैदाइश इसी तरह हुई है।
माँ के शरीर के बारे में महिला कार्यकर्ता और पिता के शरीर के बारे में पुरुष कार्यकर्ता बताएँ, इस तरह का विभाजन हमारी कार्यशाला में नहीं होता। सच पूछा जाए तो किशोर-किशोरियों को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता कि मुद्दे को कौन प्रस्तुत कर रहा है।
हम बड़े हो रहे हैं
इस सत्र के अगले चरण में हम, छोटे से बड़े होते हुए कब पता चलता है कि हम बड़े हो रहे हैं, और कौन इस तरफ ध्यान दिलाता है, इस पर चर्चा करते हैं। किस तरह हमारी पसन्द-नापसन्द बदलती है, साथी बदलते हैं, दोस्ती बनती है, बड़े लोग कुछ अजीब निगाहों से देखने लगते हैं। पड़ोस के चाचा का देखने का तरीका कुछ फर्क लगता है। टी.वी. के कुछ कार्यक्रम भाने लगते हैं, बड़े लोग टीका-टिप्पणी करते हैं, गलतियाँ खोजते हैं। “इतना बड़ा हो गया लेकिन कुछ समझता नहीं! अभी इतनी बड़ी नहीं हुई हो कि सब बातें समझ सको!” गणेश उत्सव, दुर्गा उत्सव में नाचने का मन करता है, साइकिल चलाना, तैरना, पहाड़ चढ़ना, प्रकृति में मन रमना, जमकर खाना, सिनेमा, फैशन, सजना-सँवरना, कैरियर, घर की ज़िम्मेवारियाँ स्वीकार करना आदि, कैसे हमारी रुचियाँ बदलने लगती हैं। इस सत्र के दौरान हम लोग ऐसे विविध प्रसंगों को पढ़कर सुनाते हैं और उन पर चर्चा करते हैं।
कुछ नवाचार
इस सत्र में हम बिना किसी प्रस्तावना के कुछ दृश्य प्रस्तुत करते हैं। इसके लिए हम अपने सहयोगियों के अलावा कुछ लड़के-लड़कियों को भी शामिल करते हैं। ये दृश्य या नाट्य-प्रसंग एक के बाद एक आते जाते हैं। इसके कुछ उदाहरण यहाँ दे रहे हैं।
1. लड़के-लड़कियाँ पिकनिक का लुत्फ उठा रहे हैं। एक लड़का बैठकर रंग-कूची से प्रकृति चित्रण कर रहा है। साथ पढ़ने वाली लड़की उसके पास आकर, कुछ दूरी पर बैठकर लड़के और कैनवास को बारी-बारी से देखती है। उसकी आँखों में प्रशंसा के भाव हैं। लड़की को न देखते हुए भी लड़के को यह सब बहुत अच्छा लग रहा है। लड़की चित्र को देखते हुए कहती है - बहुत खूब! ये पहाड़, ये दरख्त, ये पंछी.... लड़की यह कहते हुए वहाँ से चली जाती है और लड़का उसे जाता हुआ देखता रह जाता है।
2. एक लड़की डरी-सहमी हुई स्कूल से घर जा रही है। नुक्कड़ पर खड़े लड़के सीटी बजाते हैं, बीच में साइकिल लाते हैं, कुछ कहते हैं। लड़की किसी तरह राह बनाकर वहाँ से जल्दी-जल्दी चली जाती है। लड़के ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगते हैं।
3. टी.वी. पर सिनेमा देखती हुई दो सहेलियाँ। एक सहेली को शाहरुख खान पसन्द है। दूसरी कहती है ओह नहीं!
4. लड़के ने लड़की को मोबाइल से एसएमएस भेजा। फिर गज़ब की बेचैनी लड़के के चेहरे पर छाई है। क्या एसएमएस को बीच से ही लौटाया जा सकता है?
5. नाटक की रिहर्सल में शाम ढलकर अँधेरा हो चला है। लड़कियाँ परेशान हो जाती हैं। निर्देशन करने वाला लड़का दूर रहने वाली लड़की के घर फोन करके लड़की की माँ को धीरज बँधाता है और लड़की को घर तक पहुँचाने का ज़िम्मा लेता है। यह सब देखकर लड़की की आँखों में विश्वास, आस्था, तारीफ जैसे भाव दिखाई दे रहे हैं।
6. कक्षा में लड़का एक लड़की को टकटकी लगाए देख रहा है। पढ़ाई में ध्यान नहीं है। मैडम कोई सवाल पूछती हैं, जिसका जवाब वह नहीं दे पाता...।
7. मैडम कक्षा में वनस्पतियों के प्रजनन के बारे में बता रही हैं। एक थोड़ी बड़ी उम्र का लड़का डेस्क के नीचे मुँह छुपाकर बन्दर जैसी हूप..हूप आवाज़ करता है।
8. स्कूल में अचानक माहवारी आने की वजह से बदहवास-सी लड़की। साथ की सहेलियाँ उसे घेरकर, उसे सहज होने में मदद कर रही हैं। लड़के सिर्फ चुप्पी साधे देख रहे हैं।
9. स्कूल में लंच ब्रेक के दौरान लड़कियों के बस्ते लड़कों की बेंच पर रखता हुआ लड़का..... बाद में लड़कियाँ हड़बड़ी में अपने बस्ते खोजने लगती हैं। ...... लड़कियों का गुस्सा।
10. एक लड़के ने नोटबुक में छुपाकर रखी तस्वीर निकाली। पीछे की बेंच पर बैठे लड़के वह तस्वीर देख रहे हैं ...... लड़के उत्तेजित होकर चिल्ला रहे हैं।
हरेक सीन को दिखाने के बाद उस पर कई तरह की चर्चाएँ भी करते हैं। अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों से जोड़कर कई बातें सामने आती हैं।
कई दफा हम लोग तीस-चालीस तस्वीर ज़मीन पर रखते हैं। ये तस्वीरें लैंैगिकता सम्बन्धी होती हैं। किशोर-किशोरियाँ उन तस्वीरों के चारों ओर एक-दो चक्कर लगाकर एक-एक तस्वीर चुनकर उसे उठाते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि ये तस्वीरें पोर्नोग्राफिक या अश्लील नहीं होतीं। अब एक-दो मिनट में उस लड़के या लड़की को यह बताना होता है कि उस तस्वीर को ही क्यों चुना, उस तस्वीर में क्या बताया गया है आदि।
इसके बाद एक-एक करके मुद्दे उभरकर सामने आते जाते हैं। हरेक मुद्दे की शुरुआत खुद के अनुभवों के साथ होती है। जानकारी भी दी जाती है लेकिन इसके लिए खुली चर्चा, छोटे समूहों में चर्चा, अनुभवों को लिखना और उनका सामूहिक पठन, चित्रकथा के रूप में मुद्दों को उभारना जैसी कई विधाओं का इस्तेमाल किया जाता है।
अगले सत्र में हम पहले से तयशुदा कुछ मुद्दों को लेते हैं। जैसे-
- किशोरावस्था में मानसिक तनाव (खासकर लैंगिकता सम्बन्धी)।
- मूल्यों का संघर्ष (लैंगिक भेदभाव)।
- खूबसूरती, आत्ममुग्धता और दूसरों से तुलना।
- प्यार, दोस्ती और आकर्षण।
इस उम्र के तनाव और उनसे पार कैसे पाना है, इससे सम्बन्धित सत्र काफी शानदार होता है। जिन वजहों से तनाव होता है उनके चित्र बनाए जाते हैं। मसलन, चेहरे पर मुँहासे, काला रंग, माहवारी और उसी दौरान तीज-त्यौहार या परीक्षा, अश्लील एसएमएस, फोन कॉल्स, दीवार पर किसी लड़के के साथ अपना नाम लिखा होना, इक तरफा प्यार... जैसे अनेक विषयों पर छोटे-छोटे राइट-अप लिखे जाते हैं।
तनाव कितना है?
किसी भी लड़की को सामने बुलाकर उससे पूछा जाता है कि उसे किस प्रकार के मानसिक तनाव हैं। फिर एक-एक तनाव सामने आने पर सबकी सहमति से हर तनाव के लिए एक-एक सामान सिर पर, कन्धों पर, हाथ पर रखते जाते हैं। थैलियाँ, किताबें, बोतल, कॉपियाँ, चादरें जैसी चीज़ों से लड़की को लगभग लाद दिया जाता है। एक सामान यानी एक तनाव। यदा-कदा लड़की के सिर पर प्लास्टिक की कुर्सी तक रख दी जाती है।
इस सत्र में खुद को लेकर अनेक मुद्दों पर काफी खुलकर और सहजता से बातचीत हो पाती है, जैसे खुद के रंग, दाग-धब्बे, मुँहासे, नाटापन, दूसरों की तुलना में खुद का शारीरिक विकास जल्दी या देर से होना, खुद की शारीरिक कमियों को लेकर तनाव।
इस बातचीत के दौरान हम किशोर-किशोरियों को बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति सवाल सबके सामने न पूछना चाहे तो अपना सवाल लिखकर प्रश्न बॉक्स में डाल सकता है। नाम आदि का उल्लेख न करते हुए हम सिर्फ सवाल ही सबके सामने रखते हैं। हमारी कोशिश होती है कि हम सभी सवालों के जवाब दे पाएँ।
खुद के बारे में धारणाएँ, खूबसूरती, दूसरों से तुलना जैसे मुद्दों से सत्र में एक नई जान आ जाती है। यह मुद्दे काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे ही मान-अपमान, हीन भावना, अतिरिक्त आत्म विश्वास, आक्रामकता, तुच्छता, दबंगई, शर्म, कलात्मकता, क्षमता दिखाने के मौके मिलना या न मिलना जैसी अनेक बातें जुड़ी होती हैं।
दोस्ती, निकटता, प्यार, आकर्षण, मुँहबोले रिश्ते और इनमें निहित अन्तर भी सामने आना ज़रूरी हैं। नाते-रिश्तों में मौजूद खुशी, सन्तोष, निहित मूल्य के बारे में भी हम चर्चा करते हैं। इसी सन्दर्भ में रिश्तों के साथ ज़िम्मेवारियाँ भी अहम स्थान रखती हैं, स्पष्ट हो जाता है। प्यार में भरोसा, फिक्र, आकर्षण, जवाबदेही, दीर्घकालीन रिश्ते का विकास जैसे अनेक उद्देश्य होते हैं। इसके लिए काफी तैयारी की ज़रूरत होती है। जिस तरह शरीर का विकास होता है उसी तरह मन भी विकसित होता जाता है, उसे भी समय और आराम देना चाहिए। जल्दबाज़ी में यह सब नहीं हो सकता, आखिर आपका रिश्ता एक इन्सान से बन रहा है न कि किसी सामान से।
दीपिका की चित्रकथा
इस चित्रकथा को प्रस्तुत करने से पहले किसी किस्म की भूमिका नहीं बाँधी जाती। दीवार पर टाँगी गई चुनरी पर एक के बाद एक विविध चित्र आते हैं और चित्रों के साथ ही हमारी कार्यकर्ता एक कहानी बताती जाती है। कहानी कुछ इस प्रकार है।
दीपिका नाम की एक लड़की है। उम्र 10-12 साल की होगी। दीपिका का यौन-शोषण उसका सगा चाचा करता है। इस कहानी में यौन-शोषण के बारे में खुलासा नहीं है, लेकिन दीपिका का डर, धमकियों से सहम जाना, खामोशी, ज़बरदस्त तनाव, पढ़ाई-खेल बन्द हो जाना... और आखिर में साहस जुटाकर माँ को यह सब बता पाना, उसकी मानसिक स्थिति को दर्शाते हैं। ...माँ के सामने भी कई सवाल खड़े हैं...।
फिर इस कहानी पर विस्तार से चर्चा होती है। विविध विचार, निदान सामने आते हैं। कुछ लड़के काफी उत्तेजित होकर, गर्म मिज़ाजी से भी बात करते हैं, तो कुछ दफा काफी समझदारी से बातचीत करते हैं। सभी किशोर (लड़के भी) दीपिका के पक्ष में खड़े दिखते हैं। कुल मिलाकर इस कहानी के मार्फत लड़के-लड़कियों में यौन-शोषण को लेकर संवेदनशीलता निर्मित होती है। सभी सवालों के जवाब यहाँ मिलेंगे ही, ऐसा नहीं है। लेकिन सोचने की प्रक्रिया तो शु डिग्री हो ही जाती है। इस दौरान हम यह भी बताते हैं कि लड़कों का भी यौन-शोषण हो सकता है।
यौन-शोषण पर कुछ नाटक
कार्यशाला के दौरान यौन-शोषण पर हम कुछ नाट्य प्रस्तुतियाँ करते हैं। ऐसी ही एक कार्यशाला का किस्सा मुझे याद आ रहा है। इस कार्यशाला में नाटक के दौरान एक लड़की (जिसका वास्तव में यौन शोषण हुआ था) ने शोषणकर्ता पुरुष (यह रोल उसकी सहेली ने किया था) को सचमुच में ऐसा ज़ोरदार तमाचा मारा कि पुरुष का रोल निभाने वाली लड़की दर्द से बिलबिलाकर रोने लगी। यौन-शोषण के खिलाफ भावनाएँ इतनी तीव्र होती हैं, यह हम सबने उस वक्त महसूस किया था।
किसी गाँव में आयोजित कार्यशाला में लड़के-लड़कियों ने बस का सीन बनाया था। बस में चढ़ने वाला एक बुज़ुर्ग, स्कूल जाने वाली लड़की से सटकर बैठ जाता है। फिर उसकी तारीफ करते हुए लड़की का हाथ अपने हाथ में लेकर कहता है, “मैं तुम्हारा चाचा हूँ। किसी तरह की मदद की ज़रूरत हो तो बताना...” वगैरह। वो लड़की तुरन्त खड़ी होकर ऊँची आवाज़ में कहती है, “चाचाजी प्लीज़, आप ज़रा दूर हटकर तरीके से बैठिए।” बस में सवार दूसरी सवारियाँ और कंडक्टर इस ओर देखने लगते हैं। कुछ और लोग मुद्दा समझते हैं, और चाचाजी को ज़बरदस्ती बस से उतार देते हैं। इस नाटक का नाम रखा गया था - ‘धूर्त चाचा’।
इन नाटकों के लिए लड़के-लड़कियाँ मिलकर तैयारी करते हैं, रिहर्सल करते हैं। नाटक का मंचन होने के बाद सभी दो मिनट आँखें मूँदकर बैठते हैं। सभी से अपने-अपने रोल से बाहर आने के लिए कहा जाता है। नाटक के बाद कोई किसी को चिढ़ाएगा नहीं, यह भी तय किया जाता है। इतना होने के बाद नाटक पर खुलकर बातचीत हो पाती है। यौन-शोषण का मुद्दा लड़कियों से काफी जुड़ा होता है। बार-बार यह विचार उभरता है कि पुरुषों को भी तो कोई यह ठीक से समझाकर बताए।
इंटरनेट पर कुछ बुज़ुुर्ग किशोरियों की भावनाओं से खेलते हैं, उन्हें फाँसते हैं, ब्लैकमेल करते हैं। ऐसी ही एक लड़की की कहानी हम लोग आजकल बताते हैं। कई बार बातचीत के दौरान लड़की को दोषी ठहराया जाता है। पर ऐसी चर्चा में बुज़ुर्ग सही-सलामत बरी हो रहे हैं, यह याद दिलाना पड़ता है।
कम उम्र में किसी से प्यार की अनुभूति के बाद कोई लड़की किसी लड़के के साथ घर छोड़कर भाग जाती है। इसके बाद क्या होता है, क्या-क्या हो सकता है, इसको आधार बनाकर एक कहानी सुनाकर उस पर भी चर्चा करते हैं। हमारा यह अनुभव है कि लड़के-लड़कियों के समूह ऐसी चर्चा में काफी संवेदनशीलता से शिरकत करते हुए एक अहम निष्कर्ष तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।
फुटपाथ पर पलने-बढ़ने वाले बच्चों के साथ एक कार्यशाला के दौरान हमने दो प्रसंग सुनाए थे, उन्हें यहाँ दोहरा रहे हैं।
एक: “हमारा छोटे बच्चों का समूह है। उनमें मैं ही सबसे बड़ी हूँ। हम सड़क पर खेलते हैं, छोटी-छोटी चीज़ें बेचते हैं, थोड़ा पैसा कमाते हैं और झगड़ते भी हैं। हमारी एक संस्था भी है। जब टाइम मिलता है, तब पढ़ने को जाते हैं। वहाँ की सुनीता दीदी बहोत... यानी बहोत ही अच्छी है। वो कभी मारती नहीं है। मेरे को बड़े बच्चे अच्छे नहीं लगते हैं। लेकिन आजकल एक सचिन नाम का बड़ा लड़का बहुत अच्छा लगता है। वो मेरे को रिबिन लाकर देता है, मिठाई देता है, सेंट भी देता है। एक दिन उसने मुझे कहा कि तू सुन्दर है री। मेरे को प्यार हो गया है तुझसे। मुझे बहुत अच्छा लगा। वो थोड़ा शाहरुख जैसा दिखता है। कल उसने कहा, हम यहाँ से भागते हैं, शादी करते हैं। .... मुझे सुनीता दीदी याद आ रही है।”
-- क्या सचिन का प्यार सच्चा है?
-- मुझे क्या करना चाहिए?
दो: “रमेश की सोने की अपनी स्पेशल जगह है, स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर दो पर। वो कहीं भी जाता है तो रात को उधरीच आ के सोता है। एक नम्बर पे जो एक दुकान है, उसमें काम करने वाला मधु एकदम हरामी है। एक दिन वो रात को रमेश के बाजू में आकर सो गया। दूसरे दिन वो और करीब आकर सो गया। तीसरे दिन उसने रमेश के साथ गन्दा काम करना शु डिग्री किया।”
-- ऐसे में रमेश को क्या करना चाहिए?
सामूहिक चर्चा
नाते-रिश्तों पर गहराई से पड़ताल के लिए समूह चर्चा एक अच्छा माध्यम है। कुछ सवाल, समस्याएँ और प्रसंग सबके सामने रखे जाते हैं। समूह से कहा जाता है कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित, यह आप ही तय करो। इसके लिए आपस में बातचीत कर सकते हैं, अपने विचार साझा कर सकते हैं। जो भी बातचीत हुई उसका सारांश बाद में प्रस्तुत करना है। इतना कहकर समूह चर्चा शु डिग्री होती है।
समूह चर्चा के लिए विविध विषय हो सकते हैं, बतौर उदाहरण उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं।
-- मर्द को माँ-बहन की गालियाँ आनी ही चाहिए।
-- लड़कियों को उपभोग के सामान के नज़रिए से देखता हूँ। यह मेरी गलती है।
-- मिनीस्कर्ट वाली लड़की उपलब्ध होती है।
-- हम जो कहें उसे बीवी या सहेली को करना ही चाहिए।
-- जब हमारे माता-पिता या करीबी, ‘ऐसा मत करो’ कहते हैं तो हमें उस बात पर विचार कर लेना चाहिए।
-- दो लड़के एक ही लड़की से प्यार करते हैं। उनमें से एक त्याग करते हुए लड़की को दूसरे के हवाले कर देता है। इस पर आपकी क्या राय है?
-- तुम्हारी बहन की शादी 16 साल की उम्र में तय कर दी जाती है। छोटे भाई होने के नाते आप क्या करेंगे? बड़े भाई होने के नाते क्या बताएँगे?
-- ज़िन्दगी में प्यार का रिश्ता काफी महत्वपूर्ण है क्या?
-- कॉण्डोम का इस्तेमाल करते हुए किसी के भी साथ कितनी ही बार शारीरिक सम्बन्ध बनाए जा सकते हैं।
-- हम खुद के शरीर से इतना प्यार करते हैं फिर भी गुटखा, तम्बाकू, सिगरेट, शराब की लत क्यों पालते हैं?
-- हम जिन मूल्यों को सहेजते हैं उन्हें हिलाने का काम हमारे दोस्त करते हैं। ऐसे कुछ उदाहरण दीजिए।
-- हम जिन मूल्यों को सहेजते हैं उन्हें दोस्त-साथी मज़बूती देते हैं। ऐसे कुछ उदाहरण दीजिए।
-- मेरा रंग काला है...। इसमें मेरा क्या दोष है?
-- मेरी गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड नहीं है। मैं पढ़ाकू हूँ... लेकिन कम आकर्षक।
-- मैं हस्तमैथुन करता हूँ... मुझे काफी पछतावा होता है। मैं क्या करूँ?
-- मुझे गालियाँ देना नहीं आता, मुझे गालियाँ घृणास्पद लगती हैं। सब दोस्त मुझे नामर्द कहते हैं। मैं क्या करूँ?
आभा कार्यशाला का समापन एक बार फिर गीत-संगीत के साथ होता है। इसमें सभी ज़ोर-शोर से शिरकत करते हैं।
कार्यशाला - कुछ और पहलू
लेख समाप्त करने से पहले लैंगिकता के मुद्दे पर कुछ और कहना बाकी रह गया है।
जो कुछ हम कार्यशाला में कर पाते हैं हमारी वही अपेक्षा शिक्षकों से भी होती है कि वे कक्षा में ऐसा कुछ कर सकें। आम तौर पर शिक्षकों का कहना होता है कि आप जो कुछ कहते-बतलाते हैं, उससे हम सहमत हैं। लेकिन यह सब कक्षा में विद्यार्थियों तक किस तरह पहुँचाया जाए? यह इतना सहज नहीं है, हमें काफी तनाव होता है, पालक क्या कहेंगे, कक्षा में हमारी छवि का क्या होगा... आदि, आदि।
शिक्षकों के साथ एक कार्यशाला हमने बेलगाँव के स्कूल में की जिसमें विद्यार्थी भी थे। सभी चर्चाओं में छात्र-शिक्षक समान रूप से एक साथ शामिल थे। इस कार्यशाला के बाद शिक्षक भी किशोरों के मनोविज्ञान एवं व्यवहार को करीब से जान पाए।
एक मुद्दा है समलैंगिक सम्बन्धों का। अभी तक हमारी ओर से इस बारे में कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाई है। एक किस्म का दबाव भी हो सकता है हम पर कि एक तरफ लैंगिकता पर किशोरों से संवाद बन ही रहा है अभी, कहीं वह टूट न जाए। फिलहाल, हम सिर्फ इसका ज़िक्र करके आगे बढ़ जाते हैं। इसी तरह वैश्यावृत्ति के व्यवसाय पर भी विस्तार से बातचीत होनी चाहिए। विविध तरह से सक्षम बच्चे (विकलांग, मानसिक मन्द), फुटपाथ पर पलने-बढ़ने वाले बच्चे अभी भी हमारे लैंगिकता संवाद के घेरे से बाहर ही हैं।
शायद एक सबसे ज़रूरी काम है लैंगिकता संवाद की ज़रूरत के पक्ष में जनमत तैयार करना। इसके लिए पालकों के साथ लैंगिकता संवाद की कार्यशाला करनी पड़ेगी। यह सारा काम जो अब भी बाकी रह गया है, हमें और आपको मिलकर ही तो करना है।
मोहन देशपांडे: पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा समय से स्वास्थ के मुद्दों पर कार्यरत हैं। वर्तमान में ‘द फाउंडेशन फॉर रिसर्च इन कम्यूनिटी हैल्थ (क़ङक्क्त)’ में सीनियर रिसर्च ऑफीसर के रूप में कार्यरत हैं। साथ ही, आरोग्य भान (आभा) समूह के साथ काम कर रहे हैं।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध।
सभी चित्र एवं फोटोग्राफ: आभा समूह।
मूल लेख ‘पालकनीति’ के अंक, सितम्बर-अक्टूबर 2009 से साभार।