कमलेश चन्द्र जोशी                                                                                                                                       [Hindi PDF, 879 kB]

दिशा नवानी मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ के शिक्षा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी रुचि के क्षेत्र भाषा शिक्षणशास्त्र, बाल साहित्य, सामाजिक अध्ययन शिक्षणशास्त्र, सामग्री विकास आदि हैं। पिछले दिनों उनके देहरादून प्रवास के दौरान कमलेश चन्द्र जोशी ने बाल साहित्य से जुड़े कुछ मुद्दों पर उनसे बातचीत की थी। इस बातचीत को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।

बाल साहित्य पर चर्चा की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि हमें यह समझना पड़ेगा कि पश्चिम में बाल साहित्य का विकास उस समय व्याप्त बचपन की अवधारणा के सन्दर्भ में हुआ और जैसे-जैसे बचपन की अवधारण में बदलाव आए उसके अनुसार ही बाल साहित्य में भी बदलाव आए। पहले वहाँ बच्चों पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था। इस कारण उनको बहुत ध्यान में रखकर पुस्तकें नहीं लिखी गईं। फिर इस ख्याल ने ज़ोर पकड़ा कि बच्चों के दिमाग में बुरे विचार चलते रहते हैं। इन विचारों को दूर करने के लिए उनकी पुस्तकें धार्मिक व नैतिक उपदेशों को ध्यान में रखकर लिखी जाने लगीं। यह प्रयास किया गया कि उन्हें इसके माध्यम से आदर्शवादी व सामाजिक बनाया जाए। इस प्रकार देखें तो बाल साहित्य के इतिहास का कोई साफ लेखा-जोखा नहीं है। यहाँ इस बात को समझना पड़ेगा कि जिस तरह बच्चों व बचपन को देखा-समझा गया, उसी तरह की किताबें लिखी गईं। इसका असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ा। भारत में भी इस तरह का खूब साहित्य लिखा गया।

लेकिन जब धीरे-धीरे बच्चों के बारे में सोच बदली तो उसी के अनुसार बच्चों के लिए लिखने के बारे में सोच भी बदली। वर्तमान में बाल साहित्य का उद्देश्य यह नहीं है। हमें यह समझना है कि बच्चों के मानसिक विकास के विभिन्न चरण होते हैं। उनका अपना अनुभव होता है। इसके साथ यह ज़रूरी है कि बच्चों के साहित्य में उनके प्रश्नों व अनुभवों को गहराई से जगह दी जाए। आज के बाल साहित्य में हम बच्चों के लिए लेखन में विस्थापन, विभाजन, साम्प्रदायिक हिंसा, मृत्यु आदि विषयों को भी शामिल करते हैं। ये चीज़ें कहीं-न-कहीं बच्चों के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। बच्चे उनसे जूझते हैं। लेकिन इन अनुभवों का लेखन एक सन्दर्भ में व बच्चों की उम्र के अनुसार किया जाना चाहिए जिससे वे जुड़ सकें, महसूस कर सकें। इसके साथ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि बच्चों के लिए लेखन में बच्चों का नज़रिया झलके। अकसर होता यह है कि बच्चों के लिए लिखा ज़रूर जाता है लेकिन नज़रिया बड़ों का रहता है। इस तरह की सामग्री की बाज़ार में भरमार है।

बच्चों पर टीवी, इंटरनेट आदि के प्रभाव पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि इसका प्रभाव बच्चों पर ज़रूर पड़ा है, लेकिन इसके लिए हमें माता-पिता की भूमिका को भी थोड़ा समझना पड़ेगा। आगे उन्होंने मुम्बई के कुछ स्कूलों के साथ अपने अनुभव का हवाला देते हुए बताया कि उनके शोध में यह बात उभरी है कि जो बच्चे किताबों में रुचि रखने वाले थे, उनके घर का माहौल भी वैसा ही था। बच्चों के माता-पिता भी खुद किताबें पढ़ते थे। उनकी पुस्तकों में रुचि थी। वे अपने बच्चों के लिए नई-नई किताबें लाते थे। बच्चों के साथ मिलकर किताबें पढ़ते थे। उनसे किताबों पर बातचीत करते थे। उन्हें किताबों की दुकानों पर ले जाते थे। इस कारण बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास हुआ। उनकी पढ़ने में रुचि बनी।

इस शोध में यह भी देखने को मिला कि बच्चों की पुस्तकों में रुचि जगाने में शिक्षकों की भूमिका बहुत गहरी नहीं थी। शिक्षकों का मानना था कि बच्चों में किताबों की रुचि जगाने की ज़िम्मेदारी घर पर उनके माता-पिता की है। मैं ऐसा नहीं मानती। इसकी ज़िम्मेदारी स्कूल की होनी चाहिए। इन कारणों के चलते आपने देखा होगा कि अधिकतर सरकारी स्कूलों के पुस्तकालय ढंग से काम नहीं करते। इनके लाइब्रेरियन अधिकतर किताबों का लेखा-जोखा भर रखते हैं या कभी-कभार किताबों का लेन-देन कर लेते हैं। जबकि उन पर बच्चों को अच्छी किताबों के बारे में बताने व उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़िम्मेवारी होनी चाहिए। परन्तु ज़्यादातर शिक्षक अकसर अपनी कक्षा में इस तरह की पहल से कटते रहते हैं। ऐसी पहल गिने-चुने शिक्षक ही करते होंगे। सरकारी स्कूलों में तो खैर, अभी इतनी सुविधाएँ ही नहीं हैं। इन सब कारणों से ही स्कूल में पुस्तकें पढ़ना व पुस्तकालय सह-पाठ्यगामी गतिविधियों में ही आती हैं। दरअसल, शिक्षकों को अपनी भूमिका को ज़्यादा गहराई से समझना चाहिए। बच्चों को तरह-तरह की पुस्तकें उपलब्ध करानी चाहिए, उन्हें पढ़ने के मौके उपलब्ध कराने चाहिए। यह काम विद्यालय में भाषा की कक्षाओं में आसानी से शुरू किया जा सकता है।

बच्चों की किताबों में किस कहानी को आप एक अच्छी कहानी कहेंगी? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि देखिए, हर कहानी की एक लय होती है जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती है। उनमें पढ़ने का उत्साह जगाती है। यह किसी घटना के द्वारा या किसी चरित्र के वर्णन या किसी सन्दर्भ के ज़रिए हो सकता है, जिससे पाठक जुड़ने का प्रयास करता है। इसके साथ किताब की भाषा को भी देखा जाना चाहिए क्योंकि अकसर हम समझते हैं कि बच्चों के लिए आसान भाषा में लिखें, छोटे-छोटे वाक्य लिखें जिससे उन्हें समझने में आसानी हो; जबकि यह धारणा गलत है -- बच्चे कठिन शब्दों को भी समझते हैं। बच्चों के लिए सरल वाक्यों की धारणा कहीं-न-कहीं भाषा के सौन्दर्य को समाप्त कर देती है। यह समझना ज़रूरी है कि बच्चों के लिए किताब लिखना कोई आसान काम नहीं है।

इसके बाद चित्रांकन की बात आती है, इसे भी समझने की ज़रूरत है। छोटे बच्चों के लिए चित्रांकन का काफी महत्व है क्योंकि यह टेक्स्ट को पूरा करता है। धीरे-धीरे बड़े बच्चों की पुस्तकों में चित्र की जगह टेक्स्ट पूरा कर लेते हैं। इसके लिए बच्चों की उम्र को ध्यान में रखा जाना चाहिए जिससे बच्चे उससे जुड़ सकें। अगर कभी किताबें पढ़ते हुए बच्चों का अवलोकन करें तो आप देखेंगे कि कुछ बच्चे काफी देर तक कुछ किताबों के चित्रों को देखने में मशगूल रहते हैं और उनसे जुड़ने की कोशिश करते हुए नज़र आते हैं। चित्रों में बहुत-सी बारीकियाँ होती हैं। बच्चे उनके बारे में सोचना चाहते हैं, अपने अनुभव जोड़ना चाहते हैं। आगे हमें यह बात भी समझनी चाहिए कि चित्रांकन टेक्स्ट को मदद करने वाला हो और वह ज़बरदस्ती किताब में थोपा न जाए। बच्चों की अधिकतर किताबों के चित्रांकन आपको बहुत थोपे हुए लगेंगे। ऐसा पाठ्य-पुस्तकों में तो बहुत होता है। सूचनात्मक पुस्तकों में चित्रांकन की जगह फोटोग्राफ, कार्टून आदि का इस्तेमाल भी बेहतर ढंग से किया जा सकता है लेकिन वहाँ यह समझना होगा कि टेक्स्ट की माँग किस तरह की है। इसी प्रकार कुछ किताबों में ब्लैक-एंड-व्हाइट चित्र भी काफी अपील करते हैं, उन्हें भी पुस्तकों में रखा जा सकता है। यह ज़रूरी नहीं कि बच्चों की हर पुस्तक के चित्र रंगीन हों।

कॉमिक्स व कार्टून की पुस्तकों के बारे में उन्होंने कहा कि बच्चों के साहित्य में कॉमिक्स कार्टून का विशेष स्थान है। इस तरह की पुस्तकें सीमित संज्ञानात्मक व भाषायी क्षमताओं वाले बच्चों के लिए उपयोग में लाई जा सकती हैं। कॉमिक्स का विचार चित्रों के माध्यम से किसी टेक्स्ट को अर्थ देना है। यहाँ हमें यह समझना होगा कि चित्र पठन भी एक महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक औज़ार है। कार्टून जैसे फॉर्मेट का उपयोग अधिकतर अभिव्यक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए किया जाता है जिसमें सहज हास्य, व्यंग्य के तत्व शामिल रहते हैं। बच्चों के पढ़ना सीखने में इन किताबों की भूमिका के बारे में उन्होंने बातचीत करते हुए कहा कि कहानियाँ बच्चों के सुनने-समझने व पढ़ने को एक सन्दर्भ में ले जाती हैं, जो ‘क’ से ‘कबूतर’ व ‘ख’ से ‘खरगोश’ वाली एप्रोच से काफी अलग होता है। किसी कहानी में शब्दों का होना उन्हें अर्थ प्रदान करता है जिससे बच्चों के सुनने-समझने, पढ़ने की प्रक्रिया अलग-थलग नहीं होती, न ही यह कोई यांत्रिक, नीरस प्रक्रिया बनती है। इनके उपयोग से बच्चों में नए शब्द सीखने की अभिप्रेरणा भी जागृत होती है। बच्चों के लिए सामग्री का चयन व इसके उपयोग के लिए उपयुक्त वातावरण महत्वपूर्ण है, जहाँ बच्चों को कहानियाँ सुनाई जाएँ, उनके साथ मिलकर पढ़ी जाएँ। इससे बच्चों के पढ़ना सीखने व इसमें रुचि बनने में काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

बच्चों की पुस्तकों में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इनमें जाति, वर्ग, लिंग आदि के भेदभाव न हों। बाल पुस्तकों में इस तरह के भेदभाव बहुत-सी किताबों में आसानी से देखे जा सकते हैं। इन भेदभावों को पुस्तकों में किसी समुदाय, जाति, लिंग, वर्ग आदि की बहुत नकारात्मक व पूर्वाग्रही छवि के रूप में देखा जा सकता है। अकसर ऐसा भाषा, चित्रांकन व किसी चरित्र को खास तरह गढ़कर किया जाता है। किसी भी पुस्तक को देखते, पढ़ते समय इन आयामों पर भी विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत।

कुछ अच्छी कहानियाँ

दिशा नवानी

कुछ कहानियाँ जो मुझे सीधे ही याद आ रही हैं उनमें से एक है कमला भसीन की ‘मालू भालू’ जिसका तूलिका प्रकाशन में खूबसूरती से चित्रण किया है बिन्दिया थापर ने। इस कहानी का मुख्य पात्र भालू का मादा बच्चा मालू है जो उत्तरी ध्रुव पर रहता है और दुनिया की सैर करना चाहता है। अपने माता-पिता द्वारा चेताए जाने के बावजूद वह अकेले ही बाहर बर्फ पर निकल पड़ता है। रास्ते में वह जिस हिम-शैल पर विश्राम कर रहा था वह उसे बहाकर दूर ले जाता है। वह छोटा-सा हिम-शैल चारों ओर पानी से घिरा हुआ है और मालू को तैरना नहीं आता। उसके माता-पिता को यह एहसास होता है कि मालू उनसे खो चुका है और वो उसकी तलाश में बाहर निकल पड़ते हैं। मालू की बहादुर माँ बिना उसे डाँटे या उसकी निन्दा किए (“सबसे ज़रूरी काम पहले! मालू की मम्मा ने उसे कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया”) उसे बचाने हेतु तैरने के लिए उकसाती है क्योंकि वह जानती है कि भालू पैदाइशी तैराक होते हैं। हालाँकि, मालू डर चुका है पर उसकी माँ मालू को आत्मविश्वास दिलाती है और अपने पीछे-पीछे आने को कहती है। यह बहुत ही सरल और बखूबी से एक ऐसी थीम के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है जिससे बच्चे खुद को आसानी से जोड़ पाएँगे। मालू को चतुर, साहसी और जिज्ञासु दिखाया गया है। जिस जगह पर अपने किए पर पछतावा वाला भाव दर्शाया गया है वहाँ पर भी दोनों, माँ और बेटी को सकारात्मक, आत्मविश्वासी और साहसी बताया गया है - न कि अन्य बहुत-सी कहानियों की तरह जिनमें इस हिस्से का इस्तेमाल बच्चों को शिक्षा देने के लिए किया जाता है, जहाँ पर बच्चों को गलती करते हुए अपरिपक्व और मूर्ख के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिन्हें लगातार वयस्कों की निगरानी में रहने की ज़रूरत होती है।

एक और कहानी जो मेरे दिमाग में आ रही है वो है ‘डस्टी, द डैच्शन्ड’ जिसे सीबीटी ने प्रकाशित किया है। यह एक छोटे कुत्ते की कहानी है जो अपने शारीरिक आकार के बहुत छोटे होने के चलते अपने मालिक के बेटे और वहाँ पहले से रह रहे दो ‘ग्रेट डेन’ं से उपहास का पात्र बनता है। डस्टी, चुपचाप यह सारा अपमान सहता रहता है और इसके चलते दुखी भी होता है। हालाँकि, वह सौभाग्यशाली दिन आ ही जाता है जब उसके घर पर एक चोर आ घुसता है और डस्टी उसे पकड़ पाने में कामयाब हो जाता है। होता कुछ यूँ है कि अपने छोटे आकार के कारण वह गेट के नीचे से निकलकर चोर का पीछा करने में सफल हो जाता है। जबकि दोनों बड़े कुत्ते अपने आकार की वजह से खुद को इस काम में लाचार पाते हैं। एक बार फिर कहानी स्पष्ट बुनावट और अच्छी तरह से कही गई होने की वजह से पाठकों की रुचि को पकड़े रह पाने में कामयाब रहती है। सभी डस्टी के साथ सहानुभूति रखते हैं मगर यह दया और तरस के भाव से अलग है। यह कहानी विविधता का सम्मान करती है, बिना किसी शिक्षाप्रद प्रवचन के।

प्रेमचन्द की ईदगाह भी बच्चों की कहानी का एक बहुत ही क्लासिकल उदाहरण है। इस कहानी का मुख्य पात्र भी एक छोटा गरीब बच्चा है जो अपनी बूढ़ी दादी के लिए मेले से चिमटा खरीदता है ताकि रोटियाँ सेंकते समय उसके हाथ न जलें। बच्चे का चित्रण बहुत ही ईमानदारी और यथार्थवादी तरीके से किया गया है। वह इस आशंका से परेशान है कि दोस्त उसके द्वारा मेले से पसन्द किए गए और खरीदे गए खिलौने के लिए चिढ़ाएँगे। कहानी दर्शाती है कि बच्चे ने एक निर्णय लिया है, अपनी ज़िद में, और अब वह उस पर आत्मविश्वास और सकारात्मकता से कायम है जो छोटे बच्चों के हठी स्वभाव को दर्शाता है। यह एक दिल को छू जाने वाली कहानी है। इसके अलावा यह बच्चों के लिए लिखी गई एक कहानी है जो उनके नज़रिए से उनकी दुनिया को दर्शाती है।
अकबर-बीरबल की कहानियाँ भी बच्चों के बीच खासी लोकप्रिय हैं जो बुद्धि, हास्य और न्याय के इर्द-गिर्द बुनी होती हैं।

बच्चों में पढ़ने की आदत पर किए गए अपने शोध में भी मैंने पाया कि बच्चे वर्ग, जाति, लिंग और क्षेत्रीयता की सीमाओं को तोड़कर कुछ खास प्रकार के लेखन को सार्वभौमिक रूप से पसन्द करते हैं। ऐसी कहानियाँ जिनका एक सुस्पष्ट खाका हो और जो समस्या-चुनौती से शु डिग्री करके समाधान तक पहुँचने का प्रारूप लिए हों, बच्चों को अकसर पसन्द आती हैं। ऐसी कहानियों का एक निश्चित तरीके से समापन होता है जिसमें वे शुरुआत में उठाई गई समस्या या संघर्ष का समाधान करती नज़र आती हैं।

कुछ लोक कथाएँ जैसे इक्की-दोकी (मराठी - यह कथा दो बहनों के बारे में है जिनमें से एक का केवल एक बाल है और दूसरी के दो। क्या होता है जब वे दोनों जंगल में जाती हैं?) और ‘हिस्स, डोन्ट बाइट’ (तूलिका द्वारा प्रकाशित मूल बांग्ला कहानी एक चिड़चिड़े साँप के बारे में है जो एक गाय को काट कर मार डालता है और अब सब उससे डरते हैं। एक साधु उसे अपना यह रवैया छोड़ देने की सलाह देता है और साँप अब विनम्र हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि जंगल के अन्य जानवर अब उसे चिढ़ाने और छेड़ने लग जाते हैं। साधु उसकी ऐसी दयनीय हालत देख उसे अनावश्यक रूप से किसी को न काटने, पर अपनी रक्षा के लिए फुफकारना जारी रखने की सलाह देता है.......। इस कहानी के केन्द्र में उत्पीड़न की समस्या है पर इसे इस प्रकार रचा गया है ताकि बच्चों को यह प्रासंगिक और रोमांचक भी लगे)। पंचतंत्र की भी कुछ कहानियाँ हैं जो शारीरिक कौशल पर नम्रता और बुद्धि की विजय का जश्न मनाती हैं (खरगोश और जंगल का राजा शेर, खरगोश और कछुआ), और कहानी - कौशल और विषयवस्तु के पैमानों पर भी खरी उतरती हैं।

इनमें एक स्पष्ट शुरुआत, चरमोत्कर्ष और एक निश्चित अन्त है। कहानी की बुनावट और विषय सामग्री, दोनों ही दृष्टियों से वे बच्चों को पसन्द आती हैं।
हालाँकि, अकसर ये कहानियाँ शिक्षाप्रद व उपदेशात्मक तरीके से प्रस्तुत की जाती हैं और लोक कथाओं में कुछ विशेष समुदायों और जेंडर का घिसा-पिटा स्टीरियोटिपिकल चित्रण काफी समस्यामूलक हो सकता है।

एक और कहानी जो इसी कड़ी में मुझे याद आ रही है, वह है रस्किन बॉण्ड की ‘घोस्ट ट्रबल’ जो कि एक बहुत ही रमणीय कहानी है। इसमें एक प्रेत एक पीपल के पेड़ पर रहता है पर अब वह पेड़ कट रहा है। ऐसे में वह प्रेत पेड़ के नज़दीक वाले घर पर उतर आता है और घर के सदस्यों के लिए अपनी शरारतों से मुसीबत पैदा कर देता है।

ऐसी बहुत-सी मज़ेदार कहानियाँ हैं जिन्हें बरसों से पढ़ा जा रहा है। उनमें अनेक ऐसे तत्व हैं जिनके प्रति बच्चे हमेशा ही आकर्षित होते रहे हैं। यह भी सम्भव है कि सभी कहानियाँ सभी बच्चों को पसन्द न आती हों, उनकी पसन्द अलग-अलग हो सकती हैं मगर इनमें कुछ पहलू ऐसे ज़रूर हैं जो सबको अवश्य ही पसन्द आने वाले हैं - ये बच्चों की दुनियाँ से ही है, बच्चों के नज़रिए से लिखी गई हैं, उनकी दुनियाँ के जश्न को इनमें शामिल किया गया है, उनके खुशी और गम की पहचान की गई है, बच्चों को वह सम्मान दिया गया है जिसके वे हकदार हैं। खासतौर पर जहाँ उनका चित्रण बच्चों के रूप में हुआ है। सिर्फ एक बच्चे को कहानी का मुख्य पात्र बना देना ही काफी नहीं होता। बच्चों को कहानी का मुख्य पात्र बनाकर बच्चों की कहानी के रूप में वयस्कों की सोच, सलाह और नज़रिया घुसाने के प्रयास करने वाला साहित्य निश्चित तौर पर बच्चों के लिए खरा और उत्कृष्ट साहित्य नहीं है। दुख की बात तो यह है कि आज बाज़ार में ऐसे ही साहित्य की बाढ़-सी आई हुई है।

—इंग्लिश से अनुवाद: अम्बरीष सोनी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध।